क्या 2019 में नीतीश कुमार ने अपनी पहचान समाजवादी-भाजपाई नेता की बना ली?

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब तक समाजवादी विचारधारा के नक़्शे क़दम पर चलते थे तब तक वे लोगों के दुःख में साथ रहे

क्या 2019 में नीतीश कुमार ने अपनी पहचान समाजवादी-भाजपाई नेता की बना ली?

साल खत्म होने को है. बीते साल का हर व्यक्ति अपने हिसाब से नफ़ा नुक़सान का आकलन कर रहा है. यह साल बिहार की राजनीति के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा है. ख़ासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिनकी छवि एक समाजवादी नेता के रूप में अभी तक थी, उनके अपने कई कदमों के कारण अब एक धारणा मज़बूत होती जा रही है कि वे समाजवादी -भाजपाई हैं. लेकिन सवाल है कि कोई ऐसा कैसे बोल सकता है और इसका क्या आधार है? हालांकि उनके भाजपा प्रेम में अपने समाजवाद के नीति सिद्धांत से समझौते के कई उदाहरण हैं. लेकिन अगर आप पिछले एक महीने या कहिए एक हफ़्ते में कुछ घटनाक्रम को देखें तो इससे आप इनकार नहीं कर सकते कि अब वे भाजपा को ख़ुश करने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार रहते हैं. जैसे झारखंड में चुनाव हुआ और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में महागठबंधन की जीत हुई. लेकिन नीतीश ने न जीत के बाद न शपथ ग्रहण के बाद सार्वजनिक रूप से बधाई देने की आम औपचारिकता का निर्वहन किया. कम से कम उनके पीआर विभाग ने सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई जानकारी नहीं दी. जबकि शपथ ग्रहण के दिन नीतीश ने अमिताभ बच्चन को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार पर ट्वीट कर बधाई दी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर रघुबर दास ने बधाई के ट्वीट किए. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में हेमंत ने जहां भी बिहार में आदिवासी वोटर थे, नीतीश के पक्ष में अपील जारी की थी. खुद नीतीश ने जब समता पार्टी का गठन किया था तब 1995 में पहला विधानसभा चुनाव जेएमएम और सीपीआई माले के साथ गठबंधन बनाकर लड़ा था. हालांकि करारी हार के बाद उन्होंने तुरंत भाजपा के साथ समझौते का हाथ बढ़ाया और उसके बाद चुनावी तालमेल भी उन्हीं के साथ रहा.

इसके पहले तीन दिन पूर्व पटना में पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली की एक प्रतिमा का अनावरण किया गया. वह निश्चित रूप से एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में और बिहार में एनडीए को अटूट रखने में सबसे कारगर भूमिका अंतिम समय तक अदा की. उनको श्रद्धांजलि में इसे एक अच्छा क़दम माना जाएगा. लेकिन नीतीश कुमार के कट्टर समर्थक भी मानते हैं कि आख़िर ऐसी एक प्रतिमा उन्होंने पूर्व रक्षा मंत्री और बिहार से आठ बार लोकसभा में सांसद और एक बार राज्यसभा में सांसद रहे जॉर्ज फ़र्नांडीस की पटना में लगवा दी होती तो शायद अपने राजनीतिक जीवन में लम्बे अरसे तक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करने वाले व्यक्ति के लिए उनका सम्मान दिखता. लेकिन जॉर्ज समाजवादी थे और नीतीश अब समाजवाद से दूर जा रहे हैं और उन्हें समाज के भगवाकरण में इससे कोई फ़ायदा नहीं दिखता. बिहार से सांसद चुने जाने के बदले जॉर्ज साहेब ने जितना बड़ा या छोटा प्रोजेक्ट जैसे कांटी थर्मल प्रोजेक्ट, राजगीर का आयुध कारख़ाना राज्य में अपने प्रयास से शुरू करवाया उतना कोई केंद्रीय मंत्री भी नहीं करवा पाता.

नीतीश कुमार जब तक समाजवादी विचारधारा के नक़्शे क़दम पर चलते थे तब तक वे लोगों के दुःख में साथ रहे. उसका प्रमाण है कोसी की त्रासदी. जब वे लोगों के बीच रहे और वह जनता हो या मीडिया, सबके सवालों का जवाब देते थे. हर साल अपने कामकाज का लेखा-जोखा देते थे. लेकिन जब से वे समाजवादी भाजपाई बनने के रास्ते पर चले हैं तब से पिछले चार साल में उन्होंने अपना वार्षिक कामकाज का लेखा-जोखा देना बंद कर दिया है. वह चाहे बच्चों की एईएस से मौत हो या जलजमाव से राजधानी पटना के लोगों की परेशानी, सबके लिए नीतीश कुमार की सम्बंधित विभाग की लापरवाही सबसे अधिक दोषी. लेकिन दोषी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय उन्होंने मीडिया से मुंह मोड़कर चलने की एक नई आदत डाल ली. यह अहंकार उन्होंने अपने सहयोगी भाजपा से उधार में लिया है. और मीडिया से भागने के चक्कर में नीतीश अपनी उपलब्धि, जैसे जल जीवन और हरियाली जैसे अच्छे कार्यक्रम पर भी बात नहीं करते. वे अब एकतरफ़ा संवाद, मतलब भाषण देकर निकल जाते हैं.

राजनीतिक मोर्चे पर भी समाजवादी नीतीश कुमार जहां चुनाव में अपना मैनिफ़ेस्टो जारी करना भूलता नहीं था, लेकिन समाजवादी-भाजपाई नीतीश कुमार लिखे मैनिफ़ेस्टो को अब जारी नहीं करते. अपनी हर बैठक में भाजपा के उस समय प्रस्तावित नागरिक बिल का विरोध करने वाले रातोंरात अपना स्टैंड बदल तो लेते हैं लेकिन उसके बारे में सफ़ाई देने की या चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं करते. हालत यह है कि नीतीश जिस पार्टी के अध्यक्ष हैं उस पार्टी में राष्ट्रीय मुद्दे पर दो फ़ाड़ साफ़ दिखते हैं.

इस सबका परिणाम है कि जहां एक और नीतीश कुमार की गद्दी सुरक्षित लगती है वहीं सत्ता में जिस नरेंद्र मोदी को बिहार से बाहर रखकर उन्होंने अपनी एक नई पहचान बनाई, अब वे उन्हीं के सामने फ़रियाद करते हैं. लेकिन मोदी सार्वजनिक रूप से उनकी मांग ख़ारिज कर देते हैं. समाजवादी नीतीश के राज में ग़लत करने वालों में क़ानून का डर होता था और अब समाजवादी-भाजपाई नीतीश के राज में नए नागरिक क़ानून के समर्थन के नाम पर मुस्लिम समाज के लोगों को गोली मार दी जाती है और पुलिस मूकदर्शक बनी रहती है. सबसे शर्मनाक यह है कि हर दिन भाजपा के झंडे लगाकर एक समुदाय को निशाने पर रखकर गालियां दी जाती हैं. और नीतीश कुमार के मुंह से यही निकलता है, सब चंगा सी.

मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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