वायदे करते समय