ख़राब हैं सफ़ाईकर्मियों के हालात. देखें प्राइम टाइम रवीश कुमार के साथ

इसी 6 अगस्त को दक्षिण दिल्ली के लाजपत नगर में तीन लोगों की मौत हो गई. इस काम में मशीनों का इस्तमाल तो होता है मगर जब राजधानी दिल्ली में ही अगर हाथ से सीवर का गंदा मैला उठाया जा रहा है तो बाकी देश का हाल आप समझ सकते हैं.

ख़राब हैं सफ़ाईकर्मियों के हालात. देखें प्राइम टाइम रवीश कुमार के साथ

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

हमारा शहर कौन साफ़ करता है, हम उसके बारे में बहुत कम जानते हैं. स्वच्छता के इतने सघन अभियान के बाद भी हम सफाईकर्मियों की स्थिति पर बात नहीं कर पाते हैं. वहां तक बात पहुंच ही नहीं पाती है. दिल्ली में दो महीने के भीतर सीवर साफ करते समय सात लोगों की मौत हो गई है. इसी 6 अगस्त को दक्षिण दिल्ली के लाजपत नगर में तीन लोगों की मौत हो गई. इस काम में मशीनों का इस्तमाल तो होता है मगर जब राजधानी दिल्ली में ही अगर हाथ से सीवर का गंदा मैला उठाया जा रहा है तो बाकी देश का हाल आप समझ सकते हैं.

VIDEO: गटर में उतरने को कौन मजबूर करता है?

प्रैक्सिस संस्था ने 2014 में सीवर में काम करने वाले मज़दूरों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया है. आप जानते हैं कि पूरे देश में भारत माता के इन सच्चे सपूतों के बारे में कोई आधिकारिक डेटा नहीं रखा जाता है. सीवर भी देश के भीतर की वो सीमा है जहां हमारी सफाई के लिए लड़ता हुआ भारत माता का सपूत मारा जाता है. उसे न तो शहीद का दर्जा मिलता है न ही मुआवज़ा. भारत माता का सपूत कह देने से सारी समस्या का हल नहीं हो जाता. सीवर में उतरने वाले जातिवाद का जो दंश झेलते हैं उस पर बात फिर कभी. कोई 20 फुट गहरे सीवर में उतरा हो, सांस लेने की साफ हवा तक न हो, पता भी न हो कि अंदर हाइड्रोजन सल्फाइड इंतज़ार कर रही है या मिथेन गैस. इनके पास कोई उपकरण नहीं होता जिससे पता कर सके कि सीवर में ज़हरीली गैस इंतज़ार कर रही है. कई बार माचिस की तीली जलाकर जांच कर लेते हैं. बदन पर कोई कपड़ा नहीं होता है. कमर में रस्सी बंधी होती है ताकि कीचड़ में फंस जाए तो कोई खींच कर बाहर निकाल ले. प्रेक्सिस की रिपोर्ट डाउन दि ड्रेन पढ़ियेगा, इंटरनेट पर है.

हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा उत्तरी दिल्ली के मॉडल टाउन के संगम पार्क गए जहां सफाईकर्मी रहते हैं. 2015 में जब हमने वहां से प्राइम टाइम किया था तब से स्थिति में कुछ तो सुधार हुआ है. लोगों ने सुशील को बताया कि अब सीवर और पीने का पानी मिक्स नहीं होता है. इसके बाद भी समस्याएं समाप्त नहीं हुई हैं. विकराल के स्तर से घटकर भयानक पर आ गईं हैं. अगर आप विकराल और भयानक के बीच अंतर समझते हैं तो समझ जाएंगे.

संगम पार्क के नरेश और हरीश हमारे स्टुडियो में मेहमान हैं. इनके घरों तक पहुंचने से पहले कचरे के ढेर को नमस्कार करना ही पड़ता है. गंदगी कम हुई है मगर अभी भी है. नरेश, उसकी पत्नी और दो बच्चों का परिवार एक कमरे के घर में रहता है. घर के भीतर शौचालय नहीं है. एक शौचालय बाहर है जिसे तीन परिवार इस्तमाल करते हैं. टॉयलेट में बिजली नहीं है. 28 साल के नरेश पिछले 9 साल से गटर साफ कर रहे हैं. नरेश भी मंडी घंटाघर में गटर साफ करते वक्त गैस लगने से बेहोश हो गए थे. चार दिन बाद जब अस्पताल से लौटे तो फिर से वही काम करने लगे. एक दिन की कमाई 250 रुपये है. दिल्ली में स्किल्ड लेबर की न्यूनतम मज़दूरी 622 रुपये है जबकि इन्हें 250 रुपये मिलते हैं. ठेकेदार सरकार से इन मज़दूरों के लिए महीने के हिसाब से वेतन लेता है मगर इन्हें दिन के हिसाब से देता है यानी जिस दिन सरकारी छुट्टी होती है उस दिन पैसा नहीं मिलता है.

