महागठबंधन में भाकपा माले- कितने अवसर, कितनी चुनौती?

दुनिया भर में दक्षिणपंथ के डरावने उभार के इस दौर में- और भारतीय राजनीति की अपनी चारित्रिक विशिष्टताओं के संदर्भ में- माले जैसी पार्टी की चुनौतियां और बढ़ जाती हैं

महागठबंधन में भाकपा माले- कितने अवसर, कितनी चुनौती?

2015 के विधानसभा चुनावों में भाकपा माले ने लगभग अकेले दम पर तीन सीटें जीती थीं- बलरामपुर, दरौली और तरारी. बेशक, तरारी वाली सीट वह बहुत कम अंतर से जीत पाई थी- शायद मुश्किल से सवा दो सौ या ढाई सौ वोटों से. लेकिन भोजपुर क्षेत्र में उसकी वापसी का मज़बूती भरा इशारा भी थी. सुदामा प्रसाद को पूरे दो दशक बाद यह कामयाबी मिली थी. बेशक, तब वाम मोर्चे के नाम पर जुटे बहुत सारे दलों का गठबंधन उसके साथ था, लेकिन उन चुनावों में भाकपा-माकपा- किसी का खाता नहीं खुल पाया था. जाहिर है, माले की जीत उसकी अपनी थी.

इस बार माले महागठबंधन में शामिल है. उसे उन्नीस सीटें मिली हैं, जबकि भाकपा-माकपा को मिलाकर उसकी  क़रीब आधी सीटें.  इससे यह तो स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति में माले आज की तारीख़ में वाम विचारधारा की प्रतिनिधि पार्टी है. लेकिन इस बात से खुश होने की जगह उसे समझना होगा कि उसके सामने कितनी बड़ी चुनौती है.

पहली चुनौती तो अपने बहुत सारे पुराने लोगों को यह समझाने की है कि वह महागठबंधन में क्यों शामिल हो रही है. पार्टी की बहुत सारी दुखती हुई यादें जनता दल या आरजेडी की सरकारों के दौर की हैं. एक दौर में उसके कार्यकर्ताओं ने बहुत दमन झेला है. फिर सीवान में शहाबुद्दीन के गुर्गों के हाथों मारे गए अपने हरदिलअज़ीज़ छात्र नेता चंद्रशेखर का ज़ख़्म अब भी माले से जज़्बाती या सांगठनिक ढंग से जुड़े लोगों को सालता-टीसता है. इसके पहले भी जब महागठबंधन के साथ माले के गठजोड़ की बात हुई थी, तब भी यह तर्क सामने आया था.

इसके अलावा संसदीय राजनीति में भाकपा माले की जो सबसे बड़ी कामयाबी थी, उसमें भी लालू यादव ने सेंधमारी कर ली थी. पार्टी के सात चुने हुए विधायकों में लालू यादव ने कई को तोड़ लिया था. बरसों तक माले कार्यकर्ताओं ने ख़ून-पसीना बहा कर जो राजनीतिक ज़मीन सींची थी, उसे एक ही झटके में लालू यादव ने साफ़ कर दिया था.

इन सारे ज़ख़्मों की याद के साथ अगर भाकपा माले लालू यादव के साथ जुड़ रही है तो इसके पीछे लंबे सोच-विचार की प्रक्रिया रही होगी. जो सबसे बड़ी हिचक होगी, वह लालू यादव और उनकी पार्टी की छवि और उसकी वैचारिक अराजकताओं को लेकर रही होगी. क्योंकि सामाजिक न्याय की नुमाइंदगी का दावा करने के बावजूद आरजेडी मझोली जातियों के दबंग नेताओं की पार्टी के रूप में ही उभर कर आई है जो एक हद तक बिहार में बीजेपी को रोकने का दमखम रखती है. मुस्लिम यादव का जो माई समीकरण लालू यादव ने बनाया था, वह बहुत टूट-फूट के बावजूद उनका मददगार रहा है और उनकी सांगठनिक ताकत की पहचान भी. इसके अलावा भ्रष्टाचार और वंशवाद को लेकर आरजेडी की एक छवि है जो उसके समर्थकों को कुछ मायूस कर सकती है.

