भारत में बुलेट ट्रेन आ जाएगी मगर कॉलेज में टीचर नहीं, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

आजकल सबके पास एक ही रेडिमेड फार्मूला है, ठेके पर टीचर ले आएं, आधी सैलरी में काम कराओ.

भारत में बुलेट ट्रेन आ जाएगी मगर कॉलेज में टीचर नहीं, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

मध्य प्रदेश में अकुशल मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी है 274, वहां संस्कृत के व्याख्याता को 275 रुपये मिलता है यानी न्यूनतम मज़दूरी से एक रुपया अधिक. आपने बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्यालय का भी हाल देखा, इमारत शानदार है, इतिहास शानदार है मगर वर्तनाम शर्मसार है. समस्या यह है कि जिनका संस्कृत से कोई लेना-देना नहीं है, वो संस्कृत के नारे लगा रहे हैं. जिनका संस्कृत से संबंध है, उनके नारों को कोई सुनने वाला नहीं है. संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्रों को उम्मीद थी कि प्राइम टाइम में मुद्दा उठने के बाद कुछ असर होगा. प्रशासन को लगा था कि हम स्टोरी करके भूल गए हैं लेकिन जब अजय सिंह दोबारा गए तो उसके बाद कर्मचारी यूनियन के नेता को कुलपति ने कहा है कि फंड की व्यवस्था हो गई है, वेतन मिल जाएगा. मगर समस्या सिर्फ वेतन नहीं है. 

अध्यापक की कमी और पढ़ाई की मांग को इस वक्त पूरे भारत का यह अकेला आंदोलन है. 10 दिन बाद इन छात्रों ने अपना मुंडन करा लिया. व्यवस्था का श्राद्ध कर्म कर डाला. व्यवस्थाएं ऐसे श्राद्ध कर्म से नहीं घबराती हैं. उन्हें पता है कि कई दशकों से वे लाखों छात्रों का मुंडन कर चुकी हैं, छात्रों के मुंडन करने से कुछ नहीं होगा. प्रधानमंत्री का क्षेत्र होने के बाद भी इतनी जल्दी शिक्षक बहाल होने से रहे. आजकल सबके पास एक ही रेडिमेड फार्मूला है, ठेके पर टीचर ले आएं, आधी सैलरी में काम कराओ. छात्रों ने वीसी का पिंडदान करते समय मंत्रों के उच्चारण की पवित्रता का ख़ास ध्यान रखा गया. कर्मचारी यूनियन ने भी अपने आंदोलन को लीला में बदलते रहे. कभी बूट पालिश करते रहे तो कभी चाय बेचते रहे. चाय बेचना अब प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका है क्योंकि इसका संबंध प्रधानमंत्री के अतीत से है. 

कर्मचारियों को वेतन मिलने की ख़बर बाद में आई है, उससे पहले जब अजय सिंह संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से बात करने गए तो वे इस आत्मविश्वास से भरे दिखे. संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी के वीसी को भी लगता है कि धरना देने वाले बाहरी हैं. आजकल भारत का लोकतंत्र लगता है बाहरी चला रहे हैं. सिस्टम के भीतर बैठे लोगों को सवाल करने वाले हर भारतीय में एक बाहरी दिख रहा है. 

अजय सिंह के अलावा करुणा सिंधु पहुंचे बलिया के देवी प्रसाद संस्कृत महाविद्यालय. यह कालेज संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी से ही जुड़ा हुआ है. ज़मीन पर कुछ भी नहीं है, कॉलेज प्रथम तल पर ही चलता है. प्रथम तल पर एक ही कमरे का आफिस है. द्वितीय तल पर टीन शेड में कक्षाएं चल रही हैं. गर्मी में टीन शेड के नीचे धधकती अग्नि ज्वाला के बीच यहां के 150 छात्र संस्कृत पढ़कर विषम परिस्थितियों में जीने का जो कीर्तिमान बनाते हैं वो अकल्पनीय है. यहां की टूटी हुई कुर्सियां बता रही हैं कि कभी न कभी कोई अवतार पुरुष आएगा जो वोट मांगने से थक जाने पर इनका कल्याण करेगा. कोई न भी करे तो इन कुर्सियों को पता है कि संस्कृत की तरह वे भी कई सदियों तक टूटी हुई पड़ी रह सकती हैं. जिन 150 छात्रों को इस अग्नि कुंड में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे न होते तो आज संस्कृत शिक्षा का कोई नाम लेवा न होता. उनकी ग़रीबी इस विषय तक ले आई है. यहां एक ही अध्यापक हैं जो कार्यवाहक प्रिंसिपल भी हैं. ऑफ रिकॉर्ड पता चला कि कालेज की पुरानी बिल्डिंग हैं, मगर वहां प्राइवेट स्कूल चलता है. जो अध्यापक हैं उन्हें सही समय पर वेतन नहीं मिलता है. 

