'धर्म' और 'पंथ' की उलझन, धर्म तक पहुंचने का विधान या पद्धति है पंथ

'धर्म' और 'पंथ' की उलझन, धर्म तक पहुंचने का विधान या  पद्धति है पंथ

राजनाथ सिंह ने सेक्‍युलर शब्‍द को लेकर संसद में अलग व्‍याख्‍या पेश की है

शेक्सपियर यहां तो पूरी तरह सही हैं कि नाम में क्या रखा है। यदि गुलाब को गुलाब न कहकर कुछ और कहा जाये, तो गुलाब को कोई फर्क  नहीं पड़ेगा। लेकिन यदि 'सेक्‍युलर' को हिन्दी में 'पंथनिरपेक्ष' न कहकर 'धर्मनिरपेक्ष' कहा जाए तो फर्क पड़ जाएगा। पड़ ही रहा है। तभी तो  हमारे गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में इस बात को पूरे देश के सामने रखा है। राष्ट्रपति के रूप में डॉ. शंकरदयाल शर्मा भी हिन्दी में 'पंथनिरपेक्ष' शब्द ही बोलते थे। तो क्या ये दोनों एक नहीं हैं?

 स्पष्ट है कि यदि ये दोनों एक ही होते, तो संविधान बनने के 25 साल बाद जब 'सेक्युलर' शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया, तब 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द ही रखा जाता, क्योंकि तब तक यह शब्द ही चलता आ रहा  था। 'पंथनिरपेक्ष' को न तो तब कोई जानता था, और न आज ही कोई जानता है। लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस अंतर को जानना चाहिए।

धर्म अर्थात जो धारण करने योग्‍य है
हम फिलहाल 'धर्म' और 'पंथ' को लेते हैं। 'धर्म' संस्कृत के 'धी' धातु से जन्मा है, जिसका अर्थ होता है, 'जो धारण करे।' हमारे दार्शनिकों ने (धर्मशास्त्रियों ने नहीं) इसकी परिभाषा दी 'धारयेति इति धर्म।' जो जीवन को धारण करे, जो जीवन में धारण करने योग्य है, वह धर्म है। इस देश के प्रथम पुरुष, प्रथम शासक (वर्तमान राजनेता) ने जब अपने लोगों के लिए 'मनुस्मृति' नाम की एक संहिता (संविधान) तैयार की, तो इसके छठवें अध्याय के 91वें श्लोक (संविधान के अनुच्छेद एवं धारा) में धर्म के ये दस लक्षण बतायें- धैर्य, क्षमा (सहिष्णुता), मन पर नियंत्रण, चोरी न करना, मन-वचन एवं कर्म की शुद्धता, इन्द्रीयनिग्रह, शास्त्रों का ज्ञान, आत्मज्ञान, सत्यभाषण एवं अक्रोध।

यहां यह एक बात बिल्कुल साफ है कि धर्म हमारे सार्वभौमिक एवं  सार्वकालिक आंतरिक मूल्यों का विशाल महासागर है। इसीलिए विश्‍व के सभी धर्मों में ये सभी तत्व मिलते हैं। यहां दो बातें स्पष्ट हैं। पहला यह कि मनुष्य का जीवन और धर्म अभिन्न हैं। दूसरा यह कि अलग-अलग होते हुए भी सभी धर्म मूलतः एक हैं। जो अंतर है, वह भाषा का है, कहने की शैली का है, बातों का नहीं।

पंथ अर्थात मंजिल तक पहुंचाने वाला मार्ग
अब हम आते हैं  'पंथ' पर। गीता के चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक की दूसरी पंक्ति में कृष्ण कहते हैं, 'लोग भिन्न-भिन्न मार्गों द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।' 'पंथ' अर्थात मार्ग, रास्ता, सड़क, रोड, जो मंजिल तक पहुंचाता है। यहां मंजिल है-धर्म। अब तक की मुख्य और मनोवैज्ञानिक चुनौती यह रही है कि आदमी के अंदर धर्म के इन दस लक्षणों में से अधिक से अधिक को कैसे स्थापित किया जाए। इन्हीं उपायों को गौतम बुद्ध ने अपनी तरह से बताया, तो महावीर स्वामी, गुरुनानक देव, नारायण स्वामी आदि महान एवं पवित्र आत्माओं ने अपनी-अपनी तरह से। ये उपाय ही हैं  'पंथ', जिसे संविधान की प्रस्तावना में 'विश्‍वास एवं उपासना' कहा गया है। 'पंथ' को हम धर्म तक पहुंचने का विधान कह सकते हैं, पद्धति कह सकते हैं।

कृष्‍ण ने धर्म को कर्म से भी जोड़ा
गीता में कृष्ण ने 'धर्म' को और भी व्यापक बनाकर उसे प्रकृति और कर्म से जोड़ दिया। गीता के अंतिम अठारहवें अध्याय के 47 वें श्लोक के अंत में वे अर्जुन को आश्‍वस्त करते हैं कि 'स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूपीकर्म को करता हुआ मुनष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।' यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि अग्नि का स्वभाव है जलाना। यही उसका धर्म (स्वधर्म) है। इसलिए यदि अग्नि किसी को जलाती है, तो उसे इसका पाप नहीं लगेगा। कृष्ण ने आगे कहा कि इस शरीर का धर्म है, कर्म करना। यदि यह शरीर अपना कर्म नहीं करेगा, तो यह नष्ट हो जाएगा। यानी कि अपने धर्म का पालन न करने वाला खत्म हो जाएगा। इसलिए अक्सर लोग अन्य क्षेत्रों के साथ 'धर्म' शब्द को जोड़ देते हैं-राजनीति का धर्म, गुरु-धर्म, पितृ-धर्म आदि-आदि।

यदि हम 'धर्म' को इस विराट रूप में लेते हैं, तो वह सापेक्ष रह ही नहीं जाता, क्योंकि उसमें सब कुछ समाहित है। यदि धर्म सापेक्ष ही नहीं है, तो फिर उसके निरेपक्ष होने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए 'पंथनिरपेक्ष' तो हुआ जा सकता है, 'धर्मनिरपेक्ष' नहीं। और यही भारतीयता भी है, जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने सन् 1893 में शिकागो के विश्‍व धर्म सम्मेलन में कहा था, 'मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव कहता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है।'

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