क्‍या भीमा कोरगांव केस में कंप्‍यूटर में फर्जी सबूत डालकर लोगों को फंसाया गया?

किसी पर फर्ज़ी धाराएं लगाकर महीनों जेल में बंद कर देना भारतीय पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था का अभिन्न अंग हो चुका है.जो लोग समझते हैं कि उनके साथ नहीं होगा दरअसल उन्हीं के साथ या उन्हीं जैसों के साथ होता है ताकि लोग इसके डर से ज़िंदा लाश बने घूमते रहें.

नमस्कार मैं रवीश कुमार, क्या भीमा कोरेगांव केस में कंप्यूटर में फर्ज़ी सबूत डालकर लोगों को फंसाया गया है? इस पर वाशिंगटन पोस्ट की खबर और नेशनल इंवेस्टिगेंटिंग एजेंसी के जवाब की बात करेंगे लेकिन उसके पहले संदर्भों को समझना ज़रूरी है. आप जानते हैं कि आपका फोन सिर्फ आपका नहीं है. अपने ही फोन के भीतर लोग पलायन कर रहे हैं, एक एप से दूसरे एप के बीच कि कोई उनकी बातचीत न पढ़े और न सुने. कभी व्हाट्स एप में रहते हैं तो कभी वहां से भागकर सिग्नल पर जाते हैं. इसी तरह बैंक के खाते में भी सेंधमारी पहले से आसान हुई है. हाल ही में बीजेपी के सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल की विकास निधि से किसी ने चेक का डुप्लीकेट बना कर 89 लाख रुपये निकाल लिए.आम लोगों के साथ ऐसा रोज़ होता है. आए दिन आप सुनते रहते हैं कि ईमेल हैक हो गया. बहुत आसानी से आपके ईमेल में कोई प्रवेश कर सकता है और उस ईमेल से कुछ भी आपके सिस्टम में प्लांट कर सकता है,ऐसा ही भीमा कोरेगांव केस में रोना विल्सन के मामले में होने का दावा किया गया है. जिस ईमेल में आप इतना भरोसा करते हैं वही ईमेल आपको आतंकवादी बना सकता है. वैसे इसके लिए ज़रूरी नहीं कि सबूत हो हीं. आपका सरकार की नीतियों का विरोधी होना भी काफी हो सकता है.  

अवैध रूप से NSA लगाने के कारण यूपी के कफील 7 महीना 10 दिन जेल में रहे और असम के अखिल गोगोई पर भी 2009 के एक मामले में अवैध रुप से NSA लगा दिया गया. कफील के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट और अखिल के मामले में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि इन पर अवैध रुप से NSA लगा है. अखिल गोगोई 12 दिसंबर 2019 से जेल में है. नागरिकता कानून के विरोध में हुई हिंसा भड़काने के मामले में. आज सुप्रीम कोर्ट में अखिल को ज़मानत नहीं मिली. कोर्ट ने कहा कि अभी इस स्तर पर ज़मानत नहीं दे सकते हैं. क्या सरकार की  नीति का विरोध करने पर किसी के खिलाफ अवैध रुप से NSA लगाया जा सकता है? क्या अवैध रुप से NSA लगाने के लिए अधिकारी पर कुछ भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? आप एक दर्शक और नागरिक के रूप में यही चाहते हैं कि कोई किसी पर अवैध रुप से NSA लगा कर चलता बने और वो महीनों जेल में सड़ जाए.

किसी पर फर्ज़ी धाराएं लगाकर महीनों जेल में बंद कर देना भारतीय पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था का अभिन्न अंग हो चुका है.जो लोग समझते हैं कि उनके साथ नहीं होगा दरअसल उन्हीं के साथ या उन्हीं जैसों के साथ होता है ताकि लोग इसके डर से ज़िंदा लाश बने घूमते रहें. आजकल पुलिस की धाराएं लगाने के बाद मीडिया में प्रोपेगैंडा का खेल होता है. अदालत के फैसले से पहले फैसला सुना दिया जाता है. पिछले तीन साल में 5992 लोगों पर UAPA लगा है. अनलॉ फुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट. आतंकवादी गतिविधियों में शामिल या जुड़े रहने की धारा है. हम नहीं जानते कि इनमें से कितने ऐसे हैं जो सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलते रहे हैं. सरकार को बताना चाहिए.10 फरवरी को राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने बताया है कि 2016-19 के बीच UAPA के तहत जितने भी मामले में दर्ज हुए हैं उनमें मात्र 2.2 प्रतिशत में सज़ा हुई है. 2016 से 2019 के बीच UAPA के तहत 5,922 लोग गिरफ्तार हुए हैं और इनमें से 132 को ही सज़ा मिली है. सिर्फ 2 प्रतिशत को सज़ा हुई है.
 
