क्या नियमों को तोड़कर राफेल डील में बदलाव?

क्या राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हुआ है, इस बारे में आज यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी ने प्रेस कांफ्रेंस की. प्रशांत भूषण ने प्रेस रिलीज में लिखा है कि सरकार दोस्ताना मीडिया के ज़रिए भ्रम फैला रही है.

क्या नियमों को तोड़कर राफेल डील में बदलाव?

क्या राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हुआ है, इस बारे में आज यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी ने प्रेस कांफ्रेंस की. इनकी मांग है कि सरकार सभी सवालों के जवाब दे, विपक्ष इन सवालों को ठीक से उठाए और मीडिया उन तथ्यों को उजागर करने का प्रयास करे, जिन्हें सरकार छिपाना चाहती है. प्रशांत भूषण ने प्रेस रिलीज में लिखा है कि सरकार दोस्ताना मीडिया के ज़रिए भ्रम फैला रही है. आइये पहले जल्दी से इसकी कहानी कैसे शुरू होती है उस पर नज़र डालते हैं. राफेल लड़ाकू विमान फ्रांस की कंपनी डास्सों एविएशन बनाती है. 2007 से भारत इसे ख़रीदने का सपना देख रहा है. उस साल भारतीय वायुसेना ने सरकार को अपनी ज़रूरत बताई थी और यूपीए सरकार ने रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोज़ल तैयार किया था कि वह 167 मीडियम मल्टी रोल कंबैट एयरक्राफ्ट खरीदेगा. इसमें साफ साफ कहा गया था कि जो भी टेंडर जारी होगा उसमें यह बात शामिल होगी कि शुरुआती ख़रीद की लागत क्या होगी, विमान कंपनी भारत को टेक्नॉलजी देगी और भारत में उत्पादन के लाइसेंस देगी.

इस आधार पर टेंडर जारी होता है जिसमें 6 लड़ाकू विमान बनाने वाली कंपनियां हिस्सा लेती हैं. जिनमें से एक डास्सो एविएशन भी है. 2011 तक बातचीत और परीक्षण की प्रक्रिया चलने के बाद वायु सेना अपनी राय रखती है कि उसकी ज़रूरत के अनुसार डास्सो एविशन और एक दूसरी कंपनी यूरोफाइटर्स के विमान सही लगते है. 2012 के टेंडर में डास्सो एविएशन ने सबसे कम पैसे में विमान आपूर्ति की बात की. इसके आधार पर भारत सरकार और डास्सो कंपनी के बीच बातचीत शुरू होती है. इसके बीच बहुत कुछ होता है. जब प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस की यात्रा पर जाते हैं, अप्रैल 2015 में तो इस खरीद की प्रक्रिया से संबंधित कई बातें बदल जाती हैं.

हमारे पास अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड के भी जवाब हैं, लेकिन पहले सवालों को समझ लेते हैं. प्रेस रिलीज बहुत लंबी है और बहुत सारे दस्तावेज़ हैं. हम सभी सवालों को न तो शामिल कर सकते हैं और न सभी जवाबों को. फिर भी दोनों तरफ की मुख्य बातें रखने का प्रयास करेंगे. प्रेस कांफ्रेस में यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण के मूल सवाल हैं कि राफेल विमान की खरीद की बातचीत की प्रक्रिया में कई साल तक पब्लिक सेक्टर की कंपनी हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमिटेड शामिल होती है, 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री के डील साइन करने के 16 दिन पहले डास्सो एविशन जो राफेल बनाती है, उसके सीईओ के बयान के अनुसार हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड कंपनी से बातचीत हो रही है, मार्च 2014 में दोनों के बीच एक करार भी हुआ था कि भारत में 108 राफेल लड़ाकू विमान बनेगा और इसका 70 फीसदी काम एचएएल को मिलेगा और बाकी काम डास्सो एविएशन करेगी. लेकिन प्रधानमंत्री के डील साइन करने से दो दिन पहले हिस्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड का नाम कट जाता है. यह खेल कैसे हुआ किसी को पता नहीं, इस सवाल का जवाब कोई दे नहीं रहा है.

