क्या हमने CAB पर पूर्वोत्तर की शिकायतों को ठीक से सुना?

बग़ैर परमिट के कोई भी भारतीय नागरिक इनर लाइन परमिट वाले राज्यों में न तो जा सकता है और न ठहर सकता है. अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड में यह व्यवस्था थी और अब मोदी सरकार ने मणिपुर में भी इनर लाइन परमिट लागू करने का वादा किया है, तभी मणिपुर को नागरिकता कानून के दायरे से बाहर रखा जाएगा.

नागरिकता संशोधन बिल लोकसभा में पास हो चुका है. लोकसभा में इस बिल के पक्ष में 334 मत पड़े हैं और विरोध में मात्र 106. आप कह सकते हैं कि सदन में यह बिल व्यापक आम सहमति से पास हुआ. लेकिन इस बिल को लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में वैसी व्यापक आम सहमति नहीं दिखती है. दरअसल पूर्वोत्तर के राज्यों के सांसदों को संख्या कम होने के कारण बहुत बाद में और बहुत कम समय मिला. जिन राज्यों में इस बिल को लेकर सबसे अधिक आशंकाएं थीं उनके ही सांसद दो तीन पैरा के संक्षिप्त भाषण देकर चले गए. काश उन्हें ज़्यादा समय मिलता तो शेष भारत को पूर्वोत्तर की बेचैनियों को समझने का ज़्यादा मौका मिलता. जैसे आप यह जान पाते कि मिज़ोरम के एक मात्र सांसद मिज़ो नेशनल फ्रंट के सी लालरोज़ांगा ने बिल का समर्थन किया लेकिन जो आग्रह किया उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. लालरोज़ांगा ने कहा कि इस बिल को लेकर मिज़ोरम मानसिक यातना के दौर से गुज़र रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने हमारी चिन्ताओं को ध्यान में रखा. मिज़ोरम को इस बिल से बाहर रखा गया है. यह बिल धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर नागरिकता की बात करता है. हम केंद्र और देश की सभी राज्य सरकारों से आग्रह करते हैं कि वे यह सुनिश्चत करें कि कम से कम हमारे यहां धार्मिक प्रताड़ना न हो. नॉर्थ ईस्ट को लेकर जो भी आश्वसान दिए गए हैं उन्हें पूरा किया जाए.

सिकिक्म से भी एक ही सांसद हैं. सिक्कम कर्मचारी मोर्चा से सांसद के इंद्र हंग सुब्बा ने बिल का विरोध किया और कहा 1975 में सिक्किम का भारत में विलय हुआ था. सिक्किम के लोगों की नागरिकता सिक्किम सब्जेक्ट्स रेगुलेशन 1961 के हिसाब से तय होती है. विलय से पहले पैदा हुए सिक्किम के लोग सिक्किमी भारतीय माने जाते हैं. उन्हें नागरिकता संशोधन बिल के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए था. हम इसका विरोध करते हैं.

अमित शाह ने जवाब में कहा है कि सिक्किम को अनुच्छेद 371 के तहत जो संरक्षण हासिल है उससे छेड़छाड़ नहीं होगी. पूर्वोत्तर के आठ ऐसे राज्य हैं जहां यह बिल पूरी तरह लागू नहीं होगा या लागू होगा तो कुछ हिस्सों में होगा. यानी विरोध की उनकी वाजिब चिन्ताओं का राष्ट्र हित के विरोध में बात सकते हैं? इस बिल के कारण पहली बार मणिपुर में इनर लाइन परमिट की व्यवस्था लाई जाएगी ताकि वहां पर नागरिकता कानून लागू न हो सके. इस बिल को लाने के लिए इनर लाइन परमिट का वादा क्यों करना पड़ा, एक देश एक कानून की समझ रखने वाले लोगों के लिए यह जानना ज़रूरी है.

