आज के अखबारों की हेडलाइन देखने लायक थीं. विशेषकर देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक का दावा करने वाला हिंदी का एक प्रमुख अखबार... हद है, पागलपन की, सनक की. उस सौदेबाजी की जो सर्कुलेशन या पाठक संख्या बढ़ाने के नाम पर सनसनी के जरिए लोगों के घर और दिमाग में छाए रहना चाहते हैं. क्या सेना को देश की भावनाओं के लिहाज से काम करना चाहिए? क्या यह हमला इसलिए हुआ कि सोशल मीडिया पर अघाए हुए वीरों का सरकार पर असर पड़ा. यकीन मानिए अगर ऐसा होने लगा तो हम दूसरा पाकिस्तान ही बनेंगे, और कुछ नहीं. क्या आपको पाकिस्तान बनना है? पाकिस्तान की जगह आप कोई दूसरा मुल्क भी चुन सकते हैं, जहां सेना मुख्य संचालक की भूमिका में हैं और लोकतंत्र बंधक. सोशल मीडिया ने समाज का एक ऐसा प्रतिक्रियावादी वर्ग बना दिया है जो उचित-अनुचित का अंतर नहीं करता या फिर यह अंतर करना नहीं चाहता. वह तो आतंकियों के खिलाफ भारत की कार्रवाई को पाक के खिलाफ युद्ध में तब्दील होते देखना चाहता है. और मीडिया इन भावनाओं को सफलता से भुना रहा है.
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कुल मिलाकर हम पाकिस्तान बनने को बेकरार क्यों हुए जा रहे हैं. इसका किसी के पास कोई ठोस उत्तर नहीं है. उनकी सेना जैसी भारतीय सेना! उनके जैसा समाज, महिलाओं की आजादी, अशिक्षा जैसे समाज से सीधे जुड़े विषय. वैसे भी विरोधी के साथ जरूरत से ज्यादा और बात-बात पर उलझे रहने से हमेशा उसके जैसी आदतें आपके द्वारा अपना लिए जाने का खतरा तो बना ही रहता है. ठीक यही पाकिस्तान के साथ हो रहा है. क्या हम कभी इस बात को समझेंगे कि बड़ा खतरा किससे है. चीन, पाकिस्तान की तुलना में हमारा कहीं बड़ा प्रतिद्वंदी है. हर मोर्चे पर वह आपसे बेहतर होता जा रहा है. उसके वादे-इरादे समय-समय पर जाहिर भी होते रहे हैं लेकिन चूंकि उसमें धर्म का 'एंगल' नहीं है, जो हमारे मीडिया और खासकर चैनलों को लुभाए इसलिए अक्सर वह चीन से 'दूर' रहते हैं. यही हाल अधिकांश सरकारों का भी रहता है.
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'सर्जिकल स्ट्राइक' में कोई समस्या नहीं है. एकदम नहीं है. किसे होगी भला! आलोचना और विमर्श अगर है तो वह इस बात पर है कि इस 'सर्जिकल स्ट्राइक' में उन्माद क्यों मिक्स किया जा रहा है. क्या हमने अपने लोकप्रिय और लोकसभा में विशाल बहुमत वाले प्रधानमंत्री की बात को एकदम अनसुना करने का मन बना लिया है जिन्होंने जंग के खिलाफ दो टूक बात कही थी. कितनी स्पष्टता से प्रधानमंत्री ने कहा था कि जंग किसके खिलाफ होनी चाहिए. लेकिन हमने प्रधानमंत्री की बात पूरी तरह भुला दी.
कभी ऐसा वीर रस, भावना की तीव्रता और उत्साह गरीबी, अशिक्षा और उन विस्थापन जैसे मुददों के लिए देश के मीडिया और उन कथित लेखकों, वीर संपादकों में दिखा? नहीं! कभी नहीं क्योंकि तीखे प्रश्न कभी किसी को नहीं भाते. वैसे भी हमारी राजनीति और समाज दोनों ही संवादहीनता की ओर दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हैं.
हम कैसा समाज चाहते हैं, कैसे नेता चाहते हैं? क्या राजनीति बस उन्हीं स्वरों की पीड़ा सुनती है जो सोशल मीडिया पर कांव-कांव करते रहते हैं. कभी गांव-देहात का भी रुख करिए. उनके घरों की ओर निकल जाइए जो इस देश में बस वोट करने के लिए पैदा हुए हैं. उस असंख्य जनसमूह का क्या जो शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी सेवाओं के लिए तरस रहा है. उनका हिंसा और उन्माद से कोई सरोकार नहीं है. भारतीय मीडिया और खासकर हिन्दी के चिंतकों और संपादकों के पास विषय और शिक्षा की खासी कमी दिखती है. इसलिए वह कभी युद्ध, कभी मंदिर- मस्जिद और अक्सर दंगों की सुर्खियों की तलाश में रहते हैं.
