इन विधानसभा चुनावों में बिहार को क्या दे सकती है BJP?

इन चुनावों में नित्यानंद राय या इसके पहले के चुनाव में गिरिराज सिंह के बयान इसकी ओर इशारा करते हैं. कभी मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की ललकार और कभी आरजेडी की जीत पर कश्मीरी आतंकियों के पनाह लेने की चेतावनी बताती है कि बीजेपी जिस सामाजिक ध्रुवीकरण को अपना मुख्य राजनैतिक मूल्य बना चुकी है, उसे वह बिहार पर भी लागू करेगी.

इन विधानसभा चुनावों में बिहार को क्या दे सकती है BJP?

बिहार में बीजेपी की सामाजिक ध्रुवीकरण की राजनीति दिखाई देने लगी है. (प्रतीकात्मक तस्वीर)

बिहार को भारतीय जनता पार्टी (BJP) क्या दे सकती है? इस सवाल का कुछ जवाब इस बात से खोजा जा सकता है कि उसने दूसरे राज्यों को क्या दिया है. राज्यों में बीजेपी की पहली सरकारें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में बनी थीं. 1991 में कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. सुप्रीम कोर्ट में शपथ देकर उन्होंने जिस बाबरी मस्जिद की रक्षा का वचन दिया था, वह उनके रहते उनके ही लोगों ने तोड़ डाली. 18 साल बाद यूपी में फिर से बीजेपी की सरकार है और अयोध्या में एक भव्य मंदिर की तैयारी हो रही है. इन 18 सालों में यूपी का सामाजिक माहौल- बाकी देश की तरह ही तार-तार हो चुका है. सौहार्द की कोई भी बात संदेह से भरी लगने लगी है. यूपी का विकास अटका पड़ा है.

बीजेपी शासित जिस राज्य में विकास की चर्चा सबसे ज़्यादा होती है, वह गुजरात है. गुजरात में 1995 में पहली बार बीजेपी सरकार बनी थी. जनता दल के छबीलदास मेहता को हराकर केशुभाई पटेल मुख्यमंत्री बने थे. तब बीजेपी ने कहा था कि गुजरात उनके शासन की प्रयोगशाला बनेगा. लेकिन अगले कई साल तक वहां बीजेपी में अंदरूनी कलह चलता रहा. पहले केशुभाई पटेल को हटाकर सुरेश भाई मेहता मुख्यमंत्री बने और फिर बीजेपी से बागी हुए शंकर सिंह वाघेला ने अलग पार्टी बनाकर कमान संभाली. लेकिन उन्हें भी जाना पड़ा और कुल छह साल में वहां चार बार मुख्यमंत्री बदल गए. 

2001 में गुजरात में आए भूकंप के बाद नरेंद्र मोदी वहां मुख्यमंत्री बनाए गए. उसके बाद गुजरात वाकई बदल गया. 2002 के दंगों ने बताया कि गुजरात को बीजेपी जैसी प्रयोगशाला बनाना चाहती है, वह बन चुकी है. इन दंगों से विक्षुब्ध बताए गए तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म की याद दिलाई थी. कहते यहां तक हैं कि वे उनका इस्तीफ़ा चाहते थे, लेकिन उन आडवाणी ने मोदी का जमकर बचाव किया, जिन्हें बाद में मोदी जी ने मार्गदर्शक मंडल में भेजकर अनैच्छिक रिटायरमेंट दे दिया.

बहरहाल, इन दंगों की कहानी इसके बाद गुजरात के विकास के शोर में डूब गई. लेकिन ध्यान से देखें तो गुजरात का विकास तत्कालीन सरकार के आर्थिक प्रबंधन का नतीजा नहीं था, बल्कि 1991 के बाद खोली गई राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के तहत बंदरगाहों वाले राज्यों को मिलने वाले लाभ की तार्किक परिणति था. गुजरात के विकास की प्रक्रिया 2001 से नहीं, उसके 10 साल पहले 1991 से ही शुरू हो गई थी. बल्कि उस दौर में गुजरात अकेले नहीं, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और कई दूसरे राज्यों की विकास दर तेज़ रही. लेकिन चर्चा गुजरात मॉडल की ही रही तो इसके पीछे निश्चय ही बहुत सारा योगदान उस राजनैतिक स्थिरता और व्यवस्था को जाता है जो नरेंद्र मोदी सरकार ने 2002 के दंगों के बाद अर्जित और विकसित की.

