दर्द-ए-दिल्ली पार्ट-1 : आउटडेटेड आइडिया और सड़क छाप ट्रैफ़िक मैनेजमेंट

दर्द-ए-दिल्ली पार्ट-1 : आउटडेटेड आइडिया और सड़क छाप ट्रैफ़िक मैनेजमेंट

प्रतीकात्मक तस्वीर

नई दिल्ली:

अगर आप दक्षिण दिल्ली के मूलचंद से सराय काले ख़ां तक शाम में यानि पीक आवर में चलें तो पता चल जाएगा कि दिल्ली के प्रदूषण की सबसे बड़ी वजहों में से एक क्या है। वो है बेहद ख़राब ट्रैफ़िक मैनेजमेंट। नतीजा ये है कि दिल्ली की सड़कों पर आपको असल जंगलराज दिखेगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस, सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट और देवदत्त पटनायक जिसे आजकल मत्स्य न्याय बताते हैं, जो भी मुहावरा इस्तेमाल करें।

बड़ी गाड़ी छोटी गाड़ी को हड़काती है, प्रेशर हॉर्न वाले मामूली हॉर्न वालों के कान के पर्दे छेदते रहते हैं, लंपट ड्राइवर बेतहाशा ओवरटेक करते हैं और जो नौसिखिया है वो दुबक कर पीछे आ जाता है। लेकिन इन सबके बाद भी अगर आपको लगता है कि रिंग रोड के दबंग बहुत आगे चले जाते हैं तो फिर आप ग़लत सोच रहे हैं क्योंकि वो हज़ारवें पोज़ीशन से नौ सौ नब्बे पोज़ीशन पर आते हैं। तो क्यों हो रहा है ऐसा? कई सालों से कई एक्सपर्ट से इन मुद्दों पर बात करके, इंटर्व्यू करके और इन सड़कों पर आते जाते जो दर्द-ए-दिल हुआ उन्हीं में से कुछ को बदल रहा हूं दर्द-ए-दिल्ली में।

चार दूना छह ?
तो मूलचंद और सराय काले ख़ां के बीच दो फ़्लाइओवर हैं, जिनसे उतरते हुए आपको पता चलेगा कि दिल्ली की सड़कों पर क्या क्या ग़लत चल रहा है। जब आप पुल से उतरते हैं तो बाईं तरफ़ नीचे से आने वाले ट्रैफ़िक से जुड़ते हैं। लेकिन जुड़ कर आगे नहीं जाते रुक जाते हैं। क्यों? फ़्लाईओवर पर दरअसल तीन लेन बने हैं, जिन पर से लगभग साढ़े तीन की गाड़ियां नीचे आती हैं। फिर नीचे बाईं तरफ़ के तीन लेन में से भी लगभग चार लेन की गाड़ियां उतरती हैं।

तो फ़्लाईओवर के आख़िर में सात से आठ लेन के बराबर गाड़ियां, जिनमें बसें भी शामिल होती हैं, मिलती हैं। लेकिन आगे का गणित कैसा है? तो यहां पर आप पांच से छह लेन की कुल गाड़ियां निकाल सकते हैं, क्योंकि बाईं तरफ़ बस स्टॉप भी हैं। तो फिर सोचिए कि सात से आठ लेन की गाड़ियां इतनी से जगह में कैसे अटेंगी? तो पहली का बच्चा भी जवाब दे सकता है, कि नहीं अटेंगी। और वही होता भी है, इसीलिए दिल्ली अटक अटक कर चलती है। और अब इस मंज़र को दिल्ली के बाक़ी इलाक़ों में अप्लाई कीजिए। दृष्य और वीभत्स हो जाएगा।

शीला दीक्षित सरकार के वक़्त दिल्ली के फ़्लाईओवर दिल्ली के शान और सरकार की उपलब्धियों के तौर पर गिनाए गए थे। और आज पीक आवर में यहां दहशत होती है।

रेडलाइट वापस लाओ ?

