अस्पताल में भर्ती कृष्ण मोहन तिवारी।
पुलिस! देश के किसी भी राज्य में यह शब्द सुनते ही हमारी बेचैनी तो बढ़ ही जाती है। जैसे ही उनका सायरन सुनाई देता है, आशंका मन में घर कर जाती है। पुलिस आई है! सुनने के बाद क्या हम सहज रह पाते हैं। नहीं । कम से कम वो लोग जो आम जनता में गिने जा सकते हैं, उनके लिए पुलिस एक डर है। बल्कि डर का संवैधानिक पर्यायवाची है, पुलिस। हम पत्रकारों के बारे में आम जनता में मुगालता भले ही हो कि पुलिस इनके साथ फ्रैंडली है, लेकिन वह सभी पत्रकार साथी जो अब भी खबर अपने हिसाब से लिखते हैं, प्रेस नोट के लिहाज से नहीं, हमेशा ही पुलिस के राडार में आने की आशंका पाले रहते हैं। लेकिन जिनसे कोई बैर ही न हो, वह कैसे किसी हिंसा की लपेट में आ सकता है?
बिल्कुल आ सकता है। आतंकवाद की चपेट में कौन और कैसे आता है? क्या, आतंकवाद का कोई घोषित शत्रु है, नहीं। आतंक का शत्रु हमेशा ही सॉफ्ट टारगेट होता है। जिनकी आवाजें दूर तक जाने का भ्रम तो हो, लेकिन जाती न हों...
सोमवार की देर रात अखबार के पन्ने को आखिरी बार, बार-बार पढ़ते हुए, तथ्यों को जांचते हुए विजय प्रभात शुक्ल और कृष्ण मोहन तिवारी (केटी) ने सोचा नहीं होगा कि आतंक कैसे उनका उनके घर के पास ही इंतजार कर रहा है। ( पढ़ें- भोपाल पुलिस का बर्बर चेहरा : पत्रकारों को सिमी का आतंकवादी बताकर की पिटाई ) इस बार आतंक उनके कपड़े पहने हुआ था, जिन्हें हमारा रक्षक कहा जाता है। 'संवेदी पुलिस', थाने के माथे पर यही स्लोगन है...
मैं यह लिखते हुए भी कांप रहा हूं कि जब थाने में विजय और केटी को डंडों और लात-घूंसों से पीट जा रहा था तो वह क्या सोच रहे होंगे। उन पर क्या गुजर रही होगी। कैसे वह उन वहशी पुलिस वालों का सामना कर रहे होंगे। उनकी गालियों को सह रहे होंगे! सोचिए, अगर विजय और केटी हिंदू न होते तो ! हो सकता है, अवधपुरी के किसी नाले में वह ऐसी हालत में मिलते, जिसके बाद हम कुछ नहीं कर पाते। इसे कथित रूप से टूरिज्म फ्रैंडली और शांति का टापू कहे जाने वाले प्रदेश की शांति व्यवस्था और पुलिस के रवैए की प्रतिनिधि घटना के तौर पर देखा जाना चाहिए।
विजय और केटी दिखने में एकदम मामूली लोग है। वैसे ही मामूली, जैसे इन दिनों हमारी फिल्म इंडस्ट्री के दो सबसे प्रतिभाशाली अभिनेता इरफान और नवाजुद्दीन अपने किरदारों में दिखने की कोशिश कर रहे हैं। अगर आप ऑडियो ( जो यहां उपलब्ध नहीं है,फेसबुक पर है) को ध्यान से सुनेंगे तो पाएंगे कि इसमें विजय की आवाज कितनी नजाकत लिए हुए है। वह कह रहे हैं, हमारी बात तो सुनिए, हमने तो कुछ कहा ही नहीं... ऐसा लग ही नहीं रहा है कि वह जान की भीख मांग रहे हैं। लग रहा है, जैसे न्यूजरूम में संपादक से अपनी खबरों के लिए जगह चाह रहे हों। इतनी नफासत तो इन दिनों न्यूज ट्रेनी में भी नहीं होती। क्या इसीलिए यह हादसा और उत्पीड़न उनके साथ हुआ।
विजय की आवाज में कोई गुस्सा नहीं है। पत्रकार होने का कोई अभिमान उनके स्वर में है ही नहीं। विजय के स्वर में एक कातर सफाई है, बल्कि कहीं दयाभाव की याचना भी है। डर के आगे जीत है... यह टीवी ब्रेक में अच्छा लगता है, लेकिन जब डर अत्याचार में बदल जाता है तो जानलेवा हो जाता है।
विजय हमेशा से ही ऐसे हैं। कोई एक दशक पहले जब पहली बार हम कैंपस में मिले तो भी वह ऐसा ही थे। कोई कैसे दशकों तक एक जैसा हो सकता है, लेकिन वह ऐसे ही हैं। वह अपने अधिकार की बात भी इतनी विनम्रता से करते हैं कि हम कई बार इसे व्यक्तित्व विकास की समस्या समझ लेते हैं!
