द कलर ऑफ डार्कनेस: नस्लीय हिंसा की तहों को तलाशती फिल्म, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

कई बार कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिन पर उस वक्त तो ख़ूब चर्चा होती है, वादे होते हैं, वादे टूट भी जाते हैं और हम सब भूल भी जाते हैं.

द कलर ऑफ डार्कनेस: नस्लीय हिंसा की तहों को तलाशती फिल्म, रवीश कुमार के साथ प्राइम टाइम

कई बार कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिन पर उस वक्त तो ख़ूब चर्चा होती है, वादे होते हैं, वादे टूट भी जाते हैं और हम सब भूल भी जाते हैं. क्या सभी भूल जाते होंगे, शायद नहीं. उस घटना के गर्भ से कोई न कोई कहानी बनती रहती है. कोई कहानी किसी और की कहानी से टकरा जाती है तो कई बार बिल्कुल ही नई कहानी बन आती है. हम पहले आपको 2009-10 के ऑस्ट्रेलिया में ले जाना चाहते हैं जब वहां भारतीय छात्रों पर हमले होने लगे थे. 

ऑस्ट्रेलिया और भारत में चर्चा होने लगी कि जिस मुल्क में 140 मुल्कों के लोग रहते हैं वहां अचानक भारतीय छात्रों पर हमले क्यों हो रहे हैं. एक भारतीय छात्र की हत्या हो गई थी और दूसरे को मेलबार्न में जलाकर मारने की कोशिश हुई थी. उस वक्त भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच के कूटनीतिक संबंधों में भी तनाव आ गया था, अब सब कुछ सामान्य है. फिर से आस्ट्रेलिया जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ने लगी है. 

बीबीसी के सौतिक विस्वास ने तब लिखा था कि भारतीय टीवी मीडिया ऑस्ट्रेलिया को लेकर आक्रामक तो हो गया मगर किसी भी रिपोर्ट में चाहे वो भारतीय मीडिया हो या ऑस्ट्रेलियन मीडिया, हमले के कारणों की गंभीर पड़ताल नहीं थी. 
उस वक्त के टीवी चैनलों पर ऑस्ट्रेलिया के बारे में लिखा जाता था कि वह एक नस्लभेदी रेसिस्ट मुल्क है. मेलबर्न दुनिया का सबसे नस्लभेदी शहर है. आप यकीन नहीं करेंगे मेलबर्न एज के संपादक ने लिखा था कि कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता है. वह स्वार्थी हो सकता है, नफरत कर सकता है, दुख पहुंचाने में खुशी महसूस कर सकता है और यहां तक कि हत्या करने में भी. 

ये 2009-10 का ऑस्ट्रेलिया का मीडिया था जो आज का भारत में सोशल मीडिया का एक हिस्सा है. उस समय ऑस्ट्रेलिया मीडिया और ब्लॉग पोस्ट में कहा जाने लगा कि भारतीय छात्र ही ज़िम्मेदार हैं. बाद में माइकल बास का एक रिसर्च पेपर पढ़ते हुए पता चला कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी. इससे ऑस्ट्रेलिया की कमाई भी होती थी. दोनों मुल्कों के मीडिया ने एकदूसरे के प्रति कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था. ऑस्ट्रेलिया वाला भारत को नस्लभेदी बोलता था तो भारत से आस्ट्रेलिया को नस्लभेदी. जैसा कि आजकल होता है. 

अब इस कहानी से एक कहानी निकली है. एक फिल्म बनी है 'द कलर आफ डार्कनेस'. अंग्रेज़ी में बनी इस फिल्म में 20 प्रतिशत गुजराती भी है. गुजराती इसलिए क्योंकि इस फिल्म के निर्देशक गिरीश मकवाना भी गुजरात के हैं. फिल्म की कहानी गुजरात के एक गांव टुंडेल से शुरू होती है और 2009 में मेलबर्न शहर में भारतीय छात्रों के ख़िलाफ़ हो रहे हमले में घुल मिल जाती है. इस फिल्म को आप आज के समय में भी देख सकते हैं कि कैसे किसी घटना को दोनों देशों का मीडिया अपना अपना रंग देते हैं और हिंसा की जड़ तक पहुंचने की जगह, उसका इस्तमाल करते हैं, अपनी राजनीति के लिए.