दिल्ली में ट्रैफ़िक को लेकर एक से एक तजुर्बे हुए हैं और ज़्यादातर में दो ही बात निकल कर आई है। एक तो राजनैतिक विज़न की कमी और दूसरी सेकेंड हैंड और आउटडेटेड प्लानिंग। बीआरटी का बवाल हम देख चुके हैं। हमारे टैक्स के पैसों का क्या हश्र किया गया। चलेगा नहीं, चलेगा के साउंडबाइट ने तो हम न्यूज़ वालों की ज़िंदगी आसान की, लेकिन दिल्लीवालों की ज़िंदगी ख़राब कर दी। वैसा ही एक आइडिया था कि दिल्ली के रिंग रोड को रेड लाइट फ़्री कर दिया जाएगा। सुन कर तो ऐसा लगा कि दिल्ली की सड़कें जर्मनी की ऑटोबान बन जाएंगी। लेकिन हुआ क्या? चौबे गए छब्बे बनने दूबे बन कर लौटे।

आज की स्थिति क्या है? बिना रेडलाइट के हम उतना रुक रहे हैं जितना रेडलाइट पर नहीं रुकते थे। और सरकारी विज़न ऐसा आलसी हो गया है कि किसी को ये नज़र नहीं आ रहा है, पूरी दिल्ली थम जाती है, लेकिन इंजन चालू रहते हैं। इससे बढ़िया तो ये कि आउटडेटेड आइडिया को हटाएं और रेडलाइट लगाए जाएं। कम से कम लोग साठ सेकेंड के लिए गाड़ी बंद करके निश्चिंत तो होंगे? वक़्त उतना ही लगेगा लेकिन धुआं तो कम होगा?

चौड़ी सड़कों का धोखा
दिल्ली में जो भी पिछले पांच-दस सालों में रहा है उसने अपने आसपास की हरेक सड़क को चौड़ा होते हुए देखा है। मतलब ऐसे युद्धस्तर पर सड़कें चौड़ी की जा रही थीं कि लग रहा था कि एक बार ये सड़कें चौड़ी हो जाएं तो दिल्लीवालों को मोक्ष ही प्राप्त हो जाएगा। गज़ब की हवा थी उस वक़्त। मैं भी वही सोचता था, लेकिन ट्रैफ़िक एक्सपर्ट से लगातार बात करने से पता चला कि कैसे सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर आलसपना छाया हुआ है। बिना ये सोचे कि सड़कों की चौड़ाई से असल में हासिल क्या होगा, दिल्ली में ये काम चलता रहा।

अब पहले नज़ारे पर वापस जाएंगे तो बात समझ में आएगी जो कई एक्सपर्ट कह रहे थे। वो ये कि अगर फ़्लाईओवर पर सिर्फ़ तीन लेन गाड़ियां चलें, और नीचे से दो लेन की गाड़ियां चलें तो फिर कौन अटकेगा? कोई नहीं। क्योंकि कुल पांच लेन की गाड़ियां आगे पांच लेन में ही जाएंगी। यानि सड़कों को चौड़ा करके तब तक कोई फ़ायदा नहीं होगा जब तक की सभी सड़कें बराबर चौड़ी नहीं होंगी। जहां भी बीच में रुकावट आएगी, राजधानी की अठासी लाख गाड़ियां रुकेंगी और प्रलय आएगा। तो सभी सड़कों को बराबर चौड़ा किया जाए, जिससे फ़्लो बराबर हो... और अगर नहीं तो फिर चौड़ी सड़कों को वापस पतला कीजिए। ट्रैफ़िक एक नदी की तरह बढ़ती है, जहां रुक जाएगी सिर्फ़ तबाही मचाएगी, बिजली नहीं बनाएगी।

साइकिल फ़ास्ट है या बस ?
अब एक कठिन सवाल। बताइए कि एक बस और साइकिल में कौन सी सवारी तेज़ चलती है ? तो आप क्या, एक पांच साल का बच्चा भी कहेगा कि बस। लेकिन हम पर राज करने वाले बाबू लोग और नेता लोग ऐसे विज़नरी हैं कि साइकिल रिक्शा, साइकिल, ठेला, जुगाड़ और ऐसे ही सभी सवारियां, जिन्हें नॉन-मोटराइज़्ड गाड़ियां कहते हैं उनके लिए सबसे बायां लेन रख छोड़ा है। जो दरअसल बस लेन है। और ये सब मिल कर एक ऐसा फ़लूदा बनता है जिसे हम दिल्ली की सड़क कहते हैं। जिसमें स्पेशल फ़्लेवर मिलता है हमारी सोच का, और हमारे हुक्मरानों के विज़न का।

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