प्रशांत भूषण का कहना है कि 60 साल से जो कंपनी विमान बना रही है वो बाहर कर दी जाती है और एक ऐसी कंपनी आ जाती है जिसका कोई अनुभव नहीं है. जिसे भारतीय नौ सेना को खास तरह का जहाज़ बनाकर देना था मगर वो नहीं दे पा रही है. यह सब रिलायंस डिफेंस के बारे में कहा जा रहा है कि इस कंपनी पर 8000 करोड़ का कर्ज़ा भी है भारतीय बैंकों का. यशवंत सिन्हा प्रशांत भूषण और अरुण शौरी के अनुसार इस मामले में बड़ा घपला हुआ है. सरकार सीक्रेसी यानी गोपनीयता के करार का बहाना बना रही है. प्रशांत भूषण का कहना है कि अप्रैल 2015 में जो डील हुई वो 2012 से लेकर 2015 के बीच चली प्रक्रिया से बिल्कुल अलग है. अचानक तीन साल की सारी बातचीत कैसे पलट गई. किसके फायदे के लिए पलटी गई. 2007 में 126 जहाज़ की कुल लागत 42,000 करोड़ थी. वैसे अंतिम कीमत क्या थी, इसकी जानकारी पब्लिक में मौजूद नहीं है. लेकिन 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा था कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90,000 करोड़ होगी. तो अब सरकार दाम क्यों नहीं बता रही है.

प्रेस कांफ्रेंस में उस समय के विदेश सचिव के एक बयान को भी शामिल किया गया जो उन्होंने प्रधानमंत्री के दौरे से पहले मीडिया से कहा था. यह बयान 8 अप्रैल 2015 का है. राफेल को लेकर मेरी समझ यह है कि फ्रेंच कंपनी, हमारा रक्षा मंत्रालय और हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड के बीच चर्चा चल रही है. ये सभी टेक्निकल और डिटेल चर्चा है. नेतृत्व के स्तर पर जो यात्रा होती है उसमें हम रक्षा सौदों को लेकर शामिल नहीं करते हैं. वो अलग ही ट्रैक पर चल रहा होता है. प्रशांत भूषण का तर्क है कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को भी नहीं पता कि क्या होने वाला था. विदेश सचिव को भी नहीं पता कि क्या होने वाला था. क्योंकि विदेश सचिव 8 अप्रैल 2015 को पत्रकारों को बता रहे थे कि इस प्रक्रिया में हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड शामिल है. मगर 25 मार्च 2015 को अदानी डिफेंस सिस्टम एंड टेक्नॉलजी लिमिटेड और 28 मार्च को रिलायंस डिफेंस लिमिटेड कंपनी को इस प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है. जबकि इसके लिए भी भारत में कानून है कि अगर कोई नई कंपनी बीच रास्ते में शामिल होगी तो उसके लिए रक्षा मंत्री की मंज़ूरी ज़रूरी होगी.

यशंवत सिन्हा और प्रशांत भूषण जानना चाहते हैं कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को पता था. विदेश सचिव की बातचीत के अनुसार यूपीए के समय की बातचीत के हिसाब से ही डील हो रही थी. मगर जब डील साइन होती है तब पहले की बातचीत की कई बातें बदल चुकी थीं. पहले डील थी कि 18 फाइटर प्लेन मिलेगा, लेकिन 36 फाइटर प्लेन की बात कहां से आ गई. क्या इसके लिए वायु सेना ने अपनी तरफ से कुछ प्रस्ताव किया था. क्या नई डील को रक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने मंज़ूरी दी थी. नई डील के अनुसार नया टेंडर क्यों नहीं जारी किया गया. 4 जुलाई 2014 को यूरोफाइटर ने रक्षा मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखा था कि वह अपनी लागत में 20 फीसदी कमी करने के लिए तैयार है. तो फिर नया टेंडर क्यों नहीं जारी हुआ. मार्च 2014 में एचएएल और डास्सों के बीच एक करार हुआ था, जिसके अनुसार 108 विमान भारत में बनेंगे और 70 फीसदी काम एचएएल में होगा. बाकी का काम डास्सों एविशन कंपनी करेगी.