बलिया शहर को एक और संस्कृत कालेज प्राप्त होने का गौरव हासिल है. इसका नाम जुबली संस्कृत कॉलेज है. यहां दो छात्र पढ़ाई कर रहे हैं. इस कॉलेज की छत बग़ैर किसी पूर्व सूचना के कभी भी गिर सकती है. इतना काफी है कि गिरने से पहले आप दरारें देख सकते हैं. समाजशास्त्र के एक कमरे का पूरा प्लास्टर गिर चुका है. पढ़ाने के लिए 150 छात्रों पर दो अध्यापक हैं जो बिना 7-8 महीने से वेतन न मिलने पर भी अध्यापक होने की गरिमा छोड़ नहीं पा रहे हैं. 

आप सोचते होंगे कि एक के बाद एक कॉलेजों की हालत देखकर क्या लाभ होगा. इन्हें देखना इसलिए ज़रूरी है कि ताकि आपका भ्रम टूटे. आप लाख शहर बदल दें, कॉलेज बदल लें, पढ़ाई का ख़र्चा बढ़ा दें, हर जगह इसी संकट से आपका सामना होगा. खराब कॉलेजों के कारण भारत में हर दूसरा आदमी शहर बदल रहा है. बलिया वाला बनारस आ रहा है, बनारस वाला लखनऊ जा रहा है, लखनऊ वाला दिल्ली जा रहा है. घूम फिर कर बलिया आ जा रहा है.  

मिर्ज़ापुर से इंदरेश पांडे ने यह रिपोर्ट भेजी है. संयुक्त संस्कृत महाविद्यालय, यहां पर आठवीं से लेकर एमए तक की पढ़ाई के लिए सिर्फ एक अध्यापक है. 203 छात्रों को बर्बाद करने के लिए यह कालेज खुला हुआ है. इंदरेश को कालेज में बीए और एमए के एक भी छात्र नहीं मिले. वो आए भी क्यों, जब पता है कि भारत में बुलेट ट्रेन आ जाएगी मगर उनके कॉलेज में टीचर नहीं आएगा, तो जाने से क्या लाभ. 10वीं क्लास के बच्चे मोबाइल फोन के ज़रिए स्मार्ट इंडिया, डिज़िटल इंडिया से कनेक्ट होने का अभ्यास कर रहे हैं. कैमरे को देखते ही लगा कि जैसे गुरुजी को देख लिया, लिहाज़ा मोबाइल जेब में रख श्लोक रटने लगे. कॉलेज के प्रिंसिपल का कमरा बता रहा है कि इसका भविष्य गौरवशाली हो ही नहीं सकता. 

कई जगहों पर एक बात सुनाई दी. संस्कृत पढ़ने वाले ज़्यादातर छात्र ग़रीब हैं. आर्थिक कमज़ोरी के कारण कुछ और नहीं पढ़ सकते तो संस्कृत पढ़ने आ जाते हैं, जहां संस्कृत का कॉलेज उन्हें आजीवन ग़रीब बने रहने की शिक्षा देता है. यही कारण है कि संस्कृत में ज्ञान का निर्माण कम हो रहा है. कर्मकांड की ज़रूरतों के लिए इसकी व्यावहारिकता रह गई है. ग़रीबी न होती तो संस्कृत पढ़ने वाला कोई छात्र नहीं होता. मुझे नहीं पता था कि भारत की ग़रीबी संस्कृत का इतना ख़्याल रखती है. 

वैसे भारत सरकार ने संस्कृत का ख़्याल रखने के लिए 1970 से राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान बनाया है. जिसका मुख्यालय दिल्ली के जनकपुरी में चल रहा है. आप इस संस्थान की तस्वीरों को देखते चलिए, हम इसी बहाने इसका इतिहास और वर्तमान बताते हैं. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान भारत में संस्कृत शिक्षा का उच्च केंद है. 1956-57 में प्रथम संस्कृत आयोग बना था जिसके सुझाव पर राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की स्थापना हुई थी. भारत या भारत के बाहर राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान शीर्ष नोडल एजेंसी है. मई, 2002 में वाजपेयी सरकार ने इसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया. मुरली मनोहन जोशी तब मानव संसाधन मंत्री हुआ करते थे. इसके पहले तक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के जयपुर, पुरी और सिंगेरी में कैंपस हुआ करता था. सिंगेरी कैंपस का उदघाटन राजीव गांधी ने किया था. इसके ज़्यादातर कैंपस 1997 के पहले के बने हुए हैं. तस्वीरों में सभी कैंपस की हालत अच्छी दिखती है.

