कैसा होता होगा 'जलते हुए वन का बसन्त'...?

कैसा होता होगा 'जलते हुए वन का बसन्त'...?

'जलते हुए वन का बसन्त' कैसा होता होगा...? यह तो जलते हुए वन का रूदन है। वृक्षों की खाल जल रही है, आंसुओं का धुआं पर्वतों के शिखर को छू गया है। ये जंगल कैसे रोते हैं! दुःख भी तो आखिर थक ही जाता है। यह कैसे दरख्त हैं, जो हर साल ज़ार-ज़ार सिसकते हैं! अविराम, अ-थक।

दुष्यंत कुमार कहते हैं...
"इधर और झुक गया है आकाश, एक जले हुए वन में बसंत आ गया है...
मेरी नियति रही होगी, शायद भाग्य में लिखी थी, एक जंगल की आग..."


पर अभी तो जंगल जल रहा है। बसंत में विलंब है। सावन की फुहारें अभी दूर हैं...? असाढ़ को आने में देर है। जलगर्भित मेघों का समय-पूर्व प्रसव हो, तो बात बने। ये आग आदमी के वश में कैसे आए! यह तो वनों का क्रोध-दाह है। वन हमसे नाराज हैं। जल उठे हैं, तो जले ही जा रहे हैं। यह कोई नकली मानुष-रूदन तो नहीं कि झूठ के दिलासों से चुप जाए। उन्हें पता है कि हम नहीं रुकने वाले। हमारी हवस से ऊब गए हैं वन। ये ऊब ही वनों का रूदन है। उनके तन पर पड़ी हमारी कुल्हाड़ी की चोटें जल रही हैं। उनकी काट डाली गई शाखों के ज़ख़्म अभी जल रहे हैं। बुझने में वक्त तो लेंगे।

मैं दुष्यंत कुमार के 'जलते हुए वन के बसन्त' में जल रहा हूं। आप को भी जलाता हूं। जलना हम सबकी नियति है, पर दुर्घटनाओं से जल उठना दर्दनाक है।

"कितनी अजीब बात है...
कि मैं जिनकी कल्पना किए था,
वे दुर्घटनाएं,
घट कर सच हो रही हैं...
वे जो बचाव के बहाने थे,
तनाव का कारण बन गए हैं,
आज सबसे अधिक खतरा वहां है,
जो निरापद स्थान था..."

(चक्रवात : दुष्यंत कुमार)

पर वन निरापद थे कब...? कहा जाता है कि हस्तिनापुर से बंटकर पांडवों ने जो इंद्रप्रस्थ बनाया, वह भी खाण्डव वन को जलाकर बनाया था। किसी अश्वसेन नाम के सर्प का परिवार उस दावानल में जल मरा था, जो प्रतिशोध को उद्धत था। अर्जुन को दण्डित करने के प्रयोजन से वह कर्ण के गांडीव में छिप गया। कर्ण ने उसके सहयोग को नकार दिया। वह रश्मिरथी था। 'कुटिल' कहकर उसे धिक्कार दिया -

"...रे कुटिल, बात क्या कहता है,
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है..."

(रश्मिरथी : दिनकर)

अश्वसेन को महाभारत के गुणा-भाग से ज्यादा मतलब नहीं रहा होगा। कर्ण से डांट खाकर चलता बना। उसका उल्लेख शायद फिर कहीं नहीं मिलता! प्रतिशोध अधूरा ही रहा! पर बात तो दावानल से ही शुरू हुई थी, वह अब भी दावानल की ही है। चिड़ियों के पंख झुलस गए हैं। वे धुएं से ऊपर न जा सकी हैं। वह गहरा काला धुआं है, आसमान में अटक गया है, परिंदों को धरा पर पटककर। हिरणों की कुलाचें व्यर्थ हो गई हैं। वह, जो बाघों को छकातीं, प्राण लेकर उन्मुक्त दौड़ पड़तीं, धरी रह गई हैं। उमंग आग में घिर गई है। तिनका-तिनका जल रहा है वन। एकदम फुंक जाना कितना सुखकर होता होगा! और तिनका-तिनका जलना कितना पीड़ादायी! आग से झुलसे हुए वन की चीख, किसी लालची के यहां मृत्यु पाई नई-नवेली ब्याही वधू की चीख के समानांतर ही तो है! जब वधू के लिए वेदना, तो वन के लिए क्यों नहीं...?

अभी आग चीड़ के पेड़ों तक ही है। चीड़ तेजी से प्रज्वलित होते हैं। हम सब कल्पना ही कर सकते हैं। आग से वन का यह युद्ध क्या विकट चल रहा होगा। बूढ़े सरपंच पीपल ने अचानक ऊंघते हुए पहले-पहल आग का धुआं महसूस किया होगा। पास खड़े नीम को अपने अनुभव की कटु डांट से चेताया होगा। मैं तो चल नहीं सकता। जंगल के नौजवान दरख्तों को ज़रा ख़बर तो करो। आग बढ़ी आती है। जंगल के कुछ उत्साही नीम चिंतित हो भागे होंगे, साल सागौन, शीशम के झुंड झुंझलाए होंगे। नींद से हड़बड़ाकर उठा बबूल लट्ठ लेकर तन गया होगा। पूरे वन में भगदड़ पसर गई होगी। जो जहां भाग पाया, फूल तो गिर न पड़े होंगे! घास ने प्रतिरोध की ठानी होगी, लड़ी भी होगी। चीड़ों ने धोखा दिया क्या! वन के कुछ वृद्ध पेड़ चिंतित ही जल गए होंगे। वन अचानक शहर बन गया होगा, बदहवास भागता हुआ। सब अपने लिए; कुछ, कुछ के लिए; कुछ, सब के लिए।

पर आग ने सभी को जलाया होगा। कुछ को झुलसाकर छोड़ दिया होगा। आग भी सबको बराबर कहां जला पाती है! काश, वन की इस आग में बूढ़े पीपल के संग कुछ एकड़ हमारी हवस भी जल मरे!

पर आग देवदारों तक न पहुंचे
असाढ़ जल्दी आओ...

(उत्तराखंड के वनों के जलने की त्रासदी पर)

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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