यूपी चुनाव : जातीय समीकरण से किसे फ़ायदा और किसे नुकसान

यूपी चुनाव : जातीय समीकरण से किसे फ़ायदा और किसे नुकसान

यूपी चुनाव अगले साल है पर चुनावी गहमागहमी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह चुनाव करो या मरो की लड़ाई है, जबकि बीएसपी प्रमुख मायावती सत्ता में वापसी के लिए जी-जान लगा रही हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपनी कुर्सी बचाने के लिए दिन-प्रतिदिन प्रदेश भ्रमण कर विकास योजनाओं का शिलान्यास कर रहे हैं और कांग्रेस पार्टी प्रशांत किशोर के भरोसे यूपी में 'अच्छे दिन' की उम्मीद लगाए बैठी है। यूपी चुनाव में धर्म और जातीय समीकरण भी एक अहम रोल अदा करता है और सभी पार्टियां इस पर गणित बैठाने में लगी हुई हैं।

वोट बैंक के लिहाज़ से देखें तो सबसे बड़ा ख़तरा सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को है, जिसका मुस्लिम वोट बैंक खतरे में नज़र आ रहा है। यूपी में मुसलमानों की संख्या करीब 17 प्रतिशत है, जिन्होंने बीते 15 सालों से सपा का हाथ थाम रखा है। बीते विधानसभा चुनाव में भी सपा को 60 प्रतिशत से ज़्यादा मुस्लिम वोट मिले थे, लेकिन मुज़फ्फरनगर दंगे व दादरी कांड के बाद मुस्लिम सपा से खफा हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मुजफ्फरनगर दंगे के 6 माह बाद वहां लोगों से मिलने गए थे, जिसकी मुस्लिम समुदाय ने तीखी आलोचना की थी। यूपी चुनाव को लेकर हुए सभी सर्वे में मायावती की बीएसपी को सबसे आगे बताया गया है। मुस्लिम समुदाय की खासियत यह है कि इनका वोट ज़्यादा बंटता नहीं है।

वहीं, बीजेपी को यूपी में आने से रोकने के लिए मुस्लिम समुदाय उस पार्टी को वोट देगी जो उनको कड़ा मुकाबला दे सके। वर्तमान स्तिथि में बीएसपी सपा से ज़्यादा मज़बूत लग रही है और इस बात के पूरे आसार हैं कि मुस्लिम समुदाय सपा का हाथ छोड़कर बहनजी का दामन थाम लें। अगर ऐसा हुआ तो बीएसपी को 70 सीटों में फ़ायदा होगा, जहां मुस्लिम वोट अहम रोल अदा करता है, जबकि सपा को इन 70 सीटों में नुकसान झेलना पड़ सकता है। यूपी में दलितों की आबादी 20 प्रतिशत हैं, जिनका वोट एकतरफा मायावती को जाता है। दलित वोट के साथ-साथ अगर अधिकांश मुस्लिम वोट भी मायावती को मिला तो बीएसपी को यूपी चुनाव में नंबर एक पार्टी बनने से कोई नहीं रोक सकता है। वहीं, सपा के पास महज़ अपना परंपरागत 9 प्रतिशत यादव वोट है जो किसी और पार्टी  को नहीं जाता है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए यह काफी नहीं हैं। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद सपा से लाखों युवा जुड़े हैं, लेकिन हाल ही में हुई मथुरा हिंसा और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के कारण पार्टी को इसका ज़्यादा फ़ायदा मिलना मुश्किल ही नज़र आ रहा है।

इस चुनाव को सबसे दिलचस्प बनाती है बीजेपी... जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दम पर 80 में से 71 सीटें जीती थी। हालांकि 1991 में जहां यूपी में बीजेपी को 221 विधानसभा सीटें मिली थीं, वह 2012 में घटकर महज़ 47 ही रह गईं। दिल्ली और बिहार चुनाव में करारी हार के बाद मोदी और पार्टी को मज़बूत बनाने के लिए यूपी का सहारा है, लेकिन सीएम प्रत्याशी व चुनावी एजेंडा जैसे अहम मुद्दों पर एकमत नहीं बना पा रही है। बीजेपी का यूपी चुनाव में हिंदुत्व व व ध्रुवीकरण मुख्य हथियार होगा , जिसका फ़ायदा पार्टी को पश्चिमी यूपी में मिलेगा। पश्चिमी यूपी में 27 ज़िले आते हैं, जहां हिन्दुओं की संख्या 73 प्रतिशत है, जिसमें जाट और गुर्जर भी आते हैं। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में वोट मिले थे। मुज़फ्फरनगर दंगे, दादरी कांड व मथुरा में हुई हिंसा ने यूपी के इस हिस्से में सपा को बेहद कमज़ोर कर दिया है। जाटों ने भी अजीत सिंह का साथ छोड़कर बीजेपी को अपना हितैषी मान लिया है।

अगर लोकसभा की तरह राज्य चुनाव में भी बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोगों का समर्थन मिला तो पार्टी आने वाले चुनाव में बेहद अच्छा प्रदर्शन करेगी। प्रयाग नगरी इलाहाबाद में पार्टी की राष्ट्रीय इकाई की बैठक करके हिन्दुओं को पूरी तरह से अपनी तरफ खींचने की योजना बनाई जा रही है। केशव प्रसाद मौर्या को बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर 31 प्रतिशत ओबीसी जनसंख्या को भी टारगेट किया जा रहा है। यूपी में राजनाथ सिंह को पार्टी प्रदेश के सबसे बड़े नेता के रूप में दिखा रही है, हालांकि उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार नहीं घोषित किया गया है। उनके ज़रिए पार्टी 8 प्रतिशत ठाकुर वोट जीतना चाहेगी। ब्राह्मण, कुर्मी व भूमिहार वोट जिनकी संख्या क़रीब तेरह प्रतिशत है भी बीजेपी को अच्छा समर्थन देंगे, क्‍योंकि यह यूपी में परंपरागत इन्हीं के साथ जुड़े रहे हैं।  

यूपी में सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के साथ है जो बीते विधानसभा चुनाव में मिली 29 सीटें ही बचा ले तो बड़ी बात होगी। यूपी में कांग्रेस को भी उच्च जातियों के वोट मिलते आए हैं, लेकिन पूरे देश में कांग्रेस की हो रही दुर्गति के चलते बेहद मुश्किल है कि पार्टी पर ज़्यादा लोग भरोसा कर पाएं। कांग्रेस के पास यूपी में कोई भी बड़ा नेता नहीं है जो मायावती व अखिलेश यादव से टक्कर ले सके। कांग्रेस में आपसी मतभेद भी बढ़ रहे हैं और पार्टी को प्रशांत किशोर के अलावा कोई सहारा नज़र नहीं आ रहा है, जिन्होंने बीते लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी व बिहार चुनाव में नीतीश के लिए रणनीति बनाई थीं। राहुल गांधी भी कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हुए हैं।   

जातीय व धार्मिक समीकरण से देखें तो यूपी में बीएसपी और बीजेपी को फ़ायदा मिलता दिख रहा है, जबकि मुस्लिम समुदाय का विश्वास खो रही समाजवादी पार्टी को नुकसान। लोकसभा चुनाव के बाद से सिर्फ बुरे दिन देख रही कांग्रेस की ज़ोरदार वापसी यूपी चुनाव में तो खैर मानों नामुमकिन ही है।

नीलांशु शुक्ला NDTV 24x7 में ओबी कन्ट्रोलर हैं...

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