मुजफ्फरपुर बालिका गृहकांड: क्‍या ब्रजेश ठाकुर ने मीडिया जगत को किया शर्मशार

बिहार के मुजफ्फरपुर में बालिका गृह में 34 नाबालिग लड़कियों से बलात्‍कार का मामला स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़ा कांड है. इस मामले के आरोपी ब्रजेश ठाकुर की गिरफ्तार के बाद सबसे सवाल पूछे जा रहे हैं.

मुजफ्फरपुर बालिका गृहकांड: क्‍या ब्रजेश ठाकुर ने मीडिया जगत को किया शर्मशार

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

बिहार के मुजफ्फरपुर में बालिका गृह में 34 नाबालिग लड़कियों से बलात्‍कार का मामला स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे बड़ा कांड है. इस मामले के आरोपी ब्रजेश ठाकुर की गिरफ्तार के बाद सबसे सवाल पूछे जा रहे हैं. सबसे ज़्यादा सवाल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से उनके मौन रहने के कारण पूछे जा रहे हैं लेकिन सबसे अहम सवाल कोई नहीं पूछ रहा है. वो ये है कि इस पूरे प्रकरण में पत्रकार और मीडिया का रोल क्‍या है. ब्रजेश ठाकुर ने जो कुछ भी किया उससे बाद हर कोई पूछ रहा है कि क्‍या मीडिया के लोग इस जघन्य कांड के लिए बच्चियों या उनके परिवारवालों या देश के लोगों से माफ़ी मांगेंगी. क्‍योंकि इस कांड का आरोपी ब्रजेश ठाकुर एक अख़बार का मालिक और संपादक है.

ब्रजेश के फर्जीवाड़े और जघन्य काम में किसी अन्‍य संस्थान के मीडियाकर्मी का नाम सामने नहीं आया, लेकिन ये भी सच है कि उनके साथ एनजीओ में काम करने वाले अधिकांश लोग उनके अख़बार के नाम पर परिचय-पत्र लेकर घूमते थे और धौंस जमाने की उनकी आदत में शुमार था, ब्रजेश ठाकुर अगर सता के गलियारे में अपनी पहुंच बनाए हुए थे तो केवल अपने अख़बार के नाम पर. शायद मुज़फ़्फ़रपुर का बालिका गृह देश का एकमात्र ऐसा केंद्र था जहां नीचे अख़बार और ऊपर बच्चों के साथ हर तरह के गलत काम किए जाते थे. यहां अख़बार का इस्तेमाल गलत को उजागर करने के लिए नहीं बल्कि एक के बाद एक कई गलतियों पर पर्दा डालने के लिए किया जाता था. इसलिए मीडिया की भूमिका इस प्रकरण में एक रक्षक को नहीं बल्कि एक भक्षक की थी. 

ब्रजेश ठाकुर रक्षक से भक्षक कैसे बना इसके लिए आप को मुज़फ़्फ़रपुर जाना होगा. जहां प्रातः कमल की शुरुआत से आज तक के सफ़र को देखना होगा. ये बात सही है कि जब तक उस शहर से हिंदी अख़बारों के संस्‍करण शुरू नहीं हुए तब तक उस अख़बार का एकाधिकार था, लेकिन उस ज़माने में युवा लोगों के ट्रेनिंग का ये एक केंद्र भी था. इस अख़बार के संस्थापक और ब्रजेश के पिता को एक बात का चस्का लग चुका था.  वो चस्‍का था अख़बारों को मिलने वाले न्यूज़प्रिंट के कोटे बेचने का, जिसके कारण 90 के दशक में सीबीआई जांच में उनकी गिरफ़्तारी भी हुई, जेल भी गए लेकिन उस समय तक ब्रजेश की दिलचस्पी पत्रकारिता से ज़्यादा राजनीति में थी और वो आनंद मोहन सिंह के काफ़ी क़रीबी माने जाते थे. वैशाली से जिस उप चुनाव में आनंद मोहन सिंह की पत्नी लव्ली आनंद ने लालू यादव के उम्मीदवार किशोरी सिन्हा को हराया था उस चुनाव में ब्रजेश काफ़ी सक्रिय रहे. वर्ष  1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में ब्रजेश ने जिस कुरहनी विधानसभा से नामांकन भरा वहां से उस समय बिहार पीयुप्‍लस पार्टी से अशोक सम्राट लड़े, लेकिन फिर वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव में उन्हें उसी विधानसभा से टिकट मिला लेकिन वो एनडीए का उम्मीदवार होने के बावजूद हारे. इसके बाद ब्रजेश ने एनजीओ के धंधे में प्रवेश किया. शुरुआती दिनों में उन्होंने स्वास्थ्य विभाग के कार्यों में दिलचस्पी दिखायी और पैर जमाया. इसमें उनकी मदद मुज़फ़्फ़रपुर में पदस्थापित कई अधिकारियों ने जमकर की. 