बग़ैर परमिट के कोई भी भारतीय नागरिक इनर लाइन परमिट वाले राज्यों में न तो जा सकता है और न ठहर सकता है. अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैंड में यह व्यवस्था थी और अब मोदी सरकार ने मणिपुर में भी इनर लाइन परमिट लागू करने का वादा किया है, तभी मणिपुर को नागरिकता कानून के दायरे से बाहर रखा जाएगा.

यह पूर्वोत्तर की ज़रूरत है. भारत के अन्य सरहदी इलाकों में भी इनर लाइन परमिट सिस्टम है. कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के सरहद से लगे इलाकों में है. यह कानून 1873 के अंग्रेज़ी कानून की विरासत है. 2019 में पहली बार मणिपुर में लागू किया जाएगा. नए नागरिकता कानून के तहत जिन लोगों को भारत की नागरिकता मिलेगी वो मणिपुर, मिज़ोरम, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में जाकर नहीं बस सकते हैं. उन्हें परमिट लेकर जाना होगा. पूर्वोत्तर के राज्यों में नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी को लेकर क्या स्टैंड है. नगालैंड सरकार ने जुलाई में नागरिकता रजिस्टर के लिए अधिसूचना जारी की थी. मिज़ोरम की सरकार ने मिज़ोरम मेंटेनेंस ऑफ़ हाउसहोल्ड रजिस्टर बिल बनाया है जो नेशनल रजिस्टर की तरह है. मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री मोदी से इस बारे में मुलाकात भी की है और अनुमति मांगी है. इसे विधानसभा में पास किया जा चुका है. मिज़ोरम का कहना है कि म्यानमार और बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान की जाए. त्रिपुरा में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने एनआरसी की मांग की है. गृहमंत्री अमित शाह लोकसभा में खम ठोंक कर बोल गए हैं कि वे एनआरसी लेकर आ रहे हैं. इसी सदन में लेकर आ रहे हैं.

क्या अमित शाह असम में दोबारा एनआरसी कराएंगे? जो एनआरसी असम में फेल है, वर्ना नागरिकता बिल लाने की ज़रूरत ही न होती. असम में खुद बीजेपी के नेता एनआरसी को लेकर सवाल उठा चुके हैं. असम को एनआरसी से क्या मिला. तीन साल तक साढ़े तीन करोड़ लोग दस्तावेज़ लेकर यहां से वहां भागते रहे. अभी तो किसी ने इसका प्रमाणिक अध्ययन नहीं किया है कि अपनी ही मतदाता परची निकालने के लिए लोगों ने कितनी रिश्वत दी. तब पता चलेगा कि इस एक नीति ने बाबुओं की जेब में करोड़ भर दिए. वहीं के लोग बता रहे हैं कि काफी पैसा लग गया. सरकार के भी 1600 करोड़ पानी में गए. असम से पहले त्रिपुरा पर एक नज़र डाल लेते हैं.

9 दिसंबर को जब बिल लोकसभा में पेश हो रहा था, त्रिपुरा में ज़बरदस्त विरोध हो रहा था. त्रिपुरा की बीजेपी सरकार में सहयोगी इंडिजेनस पिपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा ने इसका विरोध किया है. हड़ताल का आह्वान किया था. आईपीएफटी और बीजेपी ने मिलकर चुनाव लड़ा था. इसके 8 विधायक हैं और 35 बीजेपी के. आईपीएफटी सरकार में है लेकिन कहती है कि सरकार में रहते हुए विरोध करेगी. सोमवार को ही अन्य संगठनों ने भी हड़ताल का आह्वान किया था. हज़ार से अधिक लोगों को हिरासत में लेना पड़ा. त्रिपुरा की एकमात्र स्टेट यूनिवर्सिटी महाराजा बीर विक्रम यूनिवर्सिटी और त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी की परीक्षा स्थगित कर दी गई है. वहां ट्रेनें भी रोकी गईं. बार-बार कहने पर भी कि त्रिपुरा ट्राइबल एरियाज़ आटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल के 20 रिजर्व सीट को नागरिकता बिल से बाहर रखा गया है. जनजातीय इलाकों में विरोध उग्र है. ढालाई ज़िले में ग़ैर जनजातीय दुकानों को जला दिया गया है. त्रिपुरा में मोबाइल डेटा और इंटरनेट 48 घंटों के लिए बंद कर दिया गया है. एसएमएस बंद रहेगा. वहां के लोगों को 48 घंटे कश्मीर की खूब याद आएगी. ज्वाइंट मूवमेंट अगेंस्ट सीएबी में कई दल शामिल हैं. इन्होंने भी अनिश्चितकालीन हड़ताल का आह्वान किया है. मुख्यमंत्री बिप्लब देब ने कहा है कि आंदोलन का कोई असर नहीं है और इसका कोई तुक नहीं है क्योंकि जनजातीय समुदाय को पहले से संरक्षण हासिल है. गैर जनजातीय इलाकों में प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं. वहां स्थिति सामान्य है.

