भाजपा को असम में जो मिला है, इसे केवल सीटों और बहुमत से नहीं समझा जा सकता। इसे समझने के लिए असम से उत्तर भारत के उस ‘देश’ की ओर जाना होगा, जहां कुछ महीने पहले बेमेल गठबंधन ने उसे बुरी तरह से पटक दिया था। अगर भाजपा ने कोई आत्ममंथन किया होगा, तो पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि उसका एक ही निष्कर्ष रहा होगा ‘आत्महत्या’। बिहार में भाजपा ने अपना प्रचार विकास और सुशासन से बेहद सधे ढंग से शुरू किया था। लालू और नीतीश के मिलने के बाद यह नीति एकदम सही दिशा में बढ़ रही थी कि तभी गिरिराज सिंह की पाकिस्तान नीति और संघ प्रमुख मोहन भागवत की आरक्षण नीति के कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा। भाजपा की सुशासन नीति इस कदर पटरी से उतरी कि उसे गौमाता की शरण में जाना पड़ा। इस तरह सुशासन से शुरू हुआ सफर गौमाता पर जाकर थमा...
इसे आसान भाषा में समझिए कि जनता ने अपने जाने-पहचाने चेहरे को प्राथमिकता दी, उन पर जो उसे हर दिन नई सलाह दे रहे थे।
भाजपा को इस जीत की बधाई देते हुए हमें इस बात को प्रमुखता से रखना चाहिए कि उनके प्रबंधकों ने असम चुनाव में बिहार को नहीं दुहराया। असम में न केवल हिंसा और विवाद की भाषा से परहेज किया गया बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह के दौरे और बयान संतुलित रहे, जबकि बिहार में प्रधानमंत्री के अत्यधिक दौरे भीड़ तो खींचते थे लेकिन उन्होंने वोट जुटाने में किसी किस्म का योगदान नहीं दिया। भाजपा ने इसकी सीख को असम में लागू किया। हालांकि यहां यह बात कहते हुए हम प्रधानमंत्री की सोमालिया वाली टिप्पणी को खारिज नहीं कर सकते, लेकिन कम से कम असम में ऐसा कोई विवाद नहीं पैदा करने से भाजपा को लाभ ही हुआ। असम में भाजपा सुशासन और मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के 15 बरस पुराने राज पर हमले पर ही अपना ध्यान केंद्रित किए रही। स्थानीय चेहरों को नेत़त्व दिया गया। बिहार की तरह यहां कौन बनेगा मुख्यमंत्री की अटकलों और गुटबाजी के लिए समय नहीं दिया गया।
इस तरह भाजपा ने थके हुए दिखने वाले और चुनाव से पहले से हार मानने की मुद्रा में आ चुके मुख्यमंत्री गोगोई के खिलाफ बिना वजह की चीजों से विवाद पैदा नहीं करने और धार्मिक मामलों से दूर रहने का सराहनीय फैसला किया। NDTV.in के स्तंभकार रतन मणिलाल ने असम में कांग्रेस की हार का विश्लेषण करते हुए एक अहम बात की ओर भी इशारा किया कि मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में ही अपने जीवन पर आधारित किताब का विमोचन करने से यह संकेत गया था कि वह अपने राजनीतिक जीवन के अंत को महसूस कर चुके थे। इस किताब को उनके रिटायरमेंट की घोषणा के रूप में लिया गया। यह किताब उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल के लेखे-जोखे के रूप में लिखी गई थी और उन्होंने यह भी उल्लेख किया था कि चुनावी वादों को पूरा करना हमेशा संभव नहीं होता है। क्या ऐसे संकेतों ने भाजपा को आश्वस्त किया कि वह किसी भी तरह के आक्रामक और हिंसात्मक रवैए से दूर रहे।
वैसे अब असम बीत चुका है। इस जीत से भाजपा ‘घर’ क्या ले जाएगी, यक्ष प्रश्न यही है, क्योंकि उप्र के चुनाव बहुत दूर नहीं है। वहां नेताओं का चयन जिन योग्यताओं के आधार पर अभी किया गया है, वह हमें बहुत आश्वस्त नहीं करता, इसलिए इस वक्त जश्न में डूबे नेताओं को एक बात अच्छे से समझनी चाहिए कि जिस भारत माता के नाम पर पिछले दिनों देश-विदेश में बवाल मचा रहा, उसी भारत माता ने असम के रूप में भाजपा को स्पष्ट संकेत दिया है कि वह चाहती क्या है। उसकी अभिलाषा क्या है। जिनमें वह सांस लेती है, उसकी संतानों के असली प्रश्न क्या हैं... उनकी चिंता केवल उन्हें नहीं दी जा सकती जो अपने पुरखों और विरासतों की ‘नॉस्टेल्जिया’ में उलझे रहें। असम की जीत एक सम और स्पष्ट जनादेश है कि भारत माता क्या चाहती है.... और जो मां चाहती है.. उसे समझना और उस पर चलना भाजपा के साथ ही हम सबकी भी जिम्मेदारी है....
-दयाशंकर मिश्र khabar.ndtv.com के संपादक हैं।
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