इस जवाब से यह साफ नहीं होता है कि कितने मामलों में लोग बरी हुए हैं? पर सोचिए तीन साल में केवल 2 फीसदी केस में सज़ा हुई है. दिल्ली में दंगा भड़काने के आरोप में गुलफिशां फातिमा, नताशा नरवाल, देवांगना कालिता, मीरन हैदर, सफूरा ज़रगर, आसिफ़ इक़बाल तन्हा, खालिद सैफी पर UAPA की धाराएं लगाई गईं हैं. नताशा नरवाल और देवांगना कालिता महीनों से जेल में बंद हैं. उमर खालिद भी 100 से अधिक दिनों से बंद है. क्या कुछ ख़ास लोगों को निशाना बनाने या लंबे समय तक जेल में रखने के लिए UAPA का इस्तमाल हो रहा है? इसी तरह TADA का भी इस्तमाल हुआ था जब बेगुनाह लोगों को आतंकवाद के आरोप में वर्षों जेल में ठूंस दिया गया. उसी TADA ख़त्म हो चुका है तो उसकी जगह UAPA आ गया है. 

हमने पहले भी देखा है कि आतंकवाद के नाम पर फर्ज़ी केस बनाए गए और किसी किसी को दस से लेकर बीस साल तक जेल में बंद कर दिया गया. पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो गई. सुप्रीम कोर्ट से ऐसे मामलों में कई लोग बरी भी हुए. अब गृह राज्य मंत्री कह रहे हैं कि 2016 से 2019 के बीच जितने मामलों में UAPA लगाए गए हैं उनमें से मात्र 2.2 प्रतिशत केस में सज़ा हुई है. कांग्रेस सांसद डॉ शशि थरूर, पत्रकार राजदीप सरदेसाई,सिद्धार्थ वरदराजन, पत्रकार मृणाल पांडे, जफर आगा, परेश नाथ, अनंत नाथ और विनोद के जोस के खिलाफ कई राज्यों में राजद्रोह की धारा से लेकर अनेक धाराएं लगा दी गई हैं. केस क्या है कि इन्होंने असत्यापित ख़बर चलाई है? क्या पुलिस के दावे से अलग दावों की खबर की रिपोर्टिंग करना राजद्रोह है? फिर तो नवरीत के दादा हरदीप सिंह पर भी राजद्रोह लगा देना चाहिए जिन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका लगाई है कि उनके पोते की मौत की जांच SIT करे. पुलिस कहती है कि नवरीत की मौत गोली लगने से नहीं हुई, नवरीत के दादा हरदीप सिंह डिबडिबा कहते हैं कि गोली लगी है. दिल्ली हाई कोर्ट ने इस पर पुलिस से स्टेटस रिपोर्ट मांगी है. 26 फरवरी को सुनवाई है. 

राजद्रोह के मामलों का भी हाल देख लीजिए. गृह राज्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया है कि 2019 में राजद्रोह के 96 मामले दर्ज हुए. इसमें से सिर्फ 2 को सज़ा हुई और 29 बरी हो गए. केवल 40 मामलों में पुलिस उस साल चार्जशीट दायर कर पाई थी. इसी तरह बंगलुरु की अमुल्या लियोना को ज़मानत मिलने में चार महीने लग गए. अमूल्या पर भी राजद्रोह का आरोप लगाया गया था. 90 दिन के भीतर बंगलुरू पुलिस चार्जशीट तक दायर नहीं कर पाई. यह है हमारी जांच एजेंसियों का ट्रैक रिकार्ड. ऐसे ही मामलों में विचाराधीन कैदियों की रिहाई की मांग होती है. 

