क्या दिल्ली के रंगकर्मी सरकारी कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं?

क्या कोई रंगकर्मी कालिदास और शेक्सपियर के नाटक खेले तो उसका आवेदन इसलिए खारिज कर दिया जाएगा कि उनमें वे सब बातें प्रत्यक्षत: नहीं हैं जो सरकार चाहती है?

क्या दिल्ली के रंगकर्मी सरकारी कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं?

क्या दिल्ली के रंगकर्मी दिल्ली सरकार द्वारा तय किए विषयों पर नाटक करने के लिए तैयार हैं? क्या उन्हें नहीं लगता कि एक कलाकार होने के नाते अपने समय और समाज से कैसे जुड़ना चाहते हैं और किन विषयों के जरिए अभिव्यक्ति करना चाहते हैं यह तय करने का हक उनका है? और यह तय करने में वह सरकारी बाबूओं और मंत्रियों से अधिक सक्षम हैं? या दिल्ली के रंगकर्मी सरकार के हाथ की कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं? अपनी अभिव्यक्ति और अस्तित्व को दरकिनार कर वो किसी भी समझौते के लिये तैयार हैं?  … इन सबका जवाब यदि हां है तो दिल्ली के रंगकर्मियों को तैयार रहना चाहिए कि आज वह सरकार के थमाए विषयों पर नाटक कर रहे हैं तो कल उन्हें सरकार की पार्टी के लिए गली-नुक्कड़ और मुहल्ले में प्रचार भी करना पड़ सकता है. इससे उन्हें बहुत कुछ मिल जाएगा लेकिन उनकी स्वतंत्रतता और स्वायत्तता की कीमत पर. और इसमें सबसे अधिक दांव पर उनकी विश्वसनीयता होगी… रंगकर्मियों को यह भी सोचना है कि कला की स्वायतता के बारे में क्या रंगकर्मियों का अपना कोई विचार ही नहीं है. एनजीओ और राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रचार करते-करते रंगकर्मियों ने अपनी ऐसी छवि बना ली है कि वे किसी का भी प्रोपगैंडा करने के लिए तैयार हैं और कोई भी किधर भी हांके वे हंकाए जाने के लिए तैयार हैं.

दिल्ली सरकार के साहित्य कला परिषद के तत्वाधान में शिक्षा मंत्री और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने सितम्बर के पहले सप्ताह में रंगकर्मियों के साथ एक बैठक की… इस बैठक में कौन पहुंचेगा ये तय साहित्य कला परिषद ने ही किया...यह उनका अधिकार भी है कि वे किसे बुलाना चाहते हैं... इसमें कुछ नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समीक्षक भी थे… कोई भी प्रतिनिधित्व अंततः आदर्श नहीं हो सकता और न ही सबको बुलाया जा सकता है. अतः उपस्थित लोगो में कौन था और कौन नहीं से अधिक जरूरी है इस पर ध्यान केंद्रित करना कि बैठक में क्या हुआ और इसका नतीजा क्या निकला?

बैठक में मौजूद रंगकर्मियों में से कुछ ने बताया कि शिक्षा मंत्री जो बैठक में लेट पहुंचे थे अपने एजेंडे के साथ आए थे. और उनका मकसद संवाद कम ब्रीफ करना अधिक था...उन्होंने रंगकर्मियों से कहा कि दो विषयों पर फोकस कर नाटक करें.. ये दो विषय थे.. अधूरा लोकतंत्र और अधूरी  शिक्षा… रंगकर्मी जो इस आस में थे कि शिक्षा मंत्री से बैठक का संयोग बना है तो वो दिल्ली में रंगकर्म से जुड़ी समस्या जैसे रिहर्सल स्पेस की कमी, ऑडिटोरियम का किराया, रंगकर्मियों की सामाजिक सुरक्षा इत्यादि विषयों पर भी बातचीत कर सकेंगे लेकिन उनको ऐसा मौका नहीं मिला. जिन लोगों ने कोशिश की वे निराश हुए. मंत्री जी अपनी सुनाने आए थे और दूसरों को सुनने का उनके पास वक्त नहीं था. अधिकांश ने महसूस किया कि रंगमंच उनके राजनीतिक एजेंडे के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है इसकी संभावना तलाशने और इसके लिए रंगकर्मियों के प्रेरित करने आए थे.

बहरहाल इस बैठक के बाद साहित्य कला परिषद ने अपने दो वार्षिक आयोजनों 'भरतमुनि रंग उत्सव'  और 'युवा नाट्य समारोह' के लिए जो विज्ञापन प्रकाशित किया गया उसमें आवेदन करने वालों के लिए नाटकों के विषय तय कर दिए गए… जो इस प्रकार हैं- प्राचीन भारतीय शिक्षा बनाम वर्तमान शिक्षा, शिक्षा का अधूरापन, प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक मूल्य बनाम वर्तमान लोकतंत्र, अधूरा ज्ञान, जन शक्ति, नारी शक्ति, मानवीय मूल्यों का ह्रास, सर्वधर्म सद्भाव, कबीर की दृष्टि, नानक की राह, विवेकानंद का देश आदि..
 
इतने सारे विषयों के बाद भी आदि की संभावना छोड़ दी गई है… मैं इस विज्ञापन को पढ़ने के बाद चकित हूं कि किन विद्वतजनों का सहारा लेकर ऐसी विषय सूची तैयार की गई है. और नाटक आखिर होता किनके बारे में है क्या मानवीय मूल्यों के बारे में नहीं… कोई भी नाटक क्या हमें शिक्षित नहीं करता...कबीर, विवेकानंद, नानक यदि प्रत्यक्ष रूप से नाटक में न हों… तो क्या उनके संदेश नहीं आ सकते… खैर... क्या कोई रंगकर्मी कालिदास और शेक्सपियर के नाटक खेले तो उसका आवेदन इसलिए खारिज कर दिया जाएगा कि उनमें ये सब बातें प्रत्यक्षत: नहीं आएंगी... वैसे ये सब सैद्धांतिक बहस की बातें हैं. कोई मंत्री जी को बताए कि कोई समर्थ रंगकर्मी चाहे तो एक ही नाटक में सब समेट देगा… और उस नाटक से शिक्षा मंत्री कुछ भी वैसा हासिल नहीं कर पाएंगे जो करना चाहते हैं... उनको यह भी जानना चाहिए कि  इस तरह के नाटक खानापूर्ति और बेहद उबाऊ व खराब हो सकते हैं.  रंगकर्मियों को ये सारे विषय शिक्षा मंत्री को ही थमा कर उनसे कहना चाहिए कि इन पर आप ही नाटक कर लीजिए… वे कह सकते हैं कि नाटक करना हमारा काम नहीं आपका काम है.. आप कीजिए… तब उनको कहना चाहिए. जी, हमारा काम है इसलिए आप इसे हमारे तरीके से करने दीजिए…

 
bharat muni rang utsav


मंत्री जी को चाहिए कि इस तरह के विषय थोपने के बजाए वे रंगकर्म के लिए बेहतर माहौल बनाएं और स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में रंगमंच को बेहतर तरीके से लागू करें... क्योंकि एक अच्छा नाटक और अच्छा रंगकर्मी समाज में अच्छे नागरिक तैयार करता है जिससे मानवीय, लोकतांत्रिक मूल्यों का पोषण होता है और समाज बेहतर होता है...

(अमितेश कुमार एनडीटीवी में रिसर्चर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.


Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com
अन्य खबरें