'रोहिंग्या मुसलमानों पर म्यांमार में ज़ुल्म' रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है. इसकी कीमत तय करने से पहले हम जाति लगाते हैं, धर्म लगाते हैं, भाषा लगाते हैं और मुल्क लगाते हैं.

'रोहिंग्या मुसलमानों पर म्यांमार में ज़ुल्म' रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है. इसकी कीमत तय करने से पहले हम जाति लगाते हैं, धर्म लगाते हैं, भाषा लगाते हैं और मुल्क लगाते हैं. वैसे ये सब लगा देने के बाद भी गारंटी नहीं है कि जान की कीमत समझी ही जाएगी. हमारे नेताओ ने हमें यही सीखाया है कि मानवाधिकार नक्सलवाद और आतंकवाद का समर्थन करता है. बड़े आराम से हम भूल जाते हैं कि मानवाधिकार आयोग एक संवैधानिक संस्था है और मानवाधिकार की बात करना हमारा संवैधानिक नागरिक दायित्व है. अगर मानवाधिकार के सवाल उठाने का मतलब आतंकवाद का समर्थन है तो मानवाधिकार के नाम पर बनी संस्थाओं के प्रमुख क्या है और क्यों हैं. राजनीति हमें इन सवालों पर सोचने का मौका नहीं देती है, एक बनी बनाई दलील लगातार ठेलते रहते है और हम उसे स्वीकार करते चलते हैं. 

VIDEO: प्राइम टाइम: रोहिंग्या मुसलमानों का मानवाधिकार हनन
म्यांमार के उत्तरी रख़ायन नाम का इलाका बांग्लादेश की सीमा से लगता है. 11 लाख रोहिंग्या मुसलमान बेहद ग़रीब हैं. सेना और बौद्ध हिंसा का शिकार होकर उन्हें जब भी भागना होता है बंगाल की खाड़ी में नाव के ज़रिये भाग कर बांग्लादेश आते हैं. उसके पहले कई दिनों तक भूखे-प्यासे जंगलों में भागते हुए, सीमा पर म्यांमार की सेना की गोलियों से ढेर होते हुए वे किसी तरह बांग्लादेश पहुंचते हैं. पिछले दिनों जब रोहिंग्या मुसलमान भागते हुए बांग्लादेश पहुंचे तो उनके शरीर में सिर्फ जान ही बची थी. भूख और प्यास ने उन्हें जर्जर बना दिया था. म्यांमार की सरकार की दलील है कि रोहिंग्या आतंकवादी संगठन ARSA ने 25 अगस्त को 30 पुलिस चौकियों और सेना के अड्डों पर हमला कर दिया. जिसमें बड़ी संख्या में सेना और सिपाही मारे गए. नागरिक भी मारे गए. इसके बदले में कार्रवाई की गई है जिसमें 400 से अधिक आतंकवादी मारे गए हैं. 

वहां की सरकार यह नहीं बताती कि क्या वे सभी रोहिंग्या मुसलमानों को आतंकवादी मानती है. म्यांमार की सरकार ख़ुद ही कहती है कि रोहिंग्या आतंकवादी संगठन को सऊदी जिहादी मदद करते हैं. अब ये कोई नहीं पूछता कि ये सऊदी जिहादी कौन हैं, क्या इन्हें सऊदी अरब में पनाह मिलती है जो म्यांमार के इस ग़रीब इलाके में आकर आतंकवाद फैला रहे हैं. तब दुनिया उस सऊदी अरब से क्यों नहीं बात करती है, जिसके साथ हर दूसरे दिन कोई न कोई राष्ट्र प्रमुख बिजनेस के लिए खड़ा होता है. ज़ाहिर है म्यांमार का यह बहाना है. वहां की सरकार को कहना चाहिए कि क्या वे सभी 11 लाख रोहिंग्या मुसलमानों को आतंकवादी मानती है.

