पर्दे पर निर्देशक की वापसी की फिल्म है 'आर्टिकल-15'

'आर्टिकल-15' में अनुभव ने उसी उत्तर प्रदेश के सींग को सामने से पकड़ा है, जहां से देश की राजनीति अपना खाद-पानी हासिल करती है.

पर्दे पर निर्देशक की वापसी की फिल्म है 'आर्टिकल-15'

बात सिर्फ कहने से बड़ी नहीं होती है. बड़ी इसलिए भी होती है कि वह किन चुनौतियों के बीच कही जा रही है. इस बॉलीवुड में एक से एक क़ाबिल निर्देशक हैं, जिनके पास जोखिम उठाने के लिए संसाधनों की कमीं नहीं हैं. लेकिन उनमें से किसने हमारे सामने गुज़र रहे समय पर फ़िल्म बनाई है. ये बड़े निर्देशक राजनीति से डर गए. ट्रोल की भीड़ से कांप गए. अनुभव सिन्हा ने न सिर्फ दो-दो बार जोखिम उठाया, बल्कि ट्विटर पर आकर ट्रोल से खुलेआम भिड़ भी रहे हैं. कई बार उन्हीं की भाषा में भिड़ रहे हैं. वरना आज के दिग्गज निर्देशक दो ट्वीट में चुप हो जाते, हाथ जोड़ लेते.

अनुभव सिन्हा की फ़िल्म 'मुल्क' क्राफ़्ट से भी ज्यादा अपने समय से लोहा लेने के मामले में बड़ी फ़िल्म थी. दर्शक समाज जिस तरह से व्हॉट्सऐप की भाषा में सोचने लगा है, उससे प्रभावित होने लगा है, अनुभव ने उसी की भाषा में 'मुल्क' बनाकर खुद को इतिहास के पन्नों में कहीं दर्ज होने के लिए छोड़ दिया है. हिन्दू-मुस्लिम के बीच शक की राजनीति भले उस फ़िल्म के बाद भी जारी है, लेकिन अनुभव का निर्देशक मन इस सवाल से भाग न सका. 'मुल्क' एक सफ़ल फिल्म थी.

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'आर्टिकल-15' में अनुभव ने उसी उत्तर प्रदेश के सींग को सामने से पकड़ा है, जहां से देश की राजनीति अपना खाद-पानी हासिल करती है. फ़िल्म का एक किरदार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की शैली में बोलता है. फ़िल्म अपनी शूटिंग के लिए योगी आदित्यनाथ का शुक्रिया भी अदा करती है. फ़िल्म बॉब डेलन को समर्पित है. एक आदमी को आदमी बनने के लिए आख़िर कितने सफ़र पूरे करने होंगे. उत्तर प्रदेश के आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे से फ़िल्म शुरू होती है.

फ़िल्म के बारे में बहुत लोग लिख चुके हैं. एक अच्छी फ़िल्म वह भी होती है, जो यह सवाल पैदा करे कि यह भी होता, तो अच्छा रहता. अनुभव के फ़्रेम मुझे बहुत पसंद आए. आप इसे शॉट कह सकते हैं, सीन कह सकते हैं. फ़्रेम की लाइटिंग न तो घोर अंधेरे की है, न उजाले की. गोधूलि की है या भोर की है. वह नाहक भावुकता पैदा नहीं करते. बल्कि कहानी के यथार्थ से दूर हो चुके दर्शक से थोड़ी दूरी से संवाद करते हैं. तनाव का क्लाइमेक्स नहीं है, ताकि आप अपने तनाव को जीने लगें और किरदार के तनाव को भूल जाएं या उससे भाग जाएं.

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लॉन्ग और टॉप शॉट में UP पुलिस की बोलेरो को वह एक स्पेस देते हैं. जीप छोटी लगने लगती है. पावर का सिंबल होकर भी पावर-लेस. मोहरा होकर भी पुलिस अब मोहरा नहीं है. उसके भीतर एक साथ कई मोहरे हैं. बल्कि पुलिस का महकमा महकमा ही नहीं लगता. उसके भीतर जाति का मोहल्ला अब एक दूसरे को देख लेने की ताक़त का गढ़ नहीं है. उनके जातिगत नाम की सरकारें भी उन्हें कमज़ोर और लचर बना गई हैं. जैसे ही आप इस कठोर यथार्थ के क़रीब जाते हैं, निर्देशक आपको सांस लेने की जगह देता है और सीन चेंज कर देता है.

ऐसे माहौल में कैसे काम करेगा अफसर?

संवाद लोडेड हैं, न ओवर-लोडेड. जैसे UP या हिन्दी प्रदेश के लोग इन बातों से सहज हो गए हैं, उसी सहजता से फ़िल्म लोगों से संवाद करती है. कहानी कहानी की तरह चल रही है. जीप की आवाज़ की निरंतरता का ख़ूबी से इस्तमाल किया गया है. गाड़ी की रफ्तार धीमी है. ऐसी फ़िल्मों में पुलिस की गाड़ी बुलेट ट्रेन लगती है. फिल्म में पुलिस की हर गाड़ी अपने बोझ से धीमी हो चुकी है, जैसे पेट्रोल ख़त्म होने वाला हो.

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आयुष्मान खुराना पर निर्देशक का पूरा नियंत्रण है. इसका श्रेय भी आयुष्मान को जाना चाहिए कि उसने निर्देशक पर भरोसा किया. शानदार अभिनय किया. गौरव सोलंकी और अनुभव सिन्हा ने मिलकर पटकथा को पटरी पर रखा है. कुछ भी फ़ालतू संवाद नहीं है. बैकग्राउंड स्कोर के लिए संगीतकार का विशेष शुक्रिया अदा करना चाहता हूं. उसकी वजह से भी फिल्म पहले देखी हुई या सुनी हुई नहीं लगती है.

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एक निर्देशक अपनी फिल्म का नाम 'आर्टिकल-15' रख दे, यही अपने आप में एक प्रतिरोध है. हर निर्देशक हिट होने के लिए फिल्म बनाता है. अनुभव ने फ्लॉप-से टाइटल को चुना है, मगर फिल्म ज़बरदस्त बनाई है. संविधान का एक पूरा पन्ना इंटरवल से पहले काफ़ी देर तक बड़े स्क्रीन पर चिपका देते हैं. यह प्रतिरोध है. अपने समय और समाज से प्रतिरोध. वर्ना उतनी देर का एक आइटम सॉन्ग डालकर निर्देशक ज़्यादा प्रचार पा सकता था. निर्देशक को आइटम सॉन्ग शूट करना आता है, यह मेरा विश्वास है.

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बहरहाल 'आर्टिकल-15' देखिए. यह फिल्म आपके भीतर के दर्शक को नए सिरे से दर्शक बनाती है. आप देखकर अच्छा महसूस करते हैं. यह एक बड़ी फिल्म है, इसलिए कई चीज़ें रह गई हैं. इसलिए आलोचक अपने हिसाब से निर्देशित कर रहे हैं. निर्देशक को राय दे रहे हैं. इसका मतलब है कि यह फिल्म फिल्म बनाने की बेचैनी और क्राफ़्ट को ज़िंदा कर रही है. मुझे बहुत दिन बाद 'देखना' अच्छा लगा. बहुत दिन बाद पूरी तरह से एक निर्देशक की फिल्म आई है. तभी कहानी शुरू होने से पहले अनुराग कश्यप से लेकर विशाल भारद्वाज के प्रति आभार प्रकट करती है. पैसा और समय दोनों वसूल हो जाते हैं.

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