क्या वाकई बच्चे हमारी संवेदनाओं का हिस्सा हैं, या सिर्फ सियासत का!

2016 में जुलाई या अगस्त का महीना था, जब दोनों सदनों के बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 को मंज़ूरी दे दी, कानून बन गया.

क्या वाकई बच्चे हमारी संवेदनाओं का हिस्सा हैं, या सिर्फ सियासत का!

वो बच्ची जो घोड़े लेने आई, पर लौटी नहीं! क्या ऐसे कई बच्चों को हम बचा नहीं सकते? क्यों वो स्कूल छोड़ गाय-बकरी चराने निकलते हैं? क्या "14 साल से कम उम्र के बच्चों की अनिवार्य शिक्षा" का कानून बेमानी है? मन परेशान था, तभी कुछ पुरानी बातें, पुरानी तस्वीरें याद आ गईं! 2016 में जुलाई या अगस्त का महीना था, जब दोनों सदनों के बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 को मंज़ूरी दे दी, कानून बन गया. कहा गया 1989 के कानून को पैना किया गया है जिससे किसी काम में बच्चों को नियुक्त करने वाले शख्स पर जुर्माने के अलावा सजा भी बढ़ाई जा सके. बिल के मुताबिक 14 से 18 साल के बच्चे को किशोर माना गया... बच्चा वो जिसकी उम्र 14 साल से कम है, इस बच्चे को सरकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देगी.

जब हम चुनावी कवरेज से फारिग होते हैं, तो अक्सर ऐसे कई सवाल दिखते हैं, दिमाग संसद की कवरेज, नेताओं के बयान या शगल पर दौड़ता रहता है. कोलारस और मुंगावली के उपचुनाव मध्यप्रदेश में कुछ ऐसे ही लड़े गये. कांग्रेस की दावेदारी दीवारों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया दिखाते तो अपने कैबिनेट के 20 से ज्यादा मंत्रियों के साथ शिवराज ज्योतिरादित्य को उनके गढ़ में घेरकर हराना चाहते थे. दोनों की कई रैलियों मैंने कवर कीं. शिवराज के लिये छोटी-छोटी बच्चियां कलश लेकर घंटों खड़ी रहतीं, वो भी रथ से उतरते भांजे-भांजी कहकर झूम लेते. सिंधिया के मंच पर भी बच्चे स्वागत के लिये खड़े रहते थे, कई रैलियों में पोस्टर बैनर, साफा बांधे कांग्रेस का प्रचार करते दिखते.
 

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फिर दिमाग बंडारू दत्तात्रेय के भाषण में चला गया जिन्होंने बिल पेश करते वक्त बताया था कोई भी बच्चा किसी काम में नहीं लगाया जाएगा. लेकिन जब वो अपने परिवार या परिवार के रोजगार में मदद कर रहा हो, स्कूल के बाद के खाली समय में या छुट्टियों में और रोजगार खतरनाक नहीं है तो यह कानून लागू नहीं होगा. अगर बच्चा टीवी, फिल्म, विज्ञापन आदि में कलाकार के रूप में काम करता है तो कानून लागू नहीं होगा. यह सुनिश्चित करना होगा कि यह सब करते हुए स्कूल की पढ़ाई प्रभावित न हो. ये भी कहा था कि पारिवारिक कारोबार में मालिक-मजदूर का संबंध नहीं होता है. 14 साल के नीचे के बच्चों को एक अपवाद में मौका दिया जा रहा है. माता-पिता के लिए वह अपवाद हैं. यही नहीं खतरनाक उद्योगों की संख्या 83 से घटाकर 3 कर दी गई, सिर्फ खदान, ज्वलनशील पदार्थ और विस्फोटक उद्योग को ही खतरनाक माना गया. ज़री, चूड़ी बाजार, कपड़ों की दुकान या कारखाने में बच्चे काम कर सकते हैं. नए बिल में सजा का प्रावधान भी सख्त कर दिया गया...

तो सवाल ये था राजनीति में प्रचार क्या ख़तरनाक हैं? क्या ये सिंधिया या शिवराज के परिवार के सदस्य हैं? कैमरा जब कहीं घूम रहा होता था तो अलसाये बच्चों से मैं बतियाने लगता, पता लगा खेल-स्कूल छोड़ यहां लाए जाते हैं...