लोकसभा में मंगलवार को प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवी की सफाई में एक नई अवधारणा ले आए. पवित्र और अपवित्र की. किसी आंदोलन को पवित्र और अपवित्र में बांटना भाषा और संविधान के लिहाज़ से ठीक नहीं है. डॉ अंबेडकर के विचार से देखें तो किसी जनसमूह को पवित्र या अपवित्र कहना संवैधानिक रुप से तो गलत होगा ही मानवीय रुप से भी ग़लत होगा.पवित्रता और अपवित्रता का मतलब इस बात से जा लगता है कि कौन छूने के योग्य है और कौन नहीं छूने के योग्य है. जाति की सोच हमारी भाषा में ही पनाह पाती है. किसान आंदोलन में शामिल लोग भारत के नागरिक हैं.पवित्र और अपवित्र नहीं हैं. प्रधानमंत्री आंदोलन के एक हिस्से को अपवित्र बताने के लिए उसी आंदोलन के दूसरे हिस्से को पवित्र बता रहे हैं क्योंकि उन्‍हें आंदोलनजीवी पर सफाई देनी थी. राज्यसभा में किसी भी आंदोलन में चले जाने वालों को आंदोलनजीवी कहा तो आलोचना हुई. लोकसभा में उसकी सफाई में आंदोलनजीवी का मतलब हिंसा करने वालों से जोड़ दिया लेकिन उन्हें अपवित्र बता कर संविधान की मूल भावना का अनादर कर दिया जो किसी भी  नागरिक से धर्म जाति या किसी भी आधार पर छुआछूत की इजाज़त नहीं देता है. भेदभाव की अनुमति नहीं देता है. फिर भी अगर प्रधानमंत्री को एक हिस्सा पवित्र लगता है तो उसका भी विश्लेषण किया जा सकता है. अगर किसानों का एक हिस्सा पवित्र है तो फिर उनकी मांगे अपवित्र नहीं हो सकती हैं. उनकी मांगे नाजायज़ नहीं हो सकती हैं. सरकार को मान लेनी चाहिए. शब्दों का इस्तमाल खासकर संसद में किए जाने वाले शब्दों का गहरा महत्व होता है. प्रधानमंत्री को बताने की ज़रूरत नहीं कि विचाराधीन कैदी और सज़ायाफ्ता कैदी में क्या फर्क होता है. अगर जेल में डाल देने से कोई दंगाबाज़ हो जाता है तो किसी पर अवैध NSA लगाने वाला अधिकारी या प्रशासन या सरकार को क्या कहा जाए, वो क्या हो जाता है? शायद प्रधानमंत्री अगले भाषण में बता सकें .

किसान आंदोलन में अलग अलग धाराओं में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई की मांग हुई थी. किसान नेताओं ने कहा था कि जिस किसी को भी गलत तरीके से फंसाकर जेल भेजा गया है हम उनकी रिहाई की मांग करते हैं. क्या यह मांग अपवित्र हो सकता है? किसी को गलत तरीके से फंसाया गया हो उसकी रिहाई की मांग तो पवित्र कार्य है. प्रधानमंत्री के शब्दों के अनुसार. पंजाब से आई महिला किसानों ने इनकी तस्वीरों को पोस्टर बना हाथों में उठा लिया था. वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, शरज़ील इमाम, उमर खालिद, गौतम नवलखा, सुरेन्द्र गाडलिंग,  ख़ालिद सैफ़ी. स्टैन स्वामी, गौतन गिलानी, नताशा नरवाल, देवंगाना कालिता,. नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल को किसानों ने मंच पर भी बुलाया गया था. इसमें से एक साईं बाबा को छोड़ सभी विचाराधीन कैदी हैं. कइयों के मामले में ट्रायल तक शुरू नहीं हुआ है. विचाराधीन कैदी को प्रधानमंत्री ने दंगाबाज़ कह दिया. नताशा नरवाल, देवांगना कालिता गुलफिशां जैसी लड़कियों पर दंगों की साज़िश के आरोप हैं. उमर खालिद पर आरोप है. अभी फैसला नहीं आया है. 

पिछले साल की खबरों की करते हैं. उत्तर प्रदेश से. 25 जुलाई 2019 को The Hindu में छपी रिपोर्ट के हिसाब से यूपी सरकार ने आर्डर जारी किया था कि 2013 के मुज़फ़्फर नगर दंगों के मामले में 22 केस वापस लिए जाएं. हमारे सहयोगी कमाल खान ने बताया कि सरकार ने पिछले साल मुकदमे वापस लेने के लिए मुज़फ़्फरनगर प्रशासन को कई पत्र लिखे है लेकिन अभी तक कोई भी मुकदमा वापस नही हुआ है. 24 दिसंबर 2020 को इंडियन एक्सप्रेस में खबर है कि योगी सरकार ने कोर्ट में याचिका दायर की है कि मुज़फ़्फरनगर दंगों में जिन बीजेपी के नेताओं पर आरोप लगे हैं उनसे मुकदमा वापस लिया जाए. यह बात मुज़फ़्फरनगर के सरकारी वकील राजीव शर्मा ने इंडियन एक्सप्रेस को बताई थी.