पूर्वोत्तर में अलग अलग नज़रिया है. क्या उनका हित राष्ट्र हित नहीं है? क्या आपके हिन्दी अखबारों और चैनलों ने बताया कि इस बिल को लेकर पूर्वोत्तर में कितनी अलग अलग प्रतिक्रिया है? सोचिए इन अखबारों को पढ़कर आपकी समझ राष्ट्रीय बनती है या झेत्रीय. कभी न कभी आपको सोचना ही होगा कि आपकी नागिरकता की समझ हिन्दी अखबारों ने संकुचित की है, सीमित की है या उसका विस्तार किया है.

त्रिपुरा में विरोध जिस कारण से हो रहा है असम में भी उसी कारण से हो रहा है. असम का आंदोलन घुसपैठियों के खिलाफ था. यह बिल घुसपैठिए को हिन्दू और मुस्लिम के आधार में बंटवारा करता है. असम की यूनिवर्सिटी में क्यों रात रात भर प्रदर्शन हो रहे हैं. असम में भी इम्तहान चल रहे हैं. नॉर्थ ईस्ट स्टुडेंड आर्गेनाइज़ेशन NESO, ने मंगलवार को 11 घंटे के बंद का आह्वान किया था. पूर्वोत्तर के राज्यों के छात्रों का यह बड़ा संगठन है. सिर्फ नगालैंड को इस बंद से बाहर रखा गया क्योंकि वहां हार्नबिल फेस्टिवल चल रहा है. नॉर्थ ईस्ट स्टुडेंड आर्गेनाइज़ेशन NESO के बंद का कांग्रेस, लेफ्ट और AIDUF ने समर्थन किया है. जब लोकसभा में आधी रात के वक्त यह बिल पास हो रहा था असम की कई यूनिवर्सिटी में छात्र सड़क पर मशाल लिए प्रदर्शन कर रहे थे. असम के लोगों ने लोकसभा के चुनाव में बीजेपी को जमकर वोट किया है. छात्रों का कहना है कि सीएबी उनकी पहचान पर सीधा हमला है. गुवाहाटी यूनिवर्सिटी के छात्रों ने एक प्रेस रीलीज तैयार किया है जिसमें लिखा है कि यह बिल संविधान की प्रस्तावना को बदलने जा रही है. अगर भारत सेकुलर देश है तो वहां कैसे ऐसा कानून आ सकता है जो खास समुदाय के लोगों को नागरिकता देता हो और किसी को नहीं देता हो. छात्रों का कहना है कि जब 2016 में बिल का ड्राफ्ट आया था तो उसमें धार्मिक प्रताड़ना का शब्द नहीं था सिर्फ माइनॉरिटी लिखा था. 2019 के ड्राफ्ट में भी धार्मिक प्रताड़ना नहीं है. हमने इस बिल का प्रारूप देखा. इसके उद्देश्य में लिखा धार्मिक प्रताड़ना लिखा है. यह बिल भारत को आधिकारिक रूप से एंटी इस्लामिक बनाता है. साथ ही असम समझौता का भी उल्लंघन करता है. उसमें यही कहा गया था कि 25 मार्च 1971 के बाद जो विदेशी आए हैं उन्हें पहचानकर निकाला जाएगा. इसमे धर्म की बात नहीं थी जो भी विदेशी है उसे निकालने की बात थी. लेकिन अब तो 31 दिसंबर 2014 तक आए छह धर्मों के विस्थापितों को नागरिकता देने की बात की जा रही है. यह असम समझौते का उल्लंघन है. इन छात्रों की एक और चिन्ता है असमिया भाषा को लेकर. इनका कहना है कि नागरिकता के फार्म में भरना होता है कि भाषा बताएं. अगर सबने बांग्ला लिखा तो इससे असमिया भाषा को हाशिये पर धकेल देगा. वे भाषा के सवाल पर सरकार के आश्वासन से संतुष्ट नहीं हैं.

