बायोपिक फिल्मों का न बनना ही बेहतर...

अभी तक हमारी फिल्मी दुनिया मुख्यतः कहानीकार थी, लेकिन पिछले लगभग पांच सालों में इसने अब अपने लिए कई नई भूमिकाएं भी स्वीकार कर ली हैं, जिनमें से एक है जीवनीकार की भूमिका.

बायोपिक फिल्मों का न बनना ही बेहतर...

बायोपिक फिल्म 'सुपर 30'

नई दिल्ली:

अभी तक हमारी फिल्मी दुनिया मुख्यतः कहानीकार थी, लेकिन पिछले लगभग पांच सालों में इसने अब अपने लिए कई नई भूमिकाएं भी स्वीकार कर ली हैं, जिनमें से एक है जीवनीकार की भूमिका. फिल्म 'सुपर-30' इसकी नई रचना है. आइए, इसी फिल्म के बहाने कुछ ज़रूरी बातें कर ली जाएं.

समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया का मानना था कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के 300 सालों तक उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जानी चाहिए. इसके बाद यदि लगे कि बनाई जानी चाहिए, तो बनाई जाए. हमारी फिल्मी दुनिया ने इस सलाह को अपना अच्छा-खासा ठेंगा दिखा दिया है. 300 साल बाद तो बहुत दूर की बात है, जिन्दगी के 30 वर्ष पूरे करने पर भी वह 'वर्चुअल स्टेच्यू' बनाने को तैयार है. शर्त केवल इतनी है कि इस जीवनी में कमाई कराने की क्षमता भर होनी चाहिए. इस प्रकार किसी भी समाज और राष्ट्र में किसी जीवनी का जो वजन, जो स्थान और जो सम्मान होना चाहिए, इसने उसे नष्ट कर दिया है. यदि विशाल प्रतिमाओं की उपेक्षा करके छोटी-छोटी मूर्तियों के गान होंगे, तो ये छोटी मूर्तियां स्वयं ही संदेह के घेरे में आ जाएंगी.

फीचर फिल्म सत्य को दिखाने वाली नहीं, बल्कि सत्य का मात्र थोड़ा-सा एहसास कराने वाली विधा है. मुश्किल यह है कि चाहे वह किसी की जीवनी हो अथवा इतिहास का कोई टुकड़ा, उसमें से यदि सत्य को खारिज कर उसकी प्रतिपूर्ति के लिए अतिशयोक्ति को डाल दिया जाए, तो फिर क्या वह जीवनी या इतिहास रह जाएगा...? इस मिलावट और कलात्मक घोटाले का सबसे अच्छा उदाहरण फिल्म 'मुगल-ए-आज़म' है, जिसका अकबर इतिहास का अकबर है ही नहीं. बल्कि वह इतिहास के बिल्कुल विपरीत है. लेकिन यह फिल्म की मांग होती है कि वह अपने मूल चरित्र को 'लार्जर दैन लाइफ' दिखाए, और ऐसा करने के लिए वह घटनाओं के साथ मनमुताबिक खिलवाड़ करे. यह खिलवाड़ रचनात्मक हस्तक्षेप न होकर व्यावसायिक लाभ के लिए इतिहास का किया गया विकृत इस्तेमाल होता है. 'सुपर-30' में इस तथ्य का इतना अधिक प्रयोग किया गया है कि उन सारी असाधारणताओं ने फिल्म को एकदम साधारण बना दिया है.

दरअसल, ऐसा करना फिल्मों की, विशेषकर हिन्दी फिल्मों की अपनी मजबूती भी है. इन फिल्मों की सफलता के तीन मुख्य आधार होते हैं - ये या तो रुलाएं या हंसाएं या रोमांचित करें. जीवन के सत्य-प्रसंगों में यह ताकत नहीं होती, इसलिए उन्हें अतिशयोक्ति का सहारा लेना पड़ता है. और जैसे ही वे ऐसा करते हैं, उसमें से जीवन का सत्य गायब हो जाता है.

यहां मुझे प्रसिद्ध नाट्यकार एवं विचारक बर्टोल्ट ब्रेख्त के एक कथन की बेतहाशा याद आ रही है. उन्होंने नाट्य लेखकों एवं नाट्य निर्देशकों से (यहां हम इसमें फिल्म लेखकों एवं फिल्म निर्देशकों को भी शामिल कर लेते हैं) अपेक्षा की थी कि वे प्रदर्शन एवं दर्शकों के बीच एक चेतन फासला बना रहने देंगे, ताकि दर्शक नाटकों के कथ्य के बारे में अच्छी तरह विचार करने की स्थिति में रहे. ऐसा करके ही नाटक अपनी सकारात्मक सामाजिक भूमिका निभा सकेंगे.

हमारी अधिकांश फिल्में इसके ठीक विपरीत करती हैं, यहां तक कि जीवनी एवं ऐतिहासिक फिल्मों तक के साथ भी. वे दर्शकों को अपनी ग्रिप में लेकर विचार करने की उनकी क्षमता को कुंद कर देती हैं.

यहां चिंता की बात यह नहीं है कि वे ऐसा करती क्यों है, और उन्हें ऐसा करना चाहिए या नहीं. यहां अनुरोध केवल इस बात का है कि कृपया वे इसके लिए जीवनी एवं इतिहास से प्रसंग न लें. ऐसा करके वे कहीं न कहीं इस सामाजिक धरोहर को विकृत करने का अपराध कर रहे हैं. हां, यदि वे इसके सत्य के साथ, जहां तक यह ज्ञात है, न्याय कर सकते हैं, तो उनका स्वागत है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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