दिल्ली की एक शाम के कई अलग रंग- कला से शीरोज़ के संघर्ष तक

आम तौर पर अपराध की राजधानी बताई जाने वाली दिल्ली एक स्तर पर संस्कृति की भी राजधानी है- यह बात अक्सर मीडिया को दिखाई नहीं पड़ती

दिल्ली की एक शाम के कई अलग रंग- कला से शीरोज़ के संघर्ष तक

आम तौर पर अपराध की राजधानी बताई जाने वाली दिल्ली एक स्तर पर संस्कृति की भी राजधानी है.

नई दिल्ली:

आम तौर पर अपराध की राजधानी बताई जाने वाली दिल्ली एक स्तर पर संस्कृति की भी राजधानी है- यह बात अक्सर मीडिया को दिखाई नहीं पड़ती. लेकिन अमूमन किसी भी शनिवार-इतवार आप शहर में निकल पड़ें तो एकाध विचारोत्तेजक सेमिनार, नृत्य और संगीत की एकाधिक प्रस्तुतियां, कुछ कला-प्रदर्शनियां और कुछ नाटक आपको ज़रूर मिल जाएंगे जहां आपको एक अच्छी सी शाम गुज़ारने का एहसास हो सकता है.

इस रविवार की शाम मंडी हाउस की सैर ऐसे ही एक अनुभव की तरह आई. त्रिवेणी में जयपुर आर्ट समिट की सूचना कलाकार विक्रम नायक की वॉल पर थी जिसे मैं भूल चुका था. वहां पहुंच कर इस प्रदर्शनी का ख़याल आया. 'क्रॉस बोर्डर कनेक्ट' नाम की इस प्रदर्शनी में भारत के अलावा बांग्लादेश, दक्षिण कोरिया और श्रीलंका तक के कुछ कलाकारों के काम शामिल थे. अक्सर ऐसी जगह पहुंच कर दो तरह के एहसास होते हैं- पहली बात तो यह कि कलाओं के व्याकरण से हमारा परिचय लगातार कितना क्षीण होता जा रहा है जबकि कलाएं कम के कम उपलब्धता के लिहाज से इंटरनेट क्रांति की मार्फ़त पहले के मुकाबले बड़ी आसानी से सुलभ हो रही हैं. दूसरी बात यह कि भारतीय कला का परिदृश्य लगातार कितना विविध और व्यापक होता गया है. दुर्भाग्य से इस कला की आलोचना हमारे यहां बस कुछ सुसंस्कृत हिंदी में दिखने वाले भाववादी उच्छवास से आगे नहीं जा पाई है. जबकि हमारे लगातार भागते-फिसलते माध्यमबहुलता के मारे समय में स्थिर कला रूपों को नए सिरे से परखने-जांचने की ज़रूरत है.
 

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कला-प्रदर्शनी-ट्रेन की खिड़की से टंगे दूध के बर्तन और गायें मौजूदा माहौल में एक अलग सा असर छोड़ते हैं.



बहरहाल, अपनी सीमित समझ के बावजूद कई कलाकृतियों ने मेरा ध्यान खींचा. हमेशा की तरह विक्रम नायक ने अपनी गझिन रेखाओं के साथ प्रभावित किया. वे हाथी बनाते हैं तो उसके साथ पूरी परंपरा भी चली आती है. ध्यान से देखने पर पृष्ठभूमि में मेहराबों वाले घर दिखाई पड़ते हैं- एक हाथी और मिलता है. यही बात उनके नंदी के बारे में कही जा सकती है. शायद किसी पेंटिंग के बारे में लिखने का यह बहुत ठस्स ढंग है, लेकिन मूल बात यह है कि इस पेंटिंग के भीतर आपको कई परतें दिखती हैं. मेरे लिए किसी रचना का, किसी कलाकृति का एक बड़ा मोल इस बात में भी निहित है कि उसमें मुझे कितनी तहें, कितनी परतें मिलती हैं, देखने को कितने दृश्य, अंदाज़ा लगाने को कितनी आकृतियां और पहचानने को कितने रंग और चेहरे मिलते हैं.
 
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इस लिहाज से इस समिट में राजीव महाला का श्वेत-श्याम काम 'अनट्रुथ मेमोरी' मेरे लिए किसी उत्सव से कम नहीं रहा. राजीव एक स्कूली बैग बनाते हैं और फिर जैसे उसके ऊपर पूरा शहर लाद देते हैं- इस शहर में ठेलेवाले, खोमचेवाले, तरह-तरह की गाड़ियां- कारें-जीपें, ट्रेनें, रेल की पटरियां और पुल तक हैं. मकान, मीनारें, सीढ़ियां, मेहराबें- इतना कुछ है कि आप देखते रहें, खोजते रहें और हैरान हों कि एक छोटे से आकार के कागज़ पर कैसे एक पूरा शहर अपने सारे जाल-जंजाल के साथ उतर आया है. इसमें अगर आपको कोई अर्थ दिखता हो तो अपने लिए खोजें, लेकिन इसको देखने का अपना आनंद है.

हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि अच्छी पेंटिंग वह हो जिसमें ब्योरे ठुंसे पड़े हों, कई बार तहें बस एक इशारे से, एक रेखा से, एक हल्के रंग से भी बन सकती हैं. इस तरह की कई पेंटिंग्स भी प्रदर्शनी में हैं. ट्रेन की खिड़की से टंगे दूध के बर्तन और गायें मौजूदा माहौल में एक अलग सा असर छोड़ते हैं. धुनी हुई रूई जैसे सफ़ेद बादलों से सजे नीले आकाश के नीचे साइकिल पर दूध के कई बर्तन टांगे आदमी के सिर पर टिका घर भी कई अर्थ पैदा करता है.

