सारे देश में एक साथ चुनाव करवाना सही, लेकिन गलत भी...

एक साथ चुनाव करवाने का विचार उचित है, लेकिन भारत जैसे उलझनदार देश में यह व्यावहारिक नहीं. स्थानीय भावनाओं तथा विचारों को पूरी जगह मिलनी चाहिए. ठीक है कि बार-बार चुनाव समय, पैसे तथा ऊर्जा की बर्बादी हैं, लेकिन इस विविधतापूर्ण देश में लोकतंत्र को सुरक्षित तथा जनता को संतुष्ट रखने के लिए यह बड़ी कीमत नहीं है.

सारे देश में एक साथ चुनाव करवाना सही, लेकिन गलत भी...

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसकी जोरदार वकालत कर चुकें हैं. चुनाव आयोग भी मान चुका है कि देश में बार-बार चुनाव से शासन का बड़ा अहित होता है और देश सदैव चुनावरत रहता है. हर चुनाव को सरकार की कार्यप्रणाली, नीतियों तथा लोकप्रियता पर जनादेश समझा जाता है, जिस कारण सबका ध्यान ज़रूरी मसलों से हटकर राजनीति और चुनावों पर रहता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लगातार चुनाव के मूड में रहते हैं. जहां लगातार चुनाव होते हों, वहां सरकारें अलोकप्रिय, लेकिन ज़रूरी कदम उठाने से घबराती हैं. ऊपर से आचार संहिता लागू होने के बाद सरकारी कामकाज ठप हो जाता है. विकास कार्य प्रभावित होते हैं, नीतिगत निर्णय नहीं लिए जाते.

चुनाव आयोग भी लंबे चुनाव करवाता है. फटाफट चुनाव करवाने तथा सामान्य शासकीय कामकाज में कम से कम व्यवधान का तरीका चुनाव आयोग ने नहीं ढूंढा. अब नीति आयोग ने भी सिफारिश की है कि वर्ष 2024 तक एक साथ केंद्र तथा राज्यों में चुनाव करवाए जाएं, ताकि शासन व्यवस्था में कम से कम व्यवधान पड़े. आयोग की सिफारिश के अनुसार एक बार कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में वृद्धि या कटौती की जाएगी, ताकि 2024 तक एक साथ चुनाव हो सकें.

किसी भी लोकतंत्र में इस तरह लगातार चुनाव नहीं होते, जैसे हमारे देश में होते हैं. पहले चार चुनाव 1951-52, 1957, 1962 और 1967 संसद तथा विधानसभाओं के समानांतर हुए थे, केवल केरल तथा उड़ीसा में 1960 तथा 1961 में मध्यावधि चुनाव हुए थे. लेकिन उसके बाद यह कड़ी टूट गई. केंद्र की कांग्रेस की सरकार ने बार-बार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर कई प्रदेश सरकारों की अवधि कम कर दी. आज़ादी के बाद पहले कुछ वर्षों में अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल केवल तीन बार किया गया, लेकिन 1975-1979 के बीच इसका 21 बार इस्तेमाल हुआ और 1980-87 के बीच 18 बार. नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी उत्तराखंड तथा अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया. आखिर अनुच्छेद 356 हमारे संविधान का हिस्सा है.

समस्या है कि यहां बहुत चुनाव होते हैं, लेकिन इसका कोई व्यावहारिक इलाज नज़र नहीं आता. अगर कोई सरकार, केंद्र में या प्रदेश में, बहुमत खो बैठती है, तो जनता से फिर जनादेश प्राप्त करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है. हमारा संविधान स्थायी पांच साल की अवधि की बात नहीं करता. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव चार साल के लिए होता है, उसके बीच अगर राष्ट्रपति की मौत हो जाए (जैसे जॉन एफ कैनेडी) या उसे हटना पड़े (जैसे रिचर्ड निक्सन) तो उपराष्ट्रपति को बाकी अवधि के लिए राष्ट्रपति बना दिया जाता है. उनकी लंबी उत्तराधिकारी सूची है, ताकि दोबारा चुनाव की ज़रूरत न आए. हमारे यहां ऐसी व्यवस्था नहीं है, और न हो सकती है. यहां बहुत अधिक लोकतंत्र है, लेकिन मेरा मानना है कि भारत जैसे भिन्नता वाले देश में यह चाहिए भी. लोगों का मूड बदलता रहता है. चुनाव में उनका गुस्सा निकल जाता है, नहीं तो प्रेशर कुकर फट जाएगा.

संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी यही सुझाव दिया था कि एक बार लोकसभा के चुनाव तथा आधी विधानसभाओं के चुनाव हो जाएं, तो दूसरी बार बाकी आधी विधानसभाओं के चुनाव हों. सुझाव अच्छा है, लेकिन होगा कैसे...? ऐसा करने के लिए कुछ विधानसभाओं की अवधि बढ़ाई जाएगी और कुछ की कम की जाएगी. क्या सभी पार्टियां संविधान में ऐसे संशोधन के लिए तैयार हो जाएंगी...? जो विधानसभा भंग करनी पड़ेगी, वह इसे क्यों स्वीकार करेगी...? सुप्रीम कोर्ट भी कह सकता है कि एक निर्वाचित विधानसभा की अवधि कम करना असंवैधानिक है.

सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि संविधान के मूलभूत ढांचे से छेडख़ानी नहीं हो सकती. यह सवाल भी सार्थक है कि हमारे जैसे संघीय ढांचे में केंद्र सरकार को अपनी राय प्रदेशों पर थोपने का कितना प्रयास करना चाहिए...? इसके घातक परिणाम निकल सकते हैं. इंदिरा गांधी ने बार-बार छेड़छाड़ करने का प्रयास किया था, यह उल्टा पड़ा था. एक साथ चुनाव करवाने के लिए कुछ प्रदेशों पर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ सकता है, लेकिन यह कार्रवाई प्रादेशिक स्वाभिमान पर चोट कर सकती है.

...और अगर केंद्र सरकार खुद लोकसभा में विश्वास खो बैठती है या उसका बजट पास नहीं होता तो क्या होगा...? तब क्या चुनाव नहीं करवाए जाएंगे...? अगर लोकसभा की अवधि पूरी होने से पहले उसके भंग होने की सूरत पैदा हो जाती है, तो नीति आयोग की सिफारिश है कि जब तक अगले सदन का गठन नहीं हो जाता, प्रावधान बनाया जा सकता है कि राष्ट्रपति एक मंत्रिपरिषद बनाकर देश का शासन चलाएं, पर यह तो लोकतंत्र का कत्ल होगा. संविधान में भी केंद्र में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान नहीं है. यहां सरकार केवल प्रधानमंत्री ही चला सकते हैं.

ब्रिटेन की प्रधानमंत्री ने 'ब्रेक्ज़िट' को लेकर दोबारा जनता के सामने जाने का फैसला किया है. यह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है. भारत के प्रधानमंत्री को ऐसे अधिकार से वंचित क्यों किया जाए...? अगर किसी मामले में वह दोबारा जनादेश प्राप्त करना चाहें, तो उन्हें रोका क्यों जाए...? प्रदेश में भी अगर कोई मुख्यमंत्री विधानसभा भंग कर दोबारा जनादेश प्राप्त करना चाहें, तो उनके रास्ते में भी रुकावट क्यों खड़ी की जाए...? अपने वोट के अधिकार पर बंदिश से लोग बगावत कर सकते हैं.

एक साथ चुनाव करवाने का विचार उचित है, लेकिन भारत जैसे उलझनदार देश में यह व्यावहारिक नहीं. स्थानीय भावनाओं तथा विचारों को पूरी जगह मिलनी चाहिए. ठीक है कि बार-बार चुनाव समय, पैसे तथा ऊर्जा की बर्बादी हैं, लेकिन इस विविधतापूर्ण देश में लोकतंत्र को सुरक्षित तथा जनता को संतुष्ट रखने के लिए यह बड़ी कीमत नहीं है.

चंद्रमोहन वरिष्ठ पत्रकार, ब्लॉगर और कॉलम लेखक हैं...

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