डील के दो दिन पहले नई कंपनी का नाम सामने आता है. 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस में इसकी घोषणा करते हैं. काम एक नई कंपनी को मिल जाता है. अनिल अबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस लिमिटेड को. एचएएल को बाहर कर दिया जाता है, जबकि 25 मार्च को डास्सो एविएशन के सीईओ एक प्रेस कांफ्रेंस करते हैं जिसमें वे एचएएल का नाम लेते हैं और बताते हैं कि उनके साथ बातचीत हो रही है. एचएएल चेयरमैन से सुनकर आप सुनकर मेरे संतोष की कल्पना कर सकते हैं कि हमने ज़िम्मेदारियों के साझा करने से सहमत हैं. हम रिक्वेस्ट फ़ॉर प्रोजेक्ट में तय की गई प्रक्रिया को लेकर प्रतिबद्द हैं. मुझे पूरा भरोसा है कि कांट्रेक्ट को पूरा करने और और उस पर हस्ताक्षर करने का काम जल्दी हो जाएगा.

यहां आपको यह समझना है कि रफाएल कंपनी के सीईओ एचएएल के चेयरमैन की बात कर रहे हैं साथ ही वे रिक्वेस्ट फार प्रपोज़ल की बात कर रहे हैं जो यूपीए के समय से चल रहा था. फिर अचानक सब कैसे बदल गया. हमारे सहयोगी उमाशंकर सिंह ने प्रशांत भूषण से बात की है. 36 विमानों की तैयार अवस्था में तुरंत आपूर्ति होनी थी. तीन साल बीत गए मगर एक भी विमान भारत की सरज़मी पर नहीं उतरा है. यह इस प्रेस कांफ्रेंस में कहा गया है. संसद में बताया गया कि पहली खेप अप्रैल 2019 में आएगी. यानी डील साइन के चार साल बाद. 2022 के मध्य तक 36 एयरक्राफ्ट की पूरी खेप नहीं आ सकेगी. अब हम रिलायंस डिफेंस के जवाब का मुख्य हिस्सा पढ़ रहे हैं. 

सवाल 1 : कहा जा रहा है कि रिलायंस को रक्षा मंत्रालय से 30 हज़ार करोड़ के कॉन्ट्रैक्ट का फ़ायदा हुआ जो 36 रफाल विमानों के ऑफ़सेट्स से जुड़ा है.
जवाब 1: रिलायंस डिफेंस या रिलायंस ग्रुप की किसी और कंपनी ने अभी तक 36 राफेल विमानों से जुड़ा कोई कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया है. ये बातें पूरी तरह निराधार हैं.
सवाल 2: HAL को नज़रअंदाज़ कर रिलायंस को ऑफ़सेट दिए जाने को आप कैसे एक्सप्लेन करेंगे?
जवाब 2 : HAL 126 MMRCA प्रोग्राम के तहत नामांकित प्रोडक्शन एजेंसी थी जो कभी कॉन्ट्रैक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची.