हरीश 18 साल से गटर की सफाई कर रहे हैं. 100 रुपये से काम शुरू किया था, 2000 में 125 रुपये हुए, उसके पांच साल बाद यानी 2005 में पचीस रुपया बढ़कर 150 रुपया और फिर सात साल बाद पचास रुपया बढ़कर 200 रुपया हुआ. इस दौरान दिल्ली की कितनी आबादी बढ़ी, दिल्ली के गटर में कचरा कितना बढ़ा इसका हिसाब लगाएंगे तो पता चलेगा कि आज़ाद भारत में आज भी दास प्रथा चल रही है. 12 साल में मज़दूरी 100 से बढ़कर 200 रुपये होती है जबकि इस काम में कितना जोखिम है, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है. हरीश के पास दो कमरे का घर है. इस घर में उसके माता पिता, कम उम्र के चार भाई और हरीश के तीन बच्चे यानी दो कमरे के घर में 10 लोग रहते हैं. हरीश की भी जान जाते जाते बची है. आप भारत माता के इन सपूतों की आर्थिक और रिहाइश स्थिति देख सकते हैं.

अदालतों ने कई आदेश दिए हैं जो सफाईकर्मियों के हक में हैं. 2008 में मास हाई कोर्ट का फैसला भी है कि सीवर की हाथ से सफाई नहीं होगी. उसके अगले साल भी चेन्नई में सीवर साफ करते हुए एक व्‍यक्ति की मौत हो गई. अंग्रेजों ने हर शहर को सीवर लाइन के हिसाब से अपने लिए बांट दिया. मद्रास में तो व्हाईट टाउन और ब्लैक टाउन बन गया. ब्लैक टाउन में शहर को साफ करने वाले रहने लगे. ज़्यादातर दलित थे. दुनिया के किसी भी शहर में जहां सीवर लाइन बिछी है वहां साफ करने वालों को इसी निगाह से देखा गया है. उनके साथ भेदभाव और छुआछूत किया गया है. यह अंतर आज भी मौजूद है अगर हम चाहें तो दिख सकता है. मद्रास की तरह दिल्ली में भी सीवर लाइन अमीरों के इलाके में बिछी. आज भी यही हालत है. तब भी सीवर लाइन महंगी थी, आज भी इसे बिछाना काफी महंगा है. दिल्ली में डेढ़ लाख मैनहोल हैं और पांच हज़ार किलोमीटर से ज्यादा लंबी सीवर लाइन है.

सफाई पर हिन्दी में लिखी यह एक मात्र पुस्तक है जिसे हिन्दी के पाठक काफी कुछ जान सकते हैं. सोपान जोशी की किताब 'जल थल मल' से एक जानकारी बताता हूं. हम लंदन की टेम्स नदी की बात बहुत करते हैं मगर इसी नदी में एक और नदी मिलती थी फ्लीट. 17वीं सदी से पहले फ्लीट नदी में नावें तैरती थीं, लेकिन उसके बाद मैला पानी बहने लगा. धीरे-धीरे नदी नाले में बदल गई और उसे पाट दिया गया. नदी मिट गई और इस जगह का नाम पड़ा फ्लीट स्ट्रीट. लंदन के अखबारों का यह दफ्तर है. अवधेंद्र शरण ने भी इस पर अच्छा काम किया है उनकी किताब in the city out of place... oxford university से आई है जिसमें दिल्ली के नागरिक प्रबंधन के बीते डेढ़ साल का इतिहास बारीक जानकारियों के साथ दिया गया है. वैसे आप विजय प्रसाद की किताब untouchable freedom भी शानदार है. विजय प्रसाद ने बताया है कि दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन ने बीसवीं सदी के शुरू में सफाई के काम को ठेके पर देना शुरू कर दिया मगर ठेकेदारों की लूट के कारण सफाई में सुधार नहीं हो सका. 1915 में बहुत सारे ठेकेदार हटा दिए गए जिसके विरोध में ठेकेदारों ने हड़ताल की थी. इस काम में जमादारों की तब भी चलती थी आज भी चलती है. तब 1933 में स्वीपर बनने के लिए दो महीने की सैलरी जमादार को रिश्वत के तौर पर देनी पड़ती थी ताकि काम मिल सके. यह भी पता चला कि अंग्रेज़ों के टाइम में दिल्ली नगर निगम गर्मियों में कम सफाईकरमी रखता था, क्योंकि अफसर लोग शिमला चले जाते थे, सर्दियों में साहब लोग लौटते थे तब सफाईकर्मियों की संख्या बढ़ जाती थी.

