मुझे एग्जिट पोल अविश्‍वसनीय लगते हैं, 23 मई का इंतजार करूंगा

मैं मानता हूं कि पिछले पांच साल में देश में कुछ हद तक बदलाव आया है. यह पहले के किसी भी वक्त से कहीं ज़्यादा 'हिन्दू' हो गया है. पुराने वक्त के हिन्दू अपनी हिन्दू पहचान का बखान करने से बचते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है.

मुझे एग्जिट पोल अविश्‍वसनीय लगते हैं, 23 मई का इंतजार करूंगा

पीएम नरेंद्र मोदी के साथ बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह

जब तक 23 मई को नतीजे नहीं आ जाते, मैं उन आंकड़ों पर भरोसा नहीं करने वाला, जो एग्ज़िट पोल ने हमें दिए हैं. ऐसा नहीं है कि मैं षड्यंत्र वाली थ्योरी में यकीन करता हूं कि चुनाव में धांधली हुई है, या EVM के साथ छेड़छाड़ की गई है. मैं इन पर यकीन नहीं करता, क्योंकि वास्तविकता, जो मुझे दिख रही है, इससे बिल्कुल अलग है. मैं गलत हो सकता हूं, या मैं यह देखने से चूक गया हो सकता हूं कि कब भारत इतना बदल गया, लेकिन मुझे यकीन करने के लिए वास्तविक आंकड़े चाहिए.

मैं मानता हूं कि पिछले पांच साल में देश में कुछ हद तक बदलाव आया है. यह पहले के किसी भी वक्त से कहीं ज़्यादा 'हिन्दू' हो गया है. पुराने वक्त के हिन्दू अपनी हिन्दू पहचान का बखान करने से बचते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. यह, मुझे लगता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का असल 'योगदान' है. अगर लालकृष्ण आडवाणी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने हिन्दुओं के एक हिस्से में यह भावना भर दी कि खासे बहुसंख्यक होने के बावजूद उनके साथ भेदभाव किया जाता है, तो मोदी ने उसी भावना को ऐसी व्यापकता से ढाल दिया, जिससे वह जीत हासिल कर सकें.

अब सिर्फ मुस्लिम ही वोट बैंक नहीं रह गए हैं. कहीं बड़ा हिन्दू वोट बैंक तैयार हो चुका है, जिसने मुस्लिम वोट बैंक को लगभग अप्रासंगिक बना डाला है. हिन्दुओं के एक वर्ग में मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह - महात्मा गांधी ने वर्ष 1909 में अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में इसका ज़िक्र किया था - अब नई पहचान बना चुका है. उस पूर्वाग्रह ने वास्तविक स्वरूप ले लिया है. जिस तरह राजनैतिक इस्लाम हुआ करता था, अब राजनैतिक हिन्दू भी होते हैं.

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लेकिन बड़ा सवाल है - क्या राजनैतिक हिन्दू होना इतना बड़ा हो गया है कि वह अपनी आर्थिक पहचान को खो चुका है...? क्या अब यह मायने नहीं रखता, कि आपके बेटे और बेटियों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं, और पिछले कुछ सालों में आपकी क्रयशक्ति बेहद कम हो गई है, और अब आप बाहर जाकर कार जैसी वस्तुएं जब चाहे नहीं खरीद सकते हैं...? अब यह मायने नहीं रखता, कि बचत घट रही हैं, और व्यापार घाटे में चल रहे हैं...? आज की सच्चाई यह है कि भारत, दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, अच्छी हालत में नहीं है. हर आर्थिक संकेतक एक भयावह कथा सुना रहा है और अर्थशास्त्री चेता रहे हैं कि भारत धीरे-धीरे मंदी की दिशा में बढ़ रहा है, और आने वाले दिन समूचे देश के लिए मुश्किलों से भरे होंगे.

मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि नया राजनैतिक हिन्दू अपनी आर्थिक पहचान के प्रति इतना निर्लिप्त है कि रोज़मर्रा की तकलीफें उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं. आंकड़े दिखाते हैं कि बेरोज़गारी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं, यह पिछले 45 सालों में सर्वोच्च स्तर पर है और इसके कम होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं.

CMIE के ताज़ातरीन आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल के तीसरे सप्ताह में बेरोज़गारी 8.4 फीसदी के सर्वकालिक ऊंचे स्तर पर थी. सरकार लगातार इस आंकड़े को झुठलाती रही है. दरअसल, सरकार ने रोज़गार के आंकड़े प्रकाशित करना ही बंद कर दिया है और उससे जुड़ी एजेंसियां इन आंकड़ों की सच्चाई पर सवाल खड़े करने लगी हैं. NSSO और CMIE के आंकड़ों का मज़ाक उड़ाया जा रहा है. औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, विनिर्माण तथा सर्विस सेक्टर अब लाभदायक नहीं रहे. उपभोग, विशेषकर ग्रामीण उपभोग, घट गया है, ऑटो बिक्री भी हालिया महीनों में बेहद बुरी तरह गिरी है.

