आहत भावनाओं के दौर में अभिव्‍यक्ति की आजादी पर मंडराता संकट

आहत भावनाओं के दौर में अभिव्‍यक्ति की आजादी पर मंडराता संकट

पुरुषोत्‍तम अग्रवाल की पुस्तक 'नाकोहस' राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित की है.

समकालीन सामाजिक, राजनीतिक दबावों के दुष्‍चक्र में फंसी मनुष्‍य की चेतना और उसके संघर्ष, पीड़ा को पुरुषोत्‍तम अग्रवाल के पहले उपन्‍यास 'नाकोहस' में उकेरने का प्रयास किया गया है. बाहरी सामाजिक दबावों की विभीषिका जहां मनुष्‍य की आत्‍मा और विवेक पर प्रहार कर उसके मान-मर्दन पर आमादा है, वहीं समकालीन राजनीतिक चक्रों, कुच्रकों और दुष्‍चक्रों ने विरोध या असहमति के स्‍वर को हाशिए पर डालने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है.

नतीजतन आहत भावनाओं की हिंसक राजनीति ने समाज को एकवचन की बनाने की मुहिम के साथ उसके खिलाफ उठ रही आवाजों को क्रूरता से दमन का तरीका अख्तियार किया है. अभिव्‍यक्ति के बढ़ते खतरों के बीच आवाजों पर ताले डालने की मुहिम और सच्‍चाई को बयान करने की हिम्‍मत तोड़ने की साजिशें रची जा रही हों तो ऐसे हिंसक दौर में नैतिकता और न्‍याय की बातें बेमानी सी लगती हैं. 'नाकोहस' इस हिंसक दौर की भयावह तस्‍वीर की नुमाइंदगी करता है.     
इस क्रूरता को रेखांकित भी किया गया है..."आहत भूमिकाओं के युग में विवेक की बातें करने के कारण मिले दंडों के स्‍मारक आज तक सुकेत, रघु और शम्‍स-तीनों की देह पर भी हैं, चेतना पर भी...कुछ दिखते हैं, कुछ देह में गाहे-बगाहे उठने वाली टीसों में, सर्दी के मौसम में चाल में आ जाने वाले दर्दीले टेढ़ेपन में बोलते हैं."  ये 1984, 1992, 2002 की घटनाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया से समाज में उपजे सवालों, तनावों के बीच मनुष्‍यता के लिए उठने वाली आवाजों को खामोश करने की प्रवृत्ति में दिखते हैं.

आहत भावनाओं का यह युग सुकेत और करुणा के संबंधों को भी अपनी तरह से प्रभावित करता है. इसकी परिणति पुरुष अहं, स्‍त्री-विमर्श, फेमिनिस्‍ट आंदोलन के नारों के बीच आधी आबादी के स्‍वर के रूप में मुखरित होती हैं. इन संदर्भों में उपन्‍यास के सभी चरित्र बौद्धिक, गुरू गंभीर चेतना से संपन्‍न हैं. वे उन्‍मादी शोर, अपार सूचनाओं के संजाल या जंजाल, सोशल मीडिया के अराजक दौर में अवचेतन रूप से नितांत अकेले हैं.

वे धारा के साथ नहीं हैं. उनके स्‍वरों में बौद्धिकता का पांडित्‍य नहीं है बल्कि एक किस्‍म की बेबसी, विकल बेचैनी है. एक तरह से वे अपने होने की एकांत लड़ाई लड़ रहे हैं. इसीलिए उपन्‍यास में कहा गया है, ''इंटेलेक्‍चुअल होना पाप है...टेक्‍नेचुअल सबका बाप है.''

बढ़ती घुटन और जीने के लिए रोशनी का एक कतरा पाने की तड़प उपन्‍यास के तीनों प्रमुख चरित्रों सुकेत, रघु और शम्‍स में दिखती है. सुकेत के शब्‍दों में इस पीड़ा को अभिव्‍यक्ति मिली है...''पीछे क्‍या छोड़ आया हूं? टूटे वादों, अधूरे इरादों और खंडित संकल्‍पों का ढेर...और बस कुछ भी नहीं...सिर्फ टूटे वादे, अधूरे इरादे, खंडित संकल्‍प...और पछतावा...निष्‍फल पछतावा...सपना देख रहा हूं? वहम का शिकार हूं? सचमुच मर गया हूं? बहुत जिज्ञासा रहती थी न मन में...''
इसी को दूसरी तरह से उपन्‍यास में अन्‍यत्र रूप से इस भाव के साथ पेश किया गया है, ''किस दुनिया के सपने देखे, किस दुनिया तक पहुंचे...''

उपन्‍यास में भीड़ में एकाकी मनुष्‍य की छटपटाहट के साथ, सामाजिक स्‍वरों के रूप में सूचना और मनोरंजन के विस्‍फोट को भी जगह दी गई है. इसको रेखांकित करते हुए उपन्‍यास में कहा गया है, ''होमो-इनफोमेटिक्‍स को करना यही है कि कंक्रीट के जंगल में निवास करे, सूचना के वन का विकास करे और मनोरंजन के उपवन में विहार करे...''

तकनीकी आतंक की एक बानगी इस रूप में देखी जा सकती है...''क्‍या फर्क पड़ता है? नेशन-प्रवचन, सुंदरी-दर्शन, पेनलिस्‍टों द्वारा एक-दूसरे का मान-मर्दन, भूत के मोबाइल नम्‍बर का प्रदर्शन...उथली बहसें, गहरी बकवास...आंखें थकाने और दिमाग चटवाने का काम इनमें से किसी से भी किया जा सकता है...उसे थकान की जरूरत थी...यह चैनल, वह चैनल...जल्‍दी-जल्‍दी छवियां बदलती रहें, आंखें थक जाएं, दिमाग थक जाए-बस, किसी तरह नींद आ जाए...रिमोट पर उंगलियां घुमाते रहो. देखते रहो एक के बाद एक इंस्‍टैंट छवियां. कहीं तुरंत भाग्‍योदय, कहीं तत्‍काल प्रेमोदय...कैलिडोस्‍कोप में पल-पल शक्‍ल बदलते रंगीन कांच के टुकड़े...''

समकालीन बदलते परिदृश्‍य में नई गढ़ी जा रही वास्‍तविकता की पड़ताल पर केंद्रित इस उपन्‍यास में ''नाकोहस'' (नेशनल कमीशन ऑफ हर्ट सेंटिमेंट्स) यानी आहत भावना आयोग  और ''बौनैसर'' (बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक) जैसे अनगिनत नए शब्‍दों को भी गढ़ा-रचा गया है. ये विचारोत्‍तेजक शब्‍द मौजूदा दौर की विसंगतियों को बयान करने के लिए परंपरागत भाषा भंडार से इतर नए सामयिक संदर्भ को अर्थ देते हैं. इनका प्रयोग खलता नहीं है बल्कि उपन्‍यास की गति में अनोखे शब्‍द जाल के जरिये ऊर्जा भरता है.  

(किताब का नाम : नाकोहस, लेखक : पुरुषोत्‍तम अग्रवाल, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, कीमत : 150 रुपये)

(अतुल चतुर्वेदी एनडीटीवी खबर में कार्यरत हैं)

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