खेलों के ज़रिये जुड़ते दो 'दुश्मन' देश

सन् 1991 में एक ओर जहां सोवियत संघ नामक एक राष्ट्र कई राष्ट्रों में विखंडित हो रहा था, वहीं दूसरी ओर विखंडित होकर बने दो राष्ट्र पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी एक हो रहे थे. कुछ इसी तरह का दृश्य फिलहाल दक्षिण कोरिया में अभी चल रहे शीतकालीन ओलिम्पिक खेलों में देखने को मिल रहा है, जहां पिछले लगभग आठ दशक से दुश्मन बने उत्तरी एवं दक्षिण कोरिया के खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों एक ही सफेद-नीले ध्वज के तले मार्च किया, और अपने-अपने हाथों में एक ही ध्वज थामे खेलों का आनंद भी ले रहे हैं.

खेलों के ज़रिये जुड़ते दो 'दुश्मन' देश

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नई दिल्ली:

इतिहास का एक गंभीर विद्यार्थी होने के नाते अब मेरा इस तथ्य पर पूरा यकीन हो गया है कि समय की गति का स्वरूप सचमुच वृत्ताकार होता है, भले ही उसकी रेखाएं कुछ-कुछ तिरछी क्यों न हों. इसे ही सामान्य भाषा में कहा जाता है कि 'इतिहास स्वयं को दोहराता है...' हम अधिक लंबे दौर में न जाकर इतिहास के इस विलक्षण स्वरूप को पिछले तीन दशकों में ही चिह्नित कर सकते हैं. सन् 1991 में एक ओर जहां सोवियत संघ नामक एक राष्ट्र कई राष्ट्रों में विखंडित हो रहा था, वहीं दूसरी ओर विखंडित होकर बने दो राष्ट्र पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी एक हो रहे थे. कुछ इसी तरह का दृश्य फिलहाल दक्षिण कोरिया में अभी चल रहे शीतकालीन ओलिम्पिक खेलों में देखने को मिल रहा है, जहां पिछले लगभग आठ दशक से दुश्मन बने उत्तरी एवं दक्षिण कोरिया के खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों एक ही सफेद-नीले ध्वज के तले मार्च किया, और अपने-अपने हाथों में एक ही ध्वज थामे खेलों का आनंद भी ले रहे हैं.
 
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वहीं दूसरी ओर सोवियत संघ के बिखरने के पैटर्न पर कहीं 'ब्रेक्ज़िट' हो रहा है, तो कहीं स्पेन में 'केटोलोनिया'. लेकिन इन दोनों में से पहली वाली घटना बहुत चौंकाने वाली है, लेकिन स्वागतयोग्य भी. विशेषकर पिछले छह महीनों से उत्तरी कोरिया के युवा तानाशाह किम जोंग उन ने दुनिया के दिल में जिस तरह से महाविनाशक तृतीय युद्ध का खौफ पैदा कर रखा है, उसे देखते हुए यह घटना थोड़ी सुकून देने वाली मालूम पड़ रही है.

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सन् 1950 से तीन वर्षों के निरंतर युद्ध के बाद, जिसने वहां के बीस लाख लोगों की बलि ले ली, सन् 1953 में दो भागों में बंटकर इन दो राष्ट्रों का निर्माण हुआ था. कोरिया के औद्योगीकृत उत्तरी भाग पर रूस का प्रभाव रहा, तो कृषिप्रधान दक्षिणी भाग पर अमेरिका का. 'शीतयुद्ध' के दौरान इन दोनों देशों के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती गई. हालांकि दक्षिण कोरिया निरंतर संबंध सुधारने की कोशिश करता रहा, किन्तु उत्तरी कोरिया की ओर से कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिले. यहां तक कि सन् 1988 में जब दक्षिण कोरिया ने अपनी राजधानी सियोल में ओलिम्पिक खेल आयोजित किए थे, तब भी उत्तरी कोरिया ने अपना अड़ियल रुख जारी रखा था. यहां यह बात भी गौर करने की है कि 1953 में युद्ध की समाप्ति के बाद दोनों देशों ने शांति संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. इसके परिणामस्वरूप आज भी इन दोनों राष्ट्रों की विभाजन रेखा 38' उत्तरी अक्षांश के दोनों ओर कुल आठ करोड़ की आबादी वाले इन देशों की कुल लगभग 15 लाख सेना मौजूद है.
 
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उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया के बीच फिलहाल मेल-मिलाप की जो संभावनाएं बन रही हैं, उसके लक्षण पिछले वर्ष सितंबर में उस समय दिखाई दिए थे, जब दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि 'शांति असंभव नहीं है...' विश्व के राजनेता उस समय चौंक गए थे, जब नए वर्ष के संदेश के रूप में तानाशाह किम जोंग उन ने दक्षिण कोरिया से कहा था कि वह इस क्षेत्र के सैन्य तनाव को कम करना चाहते हैं. साथ ही यह भी कि वह दक्षिण कोरिया के साथ संबंधों को सुधारना चाहते हैं.

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इन्हीं दो घटनाओं की सकारात्मक प्रतिक्रिया हमें फिलहाल इस शीतकालीन ओलिम्पिक में दिखाई दे रही है. लेकिन किम का तानाशाही, स्वकेंद्रित एवं जिद्द का जो रवैया है, उसकी पृष्ठभूमि में इससे बहुत अधिक उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. जहां तक ओलिम्पिक में दोनों देशों के खिलाड़ियों के एक साथ आने का सवाल है, इससे पहले वर्ष 2000, 2004 और 2006 के ओलिम्पिक के शुभारंभ समारोहों में भी दोनों देशों के खिलाड़ी संयुक्त मार्च में शामिल हो चुके हैं. फिर भी जहां तक सैन्य तनाव के कम होने का सवाल है, इस प्रक्रिया में यह खेल अवश्य अपनी रचनाकार भूमिका निभा सकते हैं. इसका कारण यह है कि यह खेल दक्षिण कोरिया में ही हो रहे हैं. दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून एक उदार राजनेता हैं. साथ ही किम जोंग पर बहुत अधिक वैश्विक दबाव भी है. शायद यह शीतकालीन खेल विश्व शांति एवं प्रेम का सूत्रपात करने वाले सिद्ध हों. इससे निश्चित रूप से दुनिया राहत की सांस लेगी.
 
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
 
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