ब्रजेश को असल मदद अब जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के संसद रामनाथ ठाकुर ने बिहार के सूचना मंत्री रहने के दौरान दी. वो ठाकुर की आवयकता को पूरा करते और विभाग उनके ऊपर मेहरबान रहता. इस बीच ब्रजेश ने सूचना विभाग को अपने कब्‍जे में कर रखा था. बिहार एक ऐसा राज्य है जहां आपके प्रकाशन की जांच नहीं होती. कोई भी कुछ करके लाखों का विज्ञापन हर साल ले लेता है, लेकिन ब्रजेश ने एक सावधानी हमेशा रखी कि वो हर तरह की कमिटी के सदस्य ज़रूर रहा. इसके चलते उनकी जान पहचान का दायरा बढ़ता रहा. लेकिन 2014 के बाद उन्होंने शेल्‍टर होम चलाने में अपनी दिलचस्पी दिखायी और पटना से दिल्ली तक संबंधित विभाग में सही लोगों की ज़रूरत पूरी करते हुए वो बढ़ते चले गये. ब्रजेश के पास इंसान की दो निहायत पुरानी कमजोरी पैसा और सेक्स की ज़रूरत पूरी करने की तैयारी हमेशा रहती थी. 2010 में जब रामनाथ ठाकुर विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे तब उनका पोस्टर छपवाने से लेकर गाडियों का इंतज़ाम ब्रजेश किया करते थे. अपने इलाक़े के किसी अगड़ी जाति के लोगों से काफ़ी घनिष्टता रखते और दूसरे नेताओं को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं रखते. 

ये सब कुछ पत्रकार होने के आड़ में हो रहा था. अब तक ब्रजेश को ये अतिआत्मविश्वास हो गया था कि उनका कोई बाल बांका नहीं कर सकता. इतना ही नहीं अंग्रेज़ी अख़बार का संपादक उन्होंने कभी बेटी तो कभी बेटे को बनाया. वहीं उर्दू अख़बार अपने राज़दार मधु को बनाया, लेकिन शायद उनके पाप का घड़ा भर चुका था और सारे नियम क़ानून को ताक पर रखकर उन्होंने जैसे बच्चियों को यातना दी, वो मानवता के नाम पर कलंक हैं. इस मामले के प्रकाश में आने के बाद फ़िलहाल उन्हें कोई राहत नहीं मिलने वाली है. उन्होंने केवल अपना ही नाम नहीं पत्रकारिता जगत का नाम भी अपने कारनामों से मिट्टी में मिला दिया, लेकिन सवाल ये है कि हर विषय पर दूसरे लोगों से सवाल और कटघरे में है. खरा करने वाले पत्रकार क्या अपने आप से सवाल करेंगे कि उन्होंने ब्रजेश जैसे लोगों को फलने फूलने क्यों दिया और क्या हम लोग ख़ुद आत्मचिंतन करके क्या इतनी हिम्मत जुटा पाएंगे कि भविष्य में एक नहीं तीन अख़बार के दफ़्तर के ऊपर कोई हमारे देश के बच्चियों के साथ ऐसा घिनौना काम ना कर पाए. 

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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