मकवाना के लिए रंग भेद, नस्ल भेद और जाति भेद अलग-अलग शब्द नहीं हैं. हिंसा की यह बीमारी अलग-अलग नाम से हर तरह के समाज में मौजूद है. पहले आप फिल्म का वीडियो देखिए कुछ अंदाज़ा होगा कि गिरीश मकवाना ने कितनी सधी हुई फिल्म बनाई है. एक निर्देशक के तौर पर कैमरे पर उनकी कितनी पकड़ है और संगीतगार के रूप में उन्होंने क्या कमाल किया है. गिरीश मकवाना की यह कामयाबी सामाजिक रूप से पिछड़े तबके के लिए मिसाल हो सकती है. हम सब ज़माने देखते आए हैं कि यशराज की फिल्म जब शुरू होती है कैसे उनका सिग्नेचर पर्दे पर आकार लेते हैं. गिरीश मकवाना के नाम का जी आप देखिए. जिस अंदाज़ से पर्दे पर आकार लेता है, वो एक दस्तक है, कि यह फिल्मकार यहीं नहीं रुकने वाला है. 

गिरिश मकवाना बुनकर समाज से आते हैं. उनके पिता कांति मंगल वणकर ने जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ आवाज़ उठाई थी. 1965 की घटना के बारे में बात करेंगे जब मंगल भगत ने कहा था कि इनफ़, बस अब और नहीं. गिरीश मकवाना ने इस फिल्म को अपने दादा जी मंगलाभाई प्रेमाभाई मकवाना के नाम समर्पित किया है. दादा जी अपने पोते के इस कमाल को देखने के लिए अब इस दुनिया में नहीं हैं, मगर इस फिल्म के ज़रिए पोते ने अपने दादा जी को दुनियाभर में पहुंचा दिया है. पोलियो के शिकार गिरीश मकवाना के हुनर को पकड़ना है, समझना है, तो इस फिल्म में लिखे गए उनके गाने, गाने का संगीत और उसके फिल्मांकन को महसूस कीजिए.

उससे पहले यह भी जान लीजिए कि गिरीश मकवाना के पास म्यूज़िक परफोर्मेंस में बैचलर और मास्टर की डिग्री है. म्यूज़िक कंपोज़िशन में पीएचडी हैं. ऑस्ट्रेलिया में भारतीय संगीत की संस्कृति का ख़ूब प्रचार-प्रसार भी किया है. 2010 में गिरिश मकवाना फिल्म बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने से पहले फिल्म और टीवी प्रोडक्शन में डिप्लोमा और उसके बाद मास्टर डिग्री हासिल करते हैं. कलर आफ डार्कनेस का प्रोमो वीडियो देखकर लग जाता है कि फिल्मकार ने वैसे ही दृश्य, संगीत और संवाद की वैसे ही बुनाई की है जैसे हथकरघे पर कोई बुनकर कपड़े की बुनाई करता है.

रौशनी का त्योहार है, इस मौके पर हम अंधेरे के रंग की बात करने जा रहे हैं. कलर आफ डार्कनेस. समाज के भीतर, अपने भीतर मौजूद हिंसा के तत्वों को जानना ज़रूरी है, वर्ना कब हम पर ख़ून सवार हो जाएगा, पता नहीं चलेगा.  अभिनेता साहिल सलूजा ने बताया है कि रिसर्च के दौरान जब वो समाज के इस हकीकत से गुज़रा कि आज भी करोड़ों लोगों को जाति का दंश झेलना पड़ता है, तो उसकी सोच ही नहीं, ज़िंदगी भी बदल गई. इस फिल्म को कई पुरस्कार मिल चुके हैं. 


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