प्रधानमंत्री बताएं कि क्या यह सही है? जिन नेताओं से मुकदमे वापस लिए जा रहे हैं क्या उन्हें या उनकी पार्टी की सरकार को कोर्ट के फैसले पर यकीन नहीं है? एक तरफ दंगों के आरोपियों से मुकदमा वापस लिया जा रहा है दूसरी तरफ दंगों के आरोपियों की रिहाई की मांग को अपिवत्र बताया जा रहा है.उन्हें दंगाबाज़ कहा जा रहा है. अब हम आते हैं भीमाकोरेगांव केस पर. (वाशिंगटन पोस्ट स्क्रोल, एनडीटीवी और किस पर छपा है. HT, Jansatta, India today, Live mint,The tribune) वाशिंगटन पोस्ट की निहा मसीह  और जोएना स्लेटर की यह रिपोर्ट भीमा कोरेगांव में हुई उन गिरफ्तारियों पर गंभीर सवाल खड़े करती है, जिसमें 70-80 साल के बीमार लोगों को हिंसा और प्रधानमंत्री की हत्या के आरोप में दो साल से अधिक समय से जेल में बंद रखा गया है. स्टैन स्वामी, वरवरा राव, सुरेंद्र गडलिंग, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबडे, शोमा सेन, महेश राउत, अरुण फेरेरा, सुधीर ढावले, रोना विल्सन, वर्नन गोंसलवेज, हैनी बाबू, को ज़मानत नहीं मिली है. इस केस के बारे में सबूत कैसे जुटाए गए हैं, मामला कैसे बना है इस पर निहा मसीह की रिपोर्ट हैरान करने वाली है. हालांकि गिरफ्तारी के वक्त आनंद तेलतुंबडे और अन्य ने भी ऐसे ही आरोप लगाए थे  एनडीटीवी के श्रीनिवासन जैन ने इस पर truth vs Hype में चर्चा भी की है. नेहा मसीह की रिपोर्ट ट्रिब्यून, हिन्दुस्तान टाइम्स से लेकर लाइव मिंट में भी छपी है.

यह रिपोर्ट बताती है कि भीमा कोरेगांव और प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश के आरोप में गिरफ्तार रोना विल्सन के लैपटॉप में दो साल से कोई सॉफ्टवेयर के ज़रिए निगरानी कर रहा था और उसी ने दस्तावेज़ प्लांट कर दिए. किसी के भी इनबाक्स में ईमेल भेजते रहा जाए और जैसे ही आप क्लिक करते हैं, ईमेल भेजने वाला आपकी सारी जानकारियों को हथिया लेता है. आपको पता ही नहीं चलेगा. रोना विल्सन के केस में यही होने का दावा किया गया है. उन पर शुरुआती आरोप लैपटॉप से मिले पत्रों के आधार पर ही लगाए थे. ऐसे ही एक पत्र में रोना की तरफ से लिखने का दावा किया गया कि वे माओवादी संगठन से प्रधानमंत्री की हत्या के लिए बंदूक और अस्लाह मांग रहे हैं. आर्सेनल ने अपनी जांच में पाया है कि इस पत्र के अलावा नौ अन्य पत्र विल्सन के कंप्यूटर के एक फोल्डर में चुपके से डाल दिए गए. कोई तीसरा रोना की तरफ से संवाद करने लगा. रोना विल्सन को 13 जून 2016 को दोपहर तीन बजे से लेकर 6 बजकर 18 मिनट के बीच को वरवरा राव के ईमेल से कई ईमेल आते हैं. बार-बार ईमेल में एक खास डाक्यूमेंट के लिंक को खोलने का आग्रह किया जाता है. अंत में रोना विल्सन एक डाक्यूमेंट का लिंक चटका देते हैं. रोना को पता ही नहीं चला कि उनके लैपटाप पर वायरस का हमला हो चुका है. एक अज्ञात हमलावर जासूस बनकर लैपटाप में घुस गया और 22 महीनों तक उनकी निगरानी करता रहा. रोना विल्सन को ख़बर तक नहीं लगी और वे 6 जून 2018 को प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश जैसे संगीन आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए. आर्सेनल ने कहा है कि उसने ऐसे कई केस देखे हैं लेकिन यह अब तक सबसे गंभीर मामला है. इन सबूतों की जांच में 300 घंटे से अधिक लग गए. आर्सेनल ने यह नहीं बताया कि रोना विल्सन के लैपटाप में किस व्यक्ति या संस्था ने दस्तावेज़ प्लांट किए लेकिन यह ज़रूर बताया है कि रोना विल्सन के लैपटाप में घुसपैठ करने वाले ने विल्सन के साथ इस केस में बंद अन्य आरोपियों के साथ भी ऐसा किया है. अमरीकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट की निहा मसीह ने लिखा है कि आर्सेनल की रिपोर्ट की तीन अलग अलग एक्सपर्ट से जांच कराने के बाद ही प्रकाशित की गई है. 