अमित शाह ने कहा है कि पूर्वोत्तर के जितने भी स्वायत्त परिषद हैं वहां यह बिल लागू नहीं होगा. मेघालय में लागू नहीं होगा. असम के बोडोलैंड, कारबी आंगलान्ग और दीमा में लागू नहीं होगा. यानी असम के 33 ज़िलों में से 27 ज़िलों में ही यह बिल लागू होगा.

नेता आपसे नहीं कह पाएंगे. उनके पास बांटने के कई हथियार हैं. बांट कर भी आपको कहेंगे कि हमने एक किया है. ये आपको बताने की ज़रूरत नहीं है. जब असम में नागरिकता रजिस्टर का काम शुरू हुआ तो असम को लगा कि गले का हार है. वही गले का हार अब असम के गले का फंदा हो गया है. इस नागरिकता रजिस्टर से असम को क्या मिला? अब जब पूरे देश में एनआरसी लागू होगा तो सोचिए आम लोगों पर क्या गुज़रेगी? असम से बाहर के मुसलमान परेशान हो गए हैं. इस मिट्टी में पैदा होकर भी साबित करने के लिए कागज़ात खोज रहे हैं. जो हमारे साथ खेले और बड़े हुए वो पूछ रहे हैं कि कौन सा कागज़ लाना होगा. क्या यह काफी नहीं है कि सबको शर्म आनी चाहिए कि आपका सहयोगी, हमारा सहयोगी, हमारा क्लासमेट, आपका क्लासमेट, आपका पड़ोसी, हमारा पड़ोसी लाइन में खड़े होकर नागरिकता साबित करने जाएंगे? क्या यही भारत का सपना था? 1947 में इस भारत ने धर्म के आधार पर विभाजन को ठुकरा दिया था. अब उस भारत में धर्म के आधार पर नागिरकता दी जा रही है और उस भारत के लोगों से नागरिकता का प्रमाण पत्र देना होगा. ग़रीबों पर क्या बीतेगी, जिनके पास अपना पता तक नहीं होता. उन पर क्या बीतेगी जो इस भारत को अपना समझ कर कई राज्य बदल कर जाने कहां कहां बस चुके हैं. क्या यही भारत को विश्व गुरु बनाने का सपना है? जब तक लिस्ट नहीं आएगी, विदेशी होने की मानसिक यातना से किसी को एक पल के लिए भी गुज़रना पड़े वो शर्म की बात है. आप उन मिसालों का सामना कैसे करेंगे जब हिन्दू और मुसलमान दोनों ने हज़ारों की संख्या में इस भारत के सपने के लिए जान दी थी. यही वो भारत है जिसने 1857 की आज़ादी की लड़ाई में 81 साल के बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता चुना था. तब उन्हें किसी ने विदेशी नहीं कहा. क्या आप भगत सिंह से आंखें मिला सकेंगे? क्या आप अशफ़ाक़ और बिस्मिल से आंखें मिला सकेंगे? क्या गांधी से नज़रें मिला सकेंगे? क्या सुभाष चंद बोस की आज़ाद हिन्द फौज़ में ऐसा फर्क था? क्या उन्होंने आजाद हिन्द फौज बनाने से पहले नागरिकता की तलाशी ली थी? अपने सिपाहियों का मज़हब देखा था? आज उस असम को सोचना होगा कि शेष भारत उनकी बेचैनियों से क्यों वास्ता नहीं रखा रहा है? क्या सरकारी आश्वासनों के अलावा किसी भी नेता के भाषण में असम की चिन्ताओं के स्वर थे? जो आज असम की सड़कों और यूनिवर्सिटी मे फैली हुई है. असम को बांग्ला भाषी लोगों के बारे में सोचना होगा. भारत को भी सोचना होगा कि घुसपैठ की मनगढ़ंत राजनीति ने उन्हें किस मोड़ पर लाकर छोड़ दिया है. नागिरकता मिलेगी फिर भी वे संदेह की नज़र से देखे जाएंगे. वर्ना क्या आज उनकी खुशी का दिन नहीं था? बांग्ला भाषी आज कभी भाषा तो कभी भाषा के आधार पर सहमे हुए होंगे. कोई उनकी बात नहीं कर रहा है और न वे अपनी बात कर पा रहे हैं. यह कैसा भारत है? जो संविधान बचाने की दुहाई देते थे. वो आज कहां हैं? संविधान की आत्मा और प्रस्तावना के लिए क्या वे कहीं नज़र आए? रतनदीप ने असम के नौजवानों से बात की है, जो नागरिकता बिल का विरोध कर रहे हैं लेकिन जो नागरिकता रजिस्टर का विरोध नहीं कर सके. असम के लोग घुसपैठ की समस्या का अंत चाहते थे, लेकिन यह समस्या नए कपड़े में लौट आई है. असम को सुनिए, उसकी बेचैनी को समझिए. असम को क्यों लगता है कि उसके साथ छल हुआ, जब असम को लगता है तो आपको किस आधार पर नहीं लगता कि आपके साथ छल नहीं होगा?