बिहार और बीजेपी पर लौटें. बीजेपी के विकास का एक पैटर्न दिखाई देता है. बीजेपी पहले सहयोगी बनाती है, राज्यों में छोटा भाई बनने का वादा करती है और उसके बाद छोटे भाई को किनारे कर देती है. यूपी हो या गुजरात- वहां बीजेपी की सेंध कुछ इस वजह से भी संभव हुई कि जनता पार्टी और जनता दल के साथ साझेदारी की विरासत ने उसे पांव जमाने का भी मौका दिया और आंदोलन चलाने का भी. महाराष्ट्र में वह शिवसेना के छोटे भाई के तौर पर शुरू हुई, बड़े भाई में बदल गई. कर्नाटक में उसने जेडीएस से तालमेल कर कुमारस्वामी की सरकार बनाने में मदद की और उसके बाद वहां की सत्ता पर काबिज़ हुई. पंजाब में अकाली दल के साथ उसकी साझेदारी काफ़ी लंबी और पुरानी है जो बिल्कुल हाल में टूटी है. अब जिसे एनडीए कहते हैं, उस चिड़िया की जान बीजेपी के पिंजड़े में है.

अब बीजेपी की नज़र बिहार पर है. जो लालू यादव 20 साल शासन करने का दावा करते हुए सत्ता में आए थे. उन्हें कुछ उनकी अपनी करनी से और कुछ नीतीश का साथ लेकर बीजेपी ने 15 साल में निबटा दिया. कोशिश नीतीश को भी निबटाने की हुई, लेकिन नीतीश ने तब लालू यादव की बांह थाम ली. नीतीश दरअसल एक बहुत सधे हुए नेता की तरह आरजेडी से बीजेपी तक आवाजाही करते रहे हैं और बिहार की जनता को जैसे आश्वस्त भी करते रहे हैं कि विचारधारा का यह त्याग उन्होंने बस बिहार के हित में किया है.

लेकिन गठजोड़ की राजनीति में अब बीजेपी को असली मौक़ा मिला है. संयोग हो या सियासत, चिराग पासवान ने एनडीए से बाहर रहने का फैसला कर बीजेपी के हाथ में दुधारी तलवार पकड़ा दी है. अगर चुनावों के बाद किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं आया तो चिराग की भूमिका अहम होगी. ऐसे अवसर का सबसे ज़्यादा इंतज़ार बीजेपी को होगा जो तब नीतीश पर अपनी निर्भरता ख़त्म करने के लिए किसी सफलता की उम्मीद मे अचानक हासिल हुआ यह चिराग घिस सकती है.

उस सवाल पर लौटें, जहां से यह टिप्पणी शुरू हुई. बीजेपी बिहार को क्या देगी? इन चुनावों में नित्यानंद राय या इसके पहले के चुनाव में गिरिराज सिंह के बयान इसकी ओर इशारा करते हैं. कभी मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की ललकार और कभी आरजेडी की जीत पर कश्मीरी आतंकियों के पनाह लेने की चेतावनी बताती है कि बीजेपी जिस सामाजिक ध्रुवीकरण को अपना मुख्य राजनैतिक मूल्य बना चुकी है, उसे वह बिहार पर भी लागू करेगी.

जहां तक विकास का सवाल है, गुजरात से लेकर बिहार तक के लगातार गरीब होते लोगों से पूछिए तो वे बताएंगे कि इस समूचे विकास का लाभ एक छोटे से इंडिया को हुआ है- बड़ा हिंदुस्तान तो अब भी लॉकडाउन में बेरोज़गार कर दिया जाता है, घरों से निकाल दिया जाता है और सड़कों पर असंभव दूरियां तय करने की कोशिश में मारा जाता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि आर्थिक संपन्नता जितनी बड़ी चीज़ है, सामाजिक समरसता उससे कम ज़रूरी थाती नहीं है. इस सामाजिक समरसता को खो देंगे तो एक देश और समाज के रूप में हम कम ख़ुशहाल होंगे, यह बताने के लिए अब किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)

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