ऐसा हुआ है या नहीं इसे लेकर दो तरह के दावे हो सकते हैं लेकिन ऐसा किया जा सकता है इसे लेकर दूसरा दावा नहीं किया जा सकता है. किया जा सकता है. आपके फोन या लैपटाप में किसी लिंक के ज़रिए जासूसी करने वाले साफ्टवेयर को स्थापित किया जा सकता है, उसके बाद बहुत आसानी से फर्ज़ी चिट्ठी या दस्तावेज़ डाल कर बताया जा सकता है कि आतंक की साज़िश हो रही थी. रोना विल्सन के वकील सुदीप पसबोला का कहना है कि आर्सेनल की रिपोर्ट बताती है कि उनके मुवक्किल बेगुनाह हैं. आर्सेनल नाम की संस्था डिजिटल फोरेंसिक के क्षेत्र में काम करती है. रोना विल्सन के वकील ने आर्सेनल को फोरेंसिक जांच के लिए संपर्क किया था कि पुणे पुलिस ने रोना से जो इलेक्ट्रानिक सबूत ज़ब्त किए हैं उनका विश्लेषण करें. आर्सेनल बीस साल से दुनिया की कई सरकारों, कंपनियों को डिजिटल फोरेंसिंक मामलों में मदद करती आई है. इस संस्था के बनाए साफ्टवेयर का इस्तमाल दुनिया भर में सेना और सुरक्षा एजेंसिया करती हैं. 

रोना विल्सन से मिलता जुलता केस टर्की में भी हुआ था जिसका पता आर्सेनल के एक्सपर्ट ने लगाया था. 2011 के साल में टर्की में तख्ता पलट करने के प्रयास के मामले में कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया था. उन पर आतंकवादी साज़िश रचने के आरप लगे थे. टर्की के खोजी पत्रकार बेरिस पेहलिवान को जेल हो गई. आर्सेनल ने जांच में पाया कि उनके कंप्यूटर में किसी ने चुपके से ऐसी फाइल डाल दी जिसमें आतंकवादी साज़िश की योजनाओं का ब्यौरा था. आर्सेनल की जांच के बाद ही इस पत्रकार को रिहाई मिली. भीमा कोरेगाव केस में 16 लोग दो साल से अधिक समय से बंद हैं. इस मामले में गिरफ्तार एक और आरोपी प्रो आनंद तेलतुंबडे ने भी अपने कंप्यूटर में छेड़छाड़ का आरोप लगाया था. 

नेशनल इंवेस्टिगेटिंग एजेंसी ने वाशिंगटन पोस्ट की खबर पर लंबी प्रतिक्रिया दी है. भारतीय न्याय व्यवस्था का गुणगान से लेकर इस बात का उल्लेख है कि इन आरोपियों को किसी अदालत से ज़मानत नहीं मिली है. NIA ने कहा है कि रोना विल्सन के घर जो भी इलेक्ट्रानिक सामान ज़ब्त हुए हैं उनकी पूरी सूची रखी गई और उन्हें सख़्त निगरानी में रखा गया. पुणे की फोरेंसिक लैब से जांच करवाई गई. उनकी रिपोर्ट में यह बात सामने नहीं आई है कि रोना के लैपटाप में दो साल पहले से कोई निगरानी कर रहा था. दस्तावेज़ प्लांट कर रहा था. इन सबूतों के अलावा अन्य साक्ष्य भी अदालत के सामने पेश किए गए हैं. आर्सेनल की रिपोर्ट को मुंबई की स्पेशल जज की अदालत में इसलिए लगाया गया है ताकि जांच को बदनाम किया जा सके. NIA का दावा अपनी जगह है लेकिन आर्सेनल की जांच को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. हमारे सहयोगी सुनील सिंह ने भीमा कोरेगांव केस और प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश के मामले में आरोपियों की तरफ से केस लड़ रहे वकील मिहिर देसाई से बात की है. भीमा कोरेगांव केस मामले में 22 आरोपी हैं. 6 अभी भी फरार हैं और 16 जेल में बंद हैं. वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट ने जिन तथ्यों को उजागर किया है उससे पता चल रहा है कि क्या होने वाला है. प्रधानमंत्री का लोकसभा में महज़ आरोपों के आधार पर बंद लोगों को आतंकवादी कह देना, दंगाबाज़ कह देना बता रहा है कि क्या होने वाला है. 