गार्डियन टेलिग्राफ न्यूयार्क टाइम्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय अख़बारों में बांग्लादेश की सीमा से काफी रिपोर्टिंग हुई है. जान बचाकर आए रोहिंग्या मुसलमानों ने बताया है कि किस तरह सेना गांवों को घेर कर जला दे रही है. हेलीकॉप्टर से गोलियों की बौछार कर रही है. बच्चों को मार रही है. म्यांमार की सरकार ने ग़रीब रोहिंग्या मुसलमानों तक हर तरह की मदद पहुंचने से रोक दी है. सरकार और आंग सान सू ची का कहना है कि ये संगठन आतंकवाद फैला रहे हैं. भूखे प्यासों को खाना और दवा देकर दुनिया में आतंकवाद फैलता है या बंदूक और बम देकर फैलता है. सू ची को बताना चाहिए कि रोहिंग्या मुक्ति सेना को हथियार कौन देश दे रहा है. 

इस हिंसा ने शांति और तर्क के प्रतीक बौद्ध समाज का भी एक हिंसक चेहरा सामने लाया है. रोहिंग्या सिर्फ 'सेना बनाम रोहिंग्या' की लड़ाई में नहीं फंसे हैं, वे बौद्ध समाज के साथ सांप्रदायिक हिंसा के भी भेंट चढ़े हैं. 2012 में रोहिंग्या औरत के साथ बलात्कार और हत्या के बाद दंगा भड़का तो वहां से सवा लाख रोहिंग्या मुसलमानों को देश छोड़कर भागना पड़ा था. उन्हें घेर कर मारने के लिए म्यांमार सरकार ने वहां से बौद्ध समुदाय के लोगों को काफी बड़ी संख्या में हटा दिया है. म्यांमार लगातार रोहिंग्या मुसलमानों को घेर कर मार रहा है. आप समझ रहे हैं कि वहां मौजूद हिन्दुओं के साथ कुछ नहीं हो रहा होगा तो गलत है. इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी है कि 27 और 28 अगस्त को मुसलमानों के साथ-साथ 86 हिन्दुओं को भी मार दिया गया है. 

बांग्लादेश हिन्दू, बुद्धिस्ट, क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल के राना दासगुप्ता ने कहा है कि करीब 510 हिन्दुओं ने बांग्लादेश के काक्स बाज़ार में शरण ली है. जिस देश में मानवाधिकार का रिकॉर्ड ख़राब होता है, वहां जनता मारी जाती है, हिन्दू और मुसलमान ही नहीं, जिसकी बारी आती है सरकार कुचल देती है. इसलिए तय करना होगा कि हमें म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को सिर्फ मुसलमानों की नज़र से देखना है या मानवाधिकार की नज़र से. क्या हम अब इतने सांप्रदायिक हो चुके हैं कि इस बात से फर्क ही नहीं पड़ेगा कि किसी देश की सेना आम नागरिकों को घेर कर यूं ही गोलियों से उड़ा दे रही है.

रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता भी हासिल नहीं है. वहां के कानून से उसी रोहिंग्या मुसलमान को नागरिकता मिलेगी जो साबित करेगा कि उसके परदादा 1823 से पहले म्यांमार आए थे. क्या कोई दो सदी पहले का रिकॉर्ड देकर साबित कर सकता है. ज़ाहिर है वहां की सरकार आबादी के इस हिस्से को मार कर खत्म कर देना चाहती है. 

म्यांमार से भारत का खास संबंध रहा है. हमारे प्रधानमंत्री दूसरी बार म्यांमार में हैं. उनकी यात्रा का एक खास हिस्सा है बगान के मंदिरों का उद्घाटन. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया ने बगान के हिन्दू मंदिरों का बेहतरीन संरक्षण किया है. बहादुर शाह ज़फ़र को म्यांमार में ही दफनाया गया है. बाल गंगाधर तिलक को बर्मा में ही क़ैद कर रखा गया था. रंगून और माडले की जेलों में अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की निशानियां हैं वहां. 2012 में जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बर्मा की यात्रा की थी तब प्रकाश के रे ने अपने ब्लाग बरगद पर एक लेख लिखा-
उसी बर्मा में बड़ी संख्या में गिरमिटिया मज़दूर ब्रिटिश शासन की गुलामी के लिए ले जाए गए और लौट कर नहीं आ सके. आज तक उनकी संतानों को नागरिकता नहीं मिली है. वे भयानक शोषण और यातनाओं से गुज़र रहे हैं. इसलिए हमें बर्मा के राजनीतिक घटनाक्रम को न सिर्फ ठीक से समझने की ज़रूरत है बल्कि हमें वहां के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों को नैतिक समर्थन भी देना चाहिए. 

संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने रोहिंग्या मुसलमानों पर एक रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट की भारत के अखबार में तारीफ है तो बैंकाक पोस्ट ने खासी आलोचना की है कि इसमें कुछ नहीं है. दुनिया के कई देशों में रोहिंग्या मुसलमानों के मानवाधिकार के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं. मलेशिया और इंडोनेशिया के विदेश मंत्रियों ने म्यनमार की सरकार को सख्त चेतावनी दी है.

इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में म्यांमार दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ है. सड़कों पर बड़ी संख्या में लोग रोहिंग्या मुसलमानों के हक़ में उतरे हैं. चेचन्या में हजारों की संख्या में लोग सड़क पर उतरे हैं. आस्ट्रेलिया में भी म्यांमार सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं. बैंकाक पोस्ट ने तो लिखा है कि थाईलैंड को म्यांमार पर कूटनीतिक दबाव डालना चाहिए. खुद तानाशाही का आरोप झेल रहे टर्की के राष्ट्रपति तक ने म्यांमार की आलोचना की है. 

नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसूफ ज़ई ने एक पत्र लिख कर आंग सान सू चू से पूछा है कि आप कब बोलेंगी. आपने अभी तक इसकी निंदा क्यों नहीं की है. अमेरीका के विदेश सचिव बोरिस जॉनसन ने आंग सान सू ची को चेतावनी दी है कि वे रोहिंग्या मुसलमानों तक मदद पहुंचने से रोक कर अच्छा नहीं कर कर रही हैं. कोई नोबल पुरस्कार विजेताओं ने नोबल कमेटी को लिखा है कि आंग सान सू ची को दिया गया नोबल पुरस्कार वापस ले लिया जाए. सू ची कभी दुनिया भर में शांति और लोकतंत्र का प्रतीक के रूप में देखी गईं आज वही भूखे बच्चों तक मदद नहीं पहुंचने दे रही हैं. आंग सान सू ची का चेहरा बेनकाब हो गया है. 

शरणार्थियों को देखने की समस्या पर सांप्रदायिक रंग भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में चढ़ा दिया जाता है. हिंसा के खिलाफ बोलने के बजाए यही हिंसा चुपके-चुपके सांप्रदायिक सोच को खुराक पहुंचाने के काम आती है. जैसे आप देखेंगे कि भीतर-भीतर पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं के प्रति हिंसा पर ज़हर फैलाया जाएगा. मगर इसे लेकर कोई मंत्री या प्रधानमंत्री के स्तर से बयान नहीं आएगा. हम चाहें तो इसे ऐसे ही देखते रह सकते हैं लेकिन थोड़ा बदलाव कर देखेंगे कि हर सरकार के नीचे हर समुदाय मारा जा रहा है.

पाकिस्तान में शियाओं पर जो हमले हुए हैं वे भी कम भयानक नहीं हैं. बड़ी संख्या में शिया डाक्टरों को मार दिया गया है. दुनिया के कई देशों में शरणार्थियों को शरण देने के मामले में बहस चल रही है. फ्रांस, अमेरीका और जर्मनी तक. जर्मनी ने तो लाखों की संख्या में शरणार्थियों को शरण दी है. भारत में 40,000 रोहिंग्या मुसलमान रह रहे हैं. गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू के बयान पर विवाद हो रहा है कि ये सब अवैध हैं और इन्हें बाहर निकाला जाना चाहिए. जबकि दिशा-निर्देश यह कहते हैं कि जो भी धार्मिक प्रताड़ना का शिकार होकर आएगा उसे शरणार्थ का दर्जा दिया जाएगा.


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