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मैंने अपनी पुस्तक हिन्दू राष्ट्र में तर्क दिया है कि समूची जनता को सम्मोहित कर लेने के लिए 'स्वर्ग का वादा' बेहद कारगर हथियार है. इसे हमने नोटबंदी और उसके तुरंत बाद खुद घटते देखा है. सारी दुनिया भौंचक्की रह गई थी, जब नोटबंदी के बावजूद BJP ने वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में शानदार जीत हासिल कर ली थी. लेकिन उसके बाद, जिस तरह GST को लागू किया गया, लोगों की तकलीफें कई गुना बढ़ गईं, और वह समय था, जब महसूस किया गया कि मोदी की लोकप्रियता घट रही है. गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों ने इस बात को साबित भी किया.

लेकिन इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि दिसंबर, 2018 से हालात इतने बदल गए हैं, और लोग अपने सारी तकलीफें इस तरह भूल गए हैं, कि उन्होंने मोदी को 2014 से भी बेहतर जनादेश देने का फैसला कर लिया - जबकि उस समय वह मसीहा समझे जा रहे थे, डिवाइडर-इन-चीफ नहीं.

2019 में मोदी वही शख्स नहीं हैं. 2014 में उन्होंने विवादस्पद मुद्दों पर बात ही नहीं की थी. उन्होंने विकास को मुद्दा बनाया था. उन्होंने नौकरियों का वादा किया था, देश का पुनरुद्धार करने का वादा किया था, उन्होंने चांद लाकर देने का वादा किया था. उन्होंने वादा किया था कि वह भारत को 'विश्वगुरु' बना देंगे. उन्होंने साम्प्रदायिक मुद्दों पर बात नहीं की थी. हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे उनके एजेंडे में नहीं थे. उन्होंने 'सबका साथ - सबका विकास' की बात की थी. 2019 में वह बदल चुके हैं. वह ज़ोरशोर से अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों का मुद्दा उठाते हैं, जब राहुल गांधी वायनाड से लड़ने का फैसला करते हैं. वह खुलेआम उन हिन्दुओं की बात करते हैं, जिन्हें 'जय श्री राम' का नारा लगाने पर पश्चिम बंगाल में परेशान किया जा रहा है, और राज्य में मुस्लिमों को प्रश्रय दिए जाने की बात करते हैं. उन्होंने चुनाव आयोग के आदेश के बावजूद सेना की बहादुरी का सहारा लिया. उन्होंने डींग हांकी, कैसे उनके नेतृत्व में, सेना ने पुलवामा आतंकवादी हमले के कड़े जवाब में आतंकवादियों को उन्हीं की धरती पर घुसकर मारा.

वर्ष 2014 में, विपक्ष बंटा हुआ था. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की वजह से कांग्रेस स्वीकार्य नहीं रही थी. ऐसे में मोदी ने खुद को ताज़ा हवा के झोंके के रूप में पेश किया था.

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वर्ष 2019 में विपक्ष की एकता का ग्राफ काफी ऊंचा है, हालांकि यह बेहतर हो सकता था. इस बार कांग्रेस को नहीं, मोदी को जवाब देने थे कि उन्होंने पांच साल पहले किए वादे पूरे किए या नहीं. और उनका स्कोरकार्ड उम्मीअफज़ाह नहीं लग रहा था. कुछ सरकारी कल्याणाकारी योजनाओं की मार्केटिंग अच्छी रही है, लेकिन क्या वह दूसरा कार्यकाल दिलाने में सक्षम थीं. मुझे शक है. इसके बावजूद, एग्ज़िट पोल यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि लोग न सिर्फ उनके कार्यकाल से खुश हैं, बल्कि उन्हें पहले से बेहतर जनादेश देने के इच्छुक हैं.

कहा जाता है कि मोदी हमेशा अपने कान ज़मीन से जोड़कर चलते हैं. अगर उन्हें इस तरह के परिणामों का ज़रा भी अनुमान होता, जैसे एग्ज़िट पोल बता रहे हैं, तो वह उतने मुरझाए, थके हुए और रक्षात्मक नज़र नहीं आते. मोदी को खुद को आत्मविश्वास से भरपूर दिखाना पसंद है. लेकिन उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में, जिसे उन्होंने कभी संबोधित नहीं किया, वह अपने वास्तविक रूप में हरगिज़ नहीं थे. वह बेहद चिंतित लग रहे थे. क्या वह अभिनय कर रहे थे...? मुझे नहीं लगता.

षड्यंत्र वाली थ्योरी में यकीन नहीं करने के बावजूद मुझे इस पर यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि ये आंकड़े सच्चे हो सकते हैं. मैं यकीन नहीं करना चाहता कि ये एग्ज़िट पोल लोगों की वास्तविक सोच और इच्छा को परिलक्षित करते हैं. सो, अंतिम नतीजों का इंतज़ार करते हैं, वास्तविक नतीजों का. सिर्फ तभी हम कह पाएंगे कि क्या भारत सचमुच वह बन गया है, जो उसे नहीं होना चाहिए.

आशुतोष दिल्ली में बसे लेखक और पत्रकार हैं.

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