पंजाब के मालवा का जगराऊं में आज पंजाब की पहली किसान महापंचायत हुई जिसका आह्वान संयुक्त किसान मोर्चा ने किया था. इस महापंचायत में महिलाओं की भी अच्छी तादाद मौजूद रही. जगराऊं ग्रामीण इलाका माना जाता है. जगराऊं का संबंध अमर शहीद लाला लाजपत राय से भी है. लाजपत राय का जन्म जगरांव के गांव ढूडीके में हुआ था और उनकी पढाई जगरांव और मोगा में हुई थी. लाला लाजपत राय जी ने अंग्रेजों के ख़िलाफ जगरांव से ही कई संघर्ष शुरु किए थे. जगरांव, मालवा की राजनीति का केंद्र भी है. इस समय यहां से आम आदमी पार्टी के विधायक हैं. लेकिन यह महापंचायत किसानों की बुलाई हुई है. साल 2014 था मगर यही फरवरी का महीना था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अकाली दल के साथ पंजाब में चुनावी अभियान की शुरूआत की थी. अपने भाषण में जगरांव को शहीद लाला लाजपत राय की धरती कहा था. आज अकाली और बीजेपी अलग हो चुके हैं. आज यहां उनके खिलाफ नारे लग रहे थे और कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग हो रही थी. हमारे सहयोगी अर्शदीप ने बताया कि  संयुक्त किसान मोर्चा पंजाब में अन्य जगहों पर भी महापंचायतें करने जा रहा है. इस महापंचायत से संयुक्त किसान मोर्चा यह भी संकेत देने का प्रयास करेगा कि पंजाब के सभी किसान संगठन एकजुट हैं. किसानों की महापंचायतों का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए. उनके भीतर क्या बदल रहा है. कई किसान मानते हैं कि गोदी मीडिया के असर में आकर वे घोर सांप्रदायिक हो गए थे. अब समझ आ रहा है. उन्हें गलती का अहसास हो रहा है. धर्म के आधार पर बंटते ही उनकी किसानी की पहचान भी चली गई थी. अलग अलग दलो में बंटे किसान क्या इन महापंचायतों के ज़रिए एक हो पाएंगे, राजनीति में किसान हो पाएंगे?हरियाणा के पुनिया खाप ने ऐलान किया है कि पुनिया गोत्र के लोग 20 अलग अलग जातियों में बंटे हैं लेकिन वे सभी मिलकर किसान आंदोलन का समर्थन करेंगे. जिस भी राज्य में रहते हों वो किसान आंदोलन का समर्थन करेंगे और आंदोलन में हिस्सा लेंगे. पुनिया खाप की तरफ से कहा गया है कि टिकरी बोर्डर पर अलग टेंट लगेगा और पहले से अधिक लोग शामिल होने जाएंगे. खाप के नेता भलेराम ने कहा कि किसी भी राजनेता को आंदोलन के मंच पर जगह नहीं दी जाएगी. 

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दो देशों भारत और कनाडा के प्रमुखों के बीच होने वाली बातचीत को समझने के लिए दोनों देशों के बयान को देखना चाहिए. कनाडा से किसान आंदोलन को लेकर समर्थन में कई आवाज़ें आईं. सांसदों ने बोला और प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने बोला और वहां के कई शहरों में रैलियां हुई हैं. बुधवार को प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो से बातचीत हुई. प्रधानमंत्री ने जब इसकी जानकारी देते हुए ट्वीट किया तो उसमें हाल के प्रदर्शनों को लेकर हुई बातचीत का ज़िक्र नहीं था. कनाडा के प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से जो बयान जारी हुआ उसमे लिखा था कि अन्य बातों के साथ-साथ ‘दोनों नेताओं ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों, हाल के प्रदर्शनों और मसलों को बातचीत के ज़रिए सुलझाने के महत्व पर भी बातचीत की. 'ट्रूडो किसानों के प्रदर्शन पर पहले भी बयान दे चुके हैं जिसके बाद विदेश मंत्रालय ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए इसे दोनों देशों के संबंधों पर विपरीत असर डालने वाला बताया था.