ये किस्से इसलिए बता रहा हूं ताकि अपने शहर की सफाई व्यवस्था को जानने की दिलचस्पी पैदा हो. जैसे पेरिस की सड़कों पर इतना मैला होता था मल मूत्र की हाई हील का फैशन चल पड़ा. हाई हील के लोकप्रिय होने में एक कारण यह भी बताया जाता है ताकि पतलून की मोहरी में मल मूत्र न लगे. डॉ. आशीष मित्तल ने तो लंबे समय तक गटर में उतर कर सफाई करने वालों पर काम किया है. उनकी बीमारियों का हाल जाना है. हम कभी डॉ. आशीष मित्तल से भी बात करेंगे. डॉ. आशीष भी प्रैक्सिस की रिपोर्ट डाउन दि ड्रेन का हिस्सा थे. 200 सीवर साफ करने वालों का अध्ययन कर डॉ. मित्तल ने बताया है कि...

- अगर हाईड्रोजन सल्फाइड की मात्रा अधिक है तो एक बार सांस लेने से ही मौत हो जाएगी
- मरने वालों का पैटर्न ऐसा है कि एक साथ तीन मरते हैं
- एक जब नहीं आता है तो दूसरा जाता है उसे देखने तीसरा जाता है
- दिल्ली में एक जूनियर इंजीनियर की भी मौत हो चुकी है
- 80 फीसदी सीवर साफ करने वाले रिटायरमेंट एज तक नहीं पहुंच पाते हैं
- उन्हें कई तरह की बीमारियां घेर लेती हैं और समय से पहले मर जाते हैं


सीवर में हाईड्रोजन सल्फाइड, अमोनिया, मिथेन, कार्बन डाइआक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैस होती हैं. गैसोलीन और मिनरेल स्पीरीट जैसे पैट्रोलियम पदार्थों का निष्कासन भी सीवर गैस नुकसान बढ़ाता है. अगर कम स्तर पर इन केमिकल्स की चपेट में आएं तो आंखों में जलन, खांसी और गले में खराश, दम घुटना और फेफड़ों में तरल पदार्थ भर सकते हैं. ज़्यादा देर तक इनके चपेट में रहे तो थकान, निमोनिया, भूख ना लगना, सिरदर्द, जलन, याद्दाश्त कम होना, चक्कर आने जैसी बीमारियां हो सकती हैं. लंबे समय बाद गंभीर बीमारियां भी हो सकती हैं. टीकाकरण बहुत ज़रूरी है इन सीवेज कर्मचारियों के लिए क्योंकि वायरस होता है कचरे में. टेटनस का टीकाकरण, हेपेटाइटिस A, हेपेटाइटिस B और टाइफाइड का टीका. 58 में से सिर्फ 5 का.

स्वच्छता पर हिन्दी में लिखी मेरी एक पसंदीदा किताब है. जल थल मल. इस किताब के कुछ प्रसंग सुनाना चाहता हूं. भारत में ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी बस्तियों को साफ रखने के लिए सीवर बनाए. उसके लिए ज़रूरी जितना धन भी लगाया लेकिन भारतीय लोगों की बस्तियों में सीवर की नाली डालने से वह कतराती रही. दिल्ली में सीवर का इतिहास जानने वाले बताते हैं कि अंग्रेज़ अफसर तरह तरह के बहाने बनाते थे ताकि भारतीयों की बस्ती पर खर्चा न करना पड़े. 1912 में दिल्ली के एक सरकारी दस्तावेज़ में पुरानी दिल्ली के एक स्वास्थ्य अधिकारी कहते हैं कि कवेल धनी वर्ग के लोगों के घरों के सीवर की नाली से जोड़ना चाहिए क्योंकि दूसरे लोग इसका खर्चा नहीं उठा सकते हैं. सीवर से निकला मैला पानी किसानों को सिंचाई और खाद के लिए बेचा जाता था. इस कमाई में अंग्रेज शासन की रुचि थी. मैले पानी की दुनिया के कई देशों में किसानों को सिंचाई के लिए बेचा जाता था. यह शायद तब से हो रहा है जब से मैले पानी की नालियां बन रही हैं. कई जगह आज भी ऐसा होता है.


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