जब मन में तर्क वितर्क चलते हैं तो ढेर सारी बातें याद आती हैं, तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने बीजेपी के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत की थी कि उनका एक टीवी ऐड बाल श्रम (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 का उल्लंघन करता है. जिसके बाद चुनाव आयोग ने विज्ञापन पर रोक लगा दी थी, लेकिन यहां!
 
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आखिरी दिन तक शिवराज-सिंधिया अपनी रैलियों का अर्धशतक लगा चुके थे. कोलारस से निकले तो बदरवास के पास एक ढाबे में खाने बैठे जहां कई सायरन वाली गाड़ियों का जमावड़ा था (लालबत्ती के बाद सायरन नई लाल बत्ती है). अलग-अलग परिधानों में कुछ पहचाने कुछ अंजाने नेता मंत्री बैठे थे. पता लगा लगभग सारे यहीं के मोटे रोट और दाल खाते हैं. हाथ धोने गये तो बर्तन धोते बच्चों की तस्वीर से पैर ठिठक गये! श्रम मंत्री... लोकसभा... राज्यसभा सब याद आने लगे. बाल श्रम पर कानून बना तो ये सवाल उठा था कि गरीब परिवारों के लिए मुश्किल हो जाएगी, एक तर्क बचपन छिनने का भी था. याद आया कि बाल सुधार संशोधन बिल 14 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी तरह के उद्यम या नौकरी में रखने के खिलाफ है. याद आया कि बाल श्रम के मामलों में अब कम से कम 6 महीने से लेकर 2 साल तक की सजा होगी. जुर्माने की राशि 20,000 से लेकर 50,000 कर दी गई है. अगर मां-बाप ने काम की इजाजत नहीं दी है तो उन्हें सजा नहीं मिलेगी. मां-बाप या संरक्षक एक बार से ज्यादा अपराध करते हैं तो उन पर 10,000 रुपए का जुर्माना लग सकता है.

बिल के सेक्शन 17 में जोड़ा गया था कि कलेक्टर ये देखेगा कि इस कानून के प्रावधान ठीक से लागू होते हैं या नहीं. हां तभी याद आया कि "कलेक्टर साहब" पर सत्ताधारी पार्टी को मदद के आरोप लगे थे! ओह, तभी वहां कांग्रेस के कई नेता दिखे लेकिन उन्हें शायद यहां काम करते बच्चे नहीं! अब वो वोटबैंक तो होते नहीं, वोट का बैंक बनाने में जरूर इस्तेमाल किये जाते हैं! तो फिर सत्ता, विपक्ष या प्रशासन बच्चे क्यों देखें, क्या मतलब उन्हें?

बच्चों की ये अनदेखी 'सर्वदलीय' है, बाल अधिकारों पर काम करने वाले एक साथी से बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि 1997 से मध्यप्रदेश में बाल श्रमिकों की गिनती नहीं हैं. तभी इंटरनेट पर पन्ने पलटते दिखा कि लगभग 7 करोड़ की आबादी वाले मध्यप्रदेश में 7 लाख बाल श्रमिक हैं. 5 लाख 64 हजार की उम्र 10 से 14 साल के बीच, वैसे ये ज्ञान जनगणना 2011 के आंकड़ों ने दिया नहीं तो मध्यप्रदेश सरकार तो मानती है कि 11 जिलों में 108 बाल श्रमिक हैं.

हां तो साथियों कुछ दिनों से बाबासाहेब के नाम पर खूब सियासत चल रही है, कठुआ की बच्ची पर हम ज़ारो कतरा रो रहे हैं... काश वो बच्ची काम करने के बजाए स्कूल में होती! काश हमें बाबा साहेब के संविधान का अनुच्छेद 24 याद रहता, काश शिवराज के राज में सिंधिया उन्हें अनुच्छेद 21 बताते!

लेकिन फुर्सत किसे थी, बच्चे वोट जो नहीं देते... ढाबे पर खाना खाया, नारे लगाए... जूठे बर्तन छोड़े... हम भी निकल पड़े! नतीजों के दो महीने बाद बच्चे याद आए सो लिख दिया... वैसे आप तो जाति, मजहब देखकर ही वोट देना साथी.! बच्चों का क्या ऐसी रैली में पोस्टर, बैनर पकड़ा देना, "100-50 कमा लेंगे"! बस याद रखना भीड़ तंत्र ... भीड़ ही पैदा करेगा!

(अनुराग द्वारा एनडीटीवी में एसोसिएट एडिटर हैं)

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