तरह-तरह के अर्थ खोजने का यह आनंद प्रदर्शनी के दूसरे कलाकार भी मुहैया कराते रहे. दो-दो घोड़ों को साधने में लगा कोई हमारा शक्तिशाली पुरखा- कोई आदिम मानव आलोक भट्टाचार्य के गहरे रंगों में अपनी एक छाप छोड़ता है. रंगों और आकारों में असंभव लगती कल्पनाएं पिरोते हुए, मिथकों के व्याख्याबहुल संसार से लेकर मन के भीतर के अव्याख्येय विस्तार तक- सबकुछ को अभिव्यक्तिसंभव करते हुए- और शहरों और सरहदों के आरपार कला का साझा और वैविध्य टटोलते हुए- अमृत पटेल, अंजनी रेड्डी, अनिल बोदवाल, धर्मेंद्र राठौर, आर चौरसिया, आरबी गौतम, सोहम राहा, मनोज मोहंती, रुब्रिकांत वोहरा, तनीषा बख़्शी, तनु प्रकाश, विनोद शर्मा और विक्रांत भिसे जैसे कलाकार सरहदों के आरपार की कोमलताएं, छटपटाहटें, स्मृतियां, राग-विराग- सब लेकर उपस्थित थे। पेंटिंग्स के शिल्प में तोड़फोड़ भी जगह-जगह थी जो इन दिनों आम है.
 
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समिट के दौरान हर रोज़ किसी न किसी विषय पर बात भी होती रही. रविवार का विषय था- इंटरनेट के दौर में कलाएं.यह देखना बहुत हैरान करने वाला नहीं था कि इंटरनेट ने कला के बाजार के लिए जो अकूत संभावनाएं पैदा की हैं, उसको लेकर कलाकार बेहद उत्साहित हैं. लेकिन इंटरनेट एक माध्यम के तौर पर कला-सृजन की कौन सी नई चुनौतियां पैदा कर रहा है, वह किस तरह देशकाल और दुनिया को इस तरह सिकोड़ रहा है कि कला का अवकाश ही न बचे- यह चिंता कम कलाकारों में दिखाई पड़ी. 

त्रिवेणी की इस प्रदर्शनी से लगी दूसरी उपलब्धि थी ज्ञान सिंह के कलाशिल्पों की प्रस्तुति देखना। ज्ञान सिंह जाने-माने वास्तुशिल्पी हैं और पत्थरों को तराश कर तरह-तरह की शक्लें देते हैं. गणेश के तरह-तरह के रूपाकार, मनुष्यों की अलग-अलग छवियां, शिवलिंग, यहां तक कि पत्थर तराश कर बनाया गया कुत्ता भी- उनके हाथों और काम का सधाव दिखाते हैं. पत्थरों में गहरे आशय उकेरना आसान काम नहीं होता, लेकिन ज्ञान सिंह ने यह काम करीने से किया है. उनके ज़्यादातर रूपाकारों को आप पहचान सकते हैं, लेकिन बहुत सारे अपनी आकृतियों से बाहर जाकर भी आपसे कुछ कहते हैं. बेशक, कुछ आकृतियां तो इतनी स्पष्ट हैं कि कला से ज़्यादा सजावट का सामान लगती हैं, लेकिन अंततः एक तरह का तृप्तिकर एहसास इनको देखकर होता है. 
 
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प्रदर्शनियों की इस दुनिया से निकल कर हम प्रदर्शन की छोटी सी दुनिया में आ पहुंचे. श्रीराम सेंटर के सामने तेजाबी हमले की विकृत मानसिकता की चोट खाई लड़कियां मौजूद थीं- ये शिकायत करती हुई कि जिस शीरोज़ हैंग आउट की कल्पना उनके पुनर्वास के लिए की गई, उसे उनसे छीनने की तैयारी की जा रही है. लखनऊ का शीरोज़ हैंग आउट पहले एक प्राइवेट कंपनी को देने की कोशिश की गई और बाद में इन्हें तीन दिन में जगह ख़ाली करने का नोटिस थमा दिया गया. शायद इस नोटिस पर अदालती रोक लग गई है, लेकिन इन लड़कियों की लड़ाई बाक़ी और जारी है. बहुत कम लोग थे जो उनके प्रदर्शन के साक्षी थे, लेकिन कोई उम्मीद थी जो उन्हें दिल्ली खींच लाई थी. बिल्कुल ता़ज़ा ख़बर यह है कि शीरोज हैंग आउट को सुप्रीम कोर्ट के दखल से नई सांस मिल गई है. यानी यह लड़ाई फिलहाल कामयाब रही है.

जहां ये प्रदर्शन चल रहा था, वहीं एमके रैना के नाटक 'हत्या एक आकार की' की सूचना देते हुए पोस्टर चिपके हुए थे। कुछ देर बाद यह नाटक सेंटर के प्रेक्षागृह में होने वाला था- गांधी की हत्या की कोशिश करने वाले एक बहस करने वाले थे.

कुछ दूसरी व्यस्तताओं की वजह से हम यह नाटक नहीं देख सके। लेकिन यह दिल्ली की एक शाम थी जो निस्संदेह ख़ूबसूरत थी। बेशक, दिल्ली के अपने फरेब हैं और उसकी सांस्कृतिक चेतना का अपना खोखलापन, सतहीपन या पाखंड भी- लेकिन इन सबके बावजूद इस शहर में अपनी तरह की हलचल है जो गाहे-बगाहे आपको ऊष्मा और ऊर्जा दे सकती है.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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