इसके बावजूद माले ने गठबंधन के साथ खड़े होने का फ़ैसला किया तो कम से कम दो तर्क ऐसे रहे होंगे जो उसके फ़ैसले का आधार बने होंगे. पहली तो यह सैद्धांतिक दलील कि अभी बीजेपी को रोकना ज़रूरी है. लोकतंत्र की पोशाक में जो फासीवादी एजेंडा वह चला रही है, उसके लिए किसी से भी हाथ मिलाया जा सकता है. लोहिया ने कांग्रेस के संदर्भ में शैतान से हाथ मिलाने की जो बात कही थी, वह मौजूदा संदर्भ में बीजेपी पर लागू होती है. तो बीजेपी विरोधी वोटों को बंटने से रोकने की कोशिश के लिहाज से महागठबंधन के साथ जुड़ने का फै़सला सही है. इस फ़ैसले का एक दूसरा पहलू भी है. भाकपा माले महागठबंधन से जुड़ कर विधानसभा में अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है. महागठबंधन की मदद से अगर उसे 10-12 सीटें मिल जाएं तो किसी को बहुत अचरज नहीं करना चाहिए. 2015 में बिहार में 1.5 फीसदी वोट उसे मिले थे जब वह अकेले लड़ी थी.

लेकिन ऐसी कोई सफलता मिल जाए तो उसके भी ख़तरे हैं. धीरे-धीरे निर्विकल्प होती दिख रही संसदीय राजनीति में साम्यवाद के एजेंडे की जगह कैसे बनाई जाए, उसे अपराधतंत्र और पूंजीतंत्र से लड़ने के उपकरण के तौर पर कैसे विकसित किया जाए- यह सवाल हमारे समय में बहुत ज़रूरी होते हुए भी पीछे छूटता चला गया है. दुनिया भर में दक्षिणपंथ के डरावने उभार के इस दौर में- और भारतीय राजनीति की अपनी चारित्रिक विशिष्टताओं के संदर्भ में- माले जैसी पार्टी की चुनौतियां और बढ़ जाती हैं. यह बात इसलिए ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण है कि माले का जन्म संसदीय राजनीति को लेकर पार्टी के भीतर लंबी चली बहस और बहुत सारे हिंसक हमलों का सामना करते हुए हुआ है. तब भी सवाल यही था कि क्या माले संसदीय राजनीति के भीतर अपना वाम एजेंडा बचाए रख सकेगी? यह सच है कि इन बीस वर्षों में सर्वहारा की क्रांति का सपना पीछे छूटा है और संसदीय लोकतंत्र को एक तरह की वैश्विक सर्वानुमति हासिल हुई है- वामपंथ के भीतर भी अब नई सच्चाइयों से आंख और हाथ मिलाने की ज़रूरत महसूस की जा रही है. इस लिहाज से अब गठबंधन के भीतर माले के लिए जितने अवसर बढ़े हैं, उतनी ही चुनौती भी बढ़ी है. वह दूसरी पार्टियों जैसी न हो जाए, इसके लिए एक सांगठनिक और वैचारिक दिशा-निर्देश और प्रशिक्षण की भी ज़रूरत है. इस बार पार्टी पालीगंज से आइसा नेता और जेएनयू के पूर्व महासचिव संदीप सौरभ और दीघा से ऐपवा की राज्य सचिव शशि यादव को उतारा है. जाहिर है, ये युवा चेहरे उम्मीद जगाते हैं. 

पार्टी की रैलियों में हमेशा की तरह भारी भीड़ उमड़ रही है जिसे हमेशा की तरह मीडिया नज़रअंदाज़ कर रहा है. इससे भी पता चलता है कि देश के गरीब और कमज़ोर लोगों के बीच माले का जनाधार बचा हुआ है. बक्सर में रैली करते हुए बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को माले के ख़तरे की बात करनी पड़ती है, इससे भी पता चलता है कि उसकी संभावनाओं को लेकर राजनीतिक दलों में एक तरह की बेचैनी ज़रूर है. दरअसल यहीं से माले का अपना रास्ता बन सकता है, बशर्ते वह गठबंधन की राह पर चलने में इतनी न खो जाए कि बिल्कुल उसी का हिस्सा हो जाए. गठबंधन में रहते हुए भी उसे अपनी अलग पहचान बनाए रखनी होगी.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)

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(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.)