असम को अनसुना नहीं किया जा सकता है. जिस राज्य के लिए यह बिल लाया गया है उसके बहुमत को विश्वास में लेना होगा. असम में आठवां राज्य फिल्म समारोह होने वाला है. इस समारोह से जाहनू बरुआ ने अपनी फिल्म वापस ले ली है. बरुआ ने इस बिल को ख़तरनाक बताया है. गुवाहाटी में फिल्म कलाकार और साहित्यकारों ने भी विरोध प्रदर्शन किया है. असम में 15 तारीख को प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री आबे शिंजे की शिखर बैठक होने वाली है. इस बिल से कितने लोगों को फायदा मिलेगा? इसका कोई ठोस जवाब नहीं है. मगर बहुत से लोग पूछ रहे हैं. 2016 में राज्यसभा में सरकार ने कहा था कि घुसपैठियों की संख्या 2 करोड़ है. असम में एनआरसी की लिस्ट से सिर्फ 19 लाख बाहर हुए उसमें से भी 14 लाख हिन्दू बताए जाते हैं. लेकिन अब असम के मुख्यमंत्री कहते हैं कि नए बिल से 5 लाख से भी कम को फायदा होगा? कौन किस आधार पर कह रहा है किसी को पता नहीं.

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पूर्वोत्तर में नागरिकता बिल को कई आयाम हैं. कहीं आदिवासी बनाम ग़ैर आदिवासी है तो कहीं आदिवासी बनाम अवैध घुसपैठिया है. शेष भारत में यह बिल हिन्दू बनाम मुसलमान की बहस को छेड़ता है. यह कैसा कानून बनने जा रहा है जिसने सबको एक दूसरे से दूर धकेल दिया है. जो भी है इसमें मसाला पूरा है. इस पर बहस करते हुए यूपी बिहार सहित हिन्दी प्रदेशों के नौजवानों के पांच दस साल बग़ैर रोज़गार के आराम से कट जाएंगे. डिबेट के लिए सालिड टापिक है. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में जो सामग्री चुपके चुपके बांटी जा रही है आप देख भी रहे होंगे. उन्हीं सब से ज़्यादातर लोगों की सोच की बैकग्राउंड तैयार की गई है.