जिस बढ़ी दाढ़ी के आधार पर केटी को सिमी का आतंकी बताया गया, थाने में बुरी तरह पीटा गया। उस दिन तो विजय की वह दाढ़ी भी बढ़ी हुई नहीं थी, जिस पर वह अपनी नौकरी को कुर्बान करने को तैयार थे। यानी उन्होंने कभी भी क्लीन शेव्ड होने को महत्व नहीं दिया। हमेशा महत्व दिया, अध्ययन को। चिंतन और पठन-पाठन को। उनका मखमली स्वभाव कई बार उनके कॅरियर के आड़े आया, लेकिन विजय ने कभी उसकी परवाह नहीं की।
यह लापरवाही, विनम्र होने और अपने को अपने भीतर समटे रहने की आदत उन्हें एक दिन इस तरह भारी पड़ने वाली है, इसका कभी उन्हें अंदाजा तक नहीं रहा होगा।
मंगलवार रात भोपाल के एसपी ( साउथ) अंशुमान सिंह ने NDTV से कहा, 'विजय और केटी को मामूली चोटें आई हैं।' यह कैसा बयान था... अपने साथियों पर शर्मिंदा होने की जगह उस शक्ति का अपमान जो हमारी सेवाओं के लिए ही मिली है। मामूली चोट का क्या मतलब है? अंशुमान का रवैया वैसा ही था, जैसा मनोज कुमार की 'क्रांति' जैसी फिल्मों में पुलिस अफसरों का होता था। ऐसे रवैए वाले अफसर के सिपाही कैसे होंगे, यह एएसआई रघुबीर सिंह दांगी, हेड कांस्टेबल सुभाष त्यागी और संतोष यादव के हिंसात्मक तांडव से समझा जा सकता है।
पुलिस का यह रूप उनके अवचेतन और चेतन में सामान्य जन के प्रति हिंसा को उजागर करने वाला है। यह दोनों शायद इसलिए बच गए, क्योंकि पत्रकार थे। हिंदू थे। उनके कई मित्र और शुभचिंतक थे। लेकिन मैं अब तक डरा हुआ हूं कि अगर यह पुलिस के तीनों काबिल ‘अफसर’ नक्सलियों या सिमी के आतंकियों को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के आदेश से निकले होते तो क्या होता। विजय ने कल रात कांपती आवाज में कहा था कि मुझे न तो श्लोक आते हैं और न ही कुरान की आयतें! मैं क्या करता , केटी क्या करता अगर वो श्लोक या कुरान की आयतों पर आमादा हो जाते..
मुझे बाकी पत्रकारों, मित्रों का नहीं पता लेकिन विजय की कांपती आवाज का अब तक मेरे पास कोई जवाब नहीं है। आपके पास है क्या ....
-दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं।
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