36 राफेल के मामले में सभी विमान फ़्लाई अवे कंडीशन में डिलिवर किए जाने हैं. दूसरे शब्दों में Dassault द्वारा फ्रांस से निर्यात किए जाने हैं. HAL या कोई भी अन्य इसमें प्रोडक्शन एजेंसी नहीं हो सकती क्योंकि कोई भी विमान भारत में नहीं बनना है. रिलायंस डिफेंस का कहना है कि विदेशी वेंडरस के भारतीय पार्टनर्स के चयन में रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है. 2005 से अभी तक 50 ऑफसेट कांट्रेक्ट साइन हो चुके हैं सब में एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है. रिलायंस डिफेंस ने इसके जवाब में कहा है कि इस सवाल का जवाब रक्षा मंत्रालय ही सबसे सही दे सकता है. लेकिन ये समझना बेहतर होगा कि DPP-2016 के मुताबिक विदेशी वेंडर को इस चुनाव की सुविधा है कि वो ऑफ़सेट क्रेडिट्स के दावे के समय अपने ऑफसेट पार्टनर्स का ब्योरा दे सके. इस मामले में ऑफसेट obligations सितंबर 2019 के बाद ही ड्यू होंगी. इसलिए ये संभव है कि रक्षा मंत्रालय को Dassault से उसके ऑफ़सेट पार्टनर्स के बारे में कोई औपचारिक जानकारी ना मिली हो.

यह कैसी डील है कि अप्रैल 2015 से अगस्त 2018 आ गया अभी तक रक्षा मंत्रालय को जानकारी ही नहीं है, डास्सो एविएशन ने जानकारी ही नहीं दी है, रिलायंस के इस जवाब के बाद कम से कम रक्षा मंत्रालय को तो जवाब देना ही चाहिए. अब एक सवाल के जवाब में रिलायंस डिफेंस कहती है कि उसे 30,000 करोड़ का ठेका नहीं मिला है. डास्सो एविएशन किस ऑफसेट पार्टनर को कितना काम देगी, यह अभी तय नहीं हुआ है. डास्सो एविएशन ने इसके लिए 100 से अधिक भारतीय कंपनियों को इशारा किया है. इसमें से दो सरकारी कंपनियां हैं एचएएल और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड. एक तो इशारा करने का क्या मतलब होता है हम नहीं समझे, अभी रिलायंस कह रही है कि रक्षा मंत्रालय को हो सकता है कि ऑफसेट पार्टनर के बारे में जानकारी न हो मगर रिलायंस को पता है कि 100 से अधिक ऑफसेट पार्टनर्स हो सकते हैं. इसमें दो सरकारी कंपनियां भी हैं. क्या यह मुमकिन हो सकता है कि रक्षा मंत्रालय को इतना भी पता न हो. क्या आप इस जवाब से संतुष्ट हुए. खैर आगे बढ़ते हैं. रिलायंस डिफेंस ने उस सवाल का जवाब दिया है कि एक ऐसी कंपनी को ठेका कैसे मिल गया जिसके पास कोई अनुभव नहीं है.

हमें अपने तथ्य सही कर लेने चाहिए.  इस कॉन्ट्रैक्ट के तहत कोई लड़ाकू विमान नहीं बनाए जाने हैं क्योंकि सभी विमान फ्रांस से फ्लाई अवे कंडीशन में आने हैं. भारत में HAL को छोड़ किसी भी कंपनी को लड़ाकू विमान बनाने का अनुभव नहीं है. अगर इस तर्क के हिसाब से चलें तो इसका मतलब होगा कि हम जो अभी है उसके अलावा कभी कोई नई क्षमता नहीं बना पाएंगे. और रक्षा से जुड़े 70% हार्डवेयर को आयात करते रहेंगे. एक और सवाल किया गया किया कि जब प्रधानमंत्री पेरिस में डील का एलान कर रहे थे तो अनिल अंबानी वहां क्यों मौजूद थे? अंबानी फ्रांस और अन्य देशों के लिए CEO फोरम का हिस्सा थे. वो पेरिस में इसलिए थे, क्योंकि प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान वहां CEO फोरम की भी बैठक थी. भारतीय कंपनी के 25 अन्य CEO भी वहां मौजूद थे. इनमें HAL के चेयरमैन भी थे. इस जवाब में आपने सुना कि प्रधानमंत्री के साथ अन्य सीईओ भी थे जिनमें हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड के चेयरमैन भी थी. सवाल तो यही है कि हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड को क्यों बाहर किया गया.


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