मीडिया कभी क्रिकेट को एक उन्माद में बदलने की ताक में रहता है तो कभी किसी भी सूरत में भारत - पाकिस्तान के रिश्तों की इबारत में सनसनी मिलाने से पीछे नहीं हटना चाहता. वह हमेशा स्याही की जगह खून की फिराक में रहता है! क्या इसे हम देश प्रेम और देशभक्ति कहेंगे. एक ओर हम जंग के खिलाफ 'नोबेल' भाषण सुनते हैं तो दूसरे ही रोज करोड़ों रुपये के राफेल की खबरों के बीच खुद को पाते हैं. ऐसे देश में जहां लोग डेंगू और मलेरिया से मर रहे हैं और अब तो चिकनगुनिया से भी, वहां के लिए जरूरी क्या है... क्या यह रॉकेट विज्ञान जितना जटिल है कि हमारे नीति निदेशकों को समझ में नहीं आ रहा है?
मनुष्य की मनुष्य के प्रति संवेदना एक सहज और बुनियादी प्रवृत्ति है जबकि युद्ध मनुष्य के प्रति घोषित अपराध. युद्ध एक विशुद्ध कारोबारी गतिविधि है. पाकिस्तान की मकबूल शायर फ़हमीदा रियाज़ ने कहा है....
अमन किसलिए लाएं,
खत्म किसलिए कर दें
ये जो अरबों का कारोबार क़ायम है
जंग की बदौलत जो हम नियाज़मंदों का रोज़गार क़ायम है
बीसवीं सदी के महानतम लेखकों में से एक ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफन स्वाइग की यह आत्मकथा 'वो गुज़रा ज़माना' विश्व साहित्य की प्रमुख धरोधरों में से एक है. इस किताब में फासिस्ट ताकतों के आरंभिक विचारों से लेकर दुनिया पर कब्जे की सनकों का विस्तार और सिलसिलेवार ब्योरा है. इसमें नाजियों की बर्बरता के साथ उनके उन दबे-छुपे संकेतों पर विस्तार से चर्चा है जिसे हर समाज को उसकी शुरुआत में ही पकड़ लेना चाहिए. मेरी राय में यह किताब हम सभी को चाहे वे युद्ध के विरुद्ध हों या इसके समर्थन में पढ़नी ही चाहिए. इस किताब की विस्तार से चर्चा फिर कभी, अभी बस इतना ही कि जंग का नशा अफीम के नशे से भी खतरनाक होता है. यह किसी भी देश और समाज के लिए कभी भी, किसी भी स्थिति में फायदे की बात नहीं है.
अखबार और मीडिया की गुरुवार और शुक्रवार की हेडलांइस से समाज के हितों का कोई लेना-देना नहीं है. यह बस एकाकी राग है, मूल विषयों से ध्यान भटकाने और जंग के उस बेसुरे राग को छेड़ने का जिसका कोई लक्ष्य मनुष्य से जुड़ाव नहीं रखता. मनुष्यता और जंग परस्पर विरोधी स्वर हैं. यह नशा एक बार दिमाग में बैठाने के बाद आपकी रगों में लहू की जगह उन्माद दौड़ने लगेगा, शिक्षा, सेहत और अमन की जगह ख्वाब में बस और बस बदले का खोखला विचार दौड़ने लगेगा. यह सब उन गांधी के बिल्कुल खिलाफ होगा, जिन्हें राजघाट पर अकेला छोड़कर हम सब उस ओर दौड़ रहे हैं, जिस ओर जाने की सबसे ज्यादा मनाही उन्होंने की थी. भारत तेजी से हथियारों की मंडी बनने की ओर बढ़ रहा है. वह अहिंसा और सुलझे हुए समाज से हटकर सनकीपन में उलझे, हथियारों की होड़ में शामिल समाज बन रहा है, जिसकी तरफ फ़हमीदा रियाज़ ने इशारा किया है.
ऐसे समय में जब सोशल मीडिया पर युद्ध का घोष बार-बार किया जा रहा था, मीडिया उन्माद के गीत गा रहा था, तब हमने एक विचारपरक, संतुलित लेख सीरीज #युद्धकेविरुद्ध का प्रकाशन किया. मैं बेहद प्रसन्नता के साथ आपसे इस तथ्य को साझा कर रहा हूं कि इस सीरीज में बहुआयामी विश्लेषण हमारे लेखकों ने दिए. इन लेखों में विध्वंस के विरुद्ध समाज को रोशनी देने का संदेश था. सभी लेख आप
यहां पढ़ सकते हैं.
मैं फिर स्पष्ट करना चाहता हूं कि हम ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ या सरकार के किसी कदम के खिलाफ नहीं हैं. हम बस उस युद्ध के विरुद्ध हैं जिसका प्रचंड विरोध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने भाषण में बेहद ठोस, स्पष्ट तरीके से किया था. चलते-चलते मैं आपको हमारे प्रिय लेखक दुष्यंत कुमार के साथ छोड़े जा रहा हूं, वह जिस खतरे से हमें आगाह करना चाह रहे थे, वही मंजर सामने आने लगे हैं...
दयाशंकर मिश्र Khabar.ndtv.com के संपादक हैं.
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