आसान नहीं है कलेक्टरी करना

ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर वारेन हेस्टिंग ने जब ‘कलेक्टर’ जैसे अहम पद को जन्म दिया था, तब उन्हें दो सबसे जिम्मेदारी और चुनौतीपूर्ण काम सौंपे थे. इनमें एक था भूमि का संग्रहण, दूसरा था, अपने क्षेत्र में शांति बनाये रखना.

आसान नहीं है कलेक्टरी करना

फाइल फोटो

देश के प्रधानमंत्री का सीधे कलेक्टरों से बात करना, और वह भी 9 अगस्त को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 75वीं वर्षगाँठ जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण अवसर पर, इन दोनों के गहरे प्रतीकात्मक अर्थ हैं. पहला अर्थ है - कार्यपालिका के राष्ट्र प्रमुख का प्रशासन की सबसे महत्वपूर्ण इकाईयों के प्रमुखों से सीधा संवाद स्थापित करके उनके महत्व का प्रतिपादन करना. दूसरा राष्ट्र के विकास में उनकी सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिका का याद दिलाना. या यूं कह लीजिये, यह बताना कि ‘‘आप ही वह हो, जो संकल्प को सिद्धि में बदल सकते हो.’’

यह सच भी है. लगभग 245 साल पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर वारेन हेस्टिंग ने जब ‘कलेक्टर’ जैसे अहम पद को जन्म दिया था, तब उन्हें दो सबसे जिम्मेदारी और चुनौतीपूर्ण काम सौंपे थे. इनमें एक था भूमि का संग्रहण, जिसके कारण उन्हें संग्रह करने वाला यानी कि कलेक्टर कहा गया. दूसरा था, अपने क्षेत्र में शांति बनाये रखना, जिसे हम आज ‘कानून और व्यवस्था को बनाये रखना’ कहते हैं. तब से लेकर आज तक कलेक्टर का यह पद और उसका रुतबा बदस्तूर जारी है, जिस पर केवल आईएएस अधिकारी ही नियुक्ति पा सकते हैं.  जिला प्रशासन का सर्वेसर्वा होने के कारण गरिमा एवं चुनौतियों से युक्त होने के साथ-साथ इसे ‘‘प्राइज्ड पोस्टिंग’’ के रूप में लिया जाता है. अफसर के दिमाग में इसकी खुमारी जीवन की अंतिम सांस तक बनी रहती है. रिटायर्ड कलेक्टर जब भी अपने अतीत की बातें करते हैं, उनका पहला वाक्य होता है, ‘‘व्हेन आई वाज़ ए कलेक्टर इन ‘दैट’ डिस्टिक्ट.’’ खैर ........

संघ के प्रचारक तथा गुजरात के बारह साल तक मुख्यमंत्री के रूप में उनके पास कलेक्टर की शक्तियों, दायित्वों तथा भूमिकाओं के साथ-साथ उनकी सीमाओं, कार्यप्रणालियों तथा क्षमताओं का भी ‘फर्स्ट हैंड इन्फार्मेशन’ होगा ही.  इसलिए ऐसे कार्यपालिका प्रमुख से यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि वे कलेक्टरों से जो उम्मीदें रख रहे हैं, और उन्हें जो कुछ करने को कह रहे हैं, वे देखें कि क्या वे उन उम्मीदों को पूरा करने की स्थिति में हैं? यदि स्थितियां अनुकूल नहीं हैं, तो उन्हें स्थितियों को ठीक करके वे सारे उपकरण उपलब्ध कराये जाने चाहिए, जो इसके लिए जरूरी हैं. अन्यथा ऐसे संवाद एक औपचारिकता मात्र बनकर रह जाते हैं. इस दृष्टि से कुछ बातों पर गौर किये जाने की जरूरत है. 

प्रधानमंत्री ने कलेक्टरों से कहा कि वे दौरों पर गाँव में जायें, खासकर पिछड़े हुए गाँवों में.  अंग्रेजों ने इन दौरों को उस समय इतना अधिक महत्व दिया था कि इंडियन सिविल सर्वेन्ट की ट्रेनिंग में घुड़सवारी के प्रशिक्षण को अनिवार्य बनाया गया था. महर्षि अरविन्द लिखित परीक्षा में सफल होने के बावजूद, आईसीएस इसलिए नहीं बन सके थे, क्योंकि वे घुड़सवारी की परीक्षा पास नहीं कर सके थे.
निःसंदेह रूप से ऐसे दौरों का नीति निर्माण और इनके लागू होने में बहुत बड़ा रोल होता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे कलेक्टर्स के पास सरकार ने इसके लिए जरूरी वक्त छोड़ रखा है? उस पर इतने अधिक काम लाद दिये गये हैं, और उसे इतनी सारी संस्थाओं एवं विभागों का प्रमुख बना दिया गया है कि तीन साल की कलक्टरी के बाद भी उसे इनका पता तक नहीं हो पाता. ऊपर से संकट यह कि जिले के दौरे पर जब भी कोई प्रमुख नेता आयेंगे, जो आते ही रहते हैं, तो कलेक्टर की अनुपस्थिति को अपनी अवहेलना समझकर बवाल खड़ा कर देते हैं.

कोई भी कलेक्टर किसी भी जिले में कितने दिनों तक कलेक्टर रहेगा, इसे भगवान भी नहीं जानता.  ऐसे में यदि प्रधानमंत्री उनसे पांच साल का दृष्टिकोण प्रपत्र तैयार करके उसे पूरा कर दिखाने की बात कहते हैं, तो बात व्यावहारिक नहीं जान पड़ती. निःसंदेह रूप से विकास का काम; जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा भी, एक रिले रेस की तरह है, जिसमें मशाल आगे वाले को सौंपा जाता है. लेकिन कार्यकाल की जबर्दस्त अस्थिरता उनके उत्साह को नष्ट नहीं, तो मंद तो कर ही देती है. अनेक कोशिशों के बावजूद अभी तक राज्य सरकारें कलेक्टर एवं एसपी जैसे महत्वपूर्ण पदों के न्यूनतम स्थायी कार्यकाल निर्धारित नहीं कर सकी हैं. जहां तक कलेक्टर्स पर पड़ने वाले राजनीतिक दबावों का प्रश्न है, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह अनिवार्य एवं स्वभावगत उत्पत्ति है. कलेक्टर को प्रशासन की यह कला आनी ही चाहिए कि वह कैसे इन दबावों के बीच रहकर अपने कामों को अंजाम दे सकता है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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