2012 में दिल्ली में विश्व संस्कृत सम्मेलन हुआ था. इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान को अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के स्तर का बनाने की बात कही थी. उस लक्ष्य का क्या हुआ, कोई नहीं जानता. उसी समय संस्कृत की समस्याओं और संभावनाओं पर विचार करने के लिए संस्कृत आयोग के गठन की बात हुई थी जिसे दो साल बाद 10 जनवरी, 2014 को पूरा कर दिया गया. 9 जनवरी, 2015 को दूसरे संस्कृत आयोग का कार्यकाल ख़त्म हो गया. इसके चेयरमैन संस्कृत भाषा में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर सत्यव्रत शास्त्री बनाए गए थे. 17 दिसंबर, 2015 को एन. गोपाल स्वामी के नेतृत्व में एक पैनल बना, जिसने 32 पेज की रिपोर्ट तीन महीने में सौंप दी गई. 

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान सीधा मानव संसाधन मंत्रालय से संचालित होता है. इसके तमाम कैंपस में. 40 से 50 फीसदी शिक्षक नहीं है. इनकी जगह करीब 200 शिक्षक ठेके पर पढ़ा रहे हैं. जिनमें से कई 15-15 साल से ठेके पर पढ़ा रहे हैं. वे ठेके पर पढ़ाने के लिए तो योग्य माने जाते हैं मगर परमानेंट करने के लिए नहीं. जब शिक्षक ही अपने भविष्य को लेकर असुरक्षित हैं तो वह संस्कृत की असुरक्षा कैसे दूर करेगा. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति से सुशील महापात्रा ने बात की. उनके लिए यह समस्या सामान्य बात है और इसे भगवान ही ठीक कर सकते हैं. 

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कैंपस जम्मू, इलाहाबाद, दिल्ली, मुंबई, भोपाल, हिमाचल प्रदेश, श्रृंगेरी, जयपुर, लखनऊ, गुरुवयूर, पुरी और अगरतल्ला में में हैं. ये संस्कृत का नया इदारा है मगर यह भी संस्कृत को आगे नहीं ले सका. 

जयपुर कैंपस 1983 से ही कायम है. कुल 900 छात्र हैं और करीब सौ छात्र पीएचडी कर रहे हैं. यहां पर योग और आयुर्वेद को मिलाकर एक नया डिप्लोमा कोर्स भी लांच किया गया है. यहां के प्रिंसिपल का कहना है कि इस संस्थान में शिक्षकों की कमी है मगर लगन की नहीं. उन्होंने बताया कि उनके कैंपस से राजस्थान पब्लिक सर्विस कमिशन की परीक्षा में इस साल बीस छात्रों ने पास किया है. संस्कृत से. मगर सबने कांट्रेक्ट पर यानी आधी तनख़्वाह पर पढ़ाने से समझौता कर लिया है. अगर ठेके पर रखे गए इन शिक्षकों के छात्र इतना अच्छा कर रहे हैं, फिर तो उन्हें परमानेंट किया ही जाना चाहिए. यहां 34 परमानेंट शिक्षक हैं और 37 कांट्रेक्ट पर. 

परेशानी आती है जहां विषमता का भाव पैदा होता है उसी का साथी उतनी ही योग्यता रखने वाला एक पे स्केल अच्छाखासा तनख्वाह पा रहा है. वेतन आयोगों का लाभ पा रहा है डीए का लाभ पा रहा है, दूसरी तरफ उतनी ही योग्यता वाला व्यक्ति उतना ही श्रम वाला व्यक्ति एक निश्चित राशि पर काम कर रहा है, तो आप सोचिए कि मनुष्य के मन की बनावट. उसके मन में अपने ही साथी, जो समान कार्य करने वाला है, के प्रति किसी तरह का अचछा भाव बनेगा? प्रशासन के ऊपर अच्छा भाव बनेगा?  वह चाहेगा कि किसी तरह परमानेंट हो जाए. कोर्ट इसमें सहायक हो रहे हैं जैसा हिमाचल में हुआ. 

राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा संस्थान के पास संस्कृत के विकास के लिए पूरा चार्टर है. इसके बाद भी संस्कृत के विकास के लिए दूसरा संस्कृत आयोग बना, जिसकी रिपोर्ट एनडीए के समय जमा हुई है. नए चेयरमैन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अलग-अलग राज्यों में नई संस्कृत यूनिवर्सिटी के लिए एकमुश्त ग्रांट दिया जाए. सभी संस्कृत यूनिवर्सिटी में स्किल डेवलपमेंट के कोर्स के लिए ग्रांट दिया जाए. आधुनिक विषयों को शुरू करने के लिए विशेष रूप से ग्रांट दिया जाए. कैंपस में संस्कृत का वातावरण बनाया जाए. साधारण संस्कृत में शास्त्रों की पढ़ाई हो. तमिल, हिन्दी, उर्दू यूनिवर्सिटी की तरह इतिहास, समाज विज्ञान, विज्ञान और वाणिज्य जैसे विषय पढ़ाए जाएं. बीएससी, एमएससी जैसे कोर्स संस्कृत में भी बने.

यही सारे सुधाव भारतीय भाषाओं के बारे में दिए जाते हैं कि उनमें रोज़गार की संभावना पैदा करो. इस बार के बजट में हिन्दी निदेशालय के लिए 46 करोड़ दिए जाने का प्रस्ताव तो दिखा है, संस्कृत के लिए अलग से ग्रांट की घोषणा नज़र नहीं आई. लगता है कि दूसरे संस्कृत आयोग की रिपोर्ट को गंभीरता से लिया ही नहीं गया है. 

अगर आपको पता हो कि यूपी के फिरोज़ाबाद के सिरसागंज कस्बे के इस संस्कृत कॉलेज का क्या होगा, इसके बारे में संस्कृत आयोग में कुछ नहीं है. जो कॉलेज बंद हो चुके हैं या बंद होने के कगार पर हैं, उनकी ज़मीनों या संसाधनों का क्या होगा, इस पर भी कुछ नहीं है. आर्य गुरुकुल संस्कृत महाविद्यालय खंडहर में बदल चुका है. इस इमारत का कौन सा कोना देखकर आप हाय-हाय करना चाहेंगे, रसोई घर या गेस्टहाउस या शौचालय. रहने दीजिए. भारत को विश्व गुरु बनाना है, ये नारा जपते रहिए, उसी से सब ठीक हो जाएगा. 80 के दशक तक यहां 300 के करीब छात्र हुआ करते थे, इस समय सिर्फ 7 छात्र हैं. इनके लिए एक शिक्षक हैं जिनका वेतन सरकार भेजती है और तीन कर्मचारी भी हैं. सात छात्रों के लिए एक शिक्षक. लगता है कि कोई देखने वाला नहीं कि सरकार के संसाधनों का कैसे बेहतर इस्तेमाल किया जाए. 1978 में इस संस्थान के संस्थापक की ज़मीन विवाद में हत्या हो गई थी. 

इन बेकार पड़े संसाधनों का इस्तेमाल भी संस्कृत के विकास में हो सकता था, मगर उसके लिए ज़रूरी है कि काम हो. पुरी लोकसभा से बीजेडी सांसद पिनाकी मिश्रा ने पूछा था कि नौकरी के अवसरों की कमी के कारण पिछले दस वर्षों में संस्कृत पढ़ाने वाले अध्यापकों की संख्या में बहुत कमी आई है, क्या यह सही है. क्या संस्कृत छात्रों की संख्या में कमी आई है. 17 जुलाई, 2017 को जवाब देते हुए मानव संसाधन राज्य मंत्री डाक्टर महेंद नाथ पांडेय ने कहा कि मंत्रालय स्कूलों और कॉलेजों में संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या का रिकॉर्ड नहीं रखता है. उपलब्ध सूचना के अनुसार संस्कृत शिक्षकों के पदों में कोई कमी नहीं आई है. 

मानव संसाधन मंत्रालय के पास जब शिक्षकों की संख्या का रिकॉर्ड नहीं है तो फिर क्या है. फिर भी मंत्री जी कह रहे हैं कि संस्कृत शिक्षकों के पदों में कोई कमी नहीं आई है. हमने कई जगह देखा कि संस्कृत के शिक्षक कम हैं. छात्रों में भी कमी आई है. बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सटी में भी संस्कृत के शिक्षक कम हैं. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति भी मानते हैं कि शिक्षक कम हैं. 


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