नई दिल्ली: यह पहली बार नहीं है जब कोई नेता या मुख्यमंत्री पत्रकारिता से परेशान रहा हो और उसे सबक सिखाना चाहता रहा हो। कभी जगन्नाथ मिश्र ने यह कोशिश की, कभी राजीव गांधी ने यह कोशिश की, और तो और लालू यादव ने भी एक दौर में पीली पत्रकारिता की शिकायत की थी। अब अरविंद केजरीवाल यह शिकायत कर रहे हैं।
यह इतिहास और पुराना है। अंग्रेजों ने उसे जेल में डाला। उस पर जुर्माना लगाया, उसकी प्रतियां जब्त कीं। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई। तब पत्रकारिता सहम गई, वह घुटनों के बल चलने नहीं, रेंगने लगी। लेकिन इंदिरा गांधी अपनी सत्ता नहीं बचा सकीं। दरअसल सच की सिफत कुछ ऐसी होती है, और सच कहने की दीवानगी कुछ इतनी होती है कि उसे दबाने की सारी कोशिशें बेमानी हो जाती हैं, तख़्तो-ताज लुढ़क जाते हैं।
जो लोग मीडिया को धमकाते हैं, वे भूल जाते हैं कि भारत में पत्रकारिता जेलखानों में ही पली-बढ़ी। बेशक, वह उजली परंपरा अब नहीं बची है। पत्रकारिता अब सौदा भी है, समझौता भी है, ब्लैकमेलिंग भी है। लेकिन दिलचस्प ये है कि नेताओं को ये सौदा बुरा नहीं लगता, समझौते नहीं सालते, ब्लैकमेलिंग तक भी नहीं खलती।
पत्रकारिता उन्हें तब खलती है जब वह सच बोलती है। जब वह राजनीति के प्रलोभनों में नहीं आती, जब वह नकली आंदोलनों का झंडा नहीं उठाती, जब वह ख़ुद को क्रांतिकारी बताने वाले केजरीवालों के झांसे में आने से इनकार करती है। ऐसे में कोई उन्हें जेल में डालने की बात करता है और कोई अपना अखबार या चैनल निकालने की सोचता है। मगर फिर वह भूल जाता है कि इस देश में नेताओं ने भी अखबार और चैनल चलाए, पूंजीशाहों ने भी सब प्रयोग किए। लेकिन हर पेशे की अपनी एक मर्यादा होती है।
पत्रकारिता भी अंतत: सच का ही कारोबार है। जब वह झूठ की ओर मुड़ती है तो पकड़ी जाती है, जब वह खेल करती है तब उसका मज़ाक बनाया जाता है, लेकिन जब वह सच बोलने निकल पड़ती है तो लोग उसको सलाम करते हैं। यह वह आईना है जो हमें हमारा चेहरा दिखाता है। केजरीवाल यह आईना तोड़ना चाहते हैं, भूल जाते हैं कि इस कोशिश में उनका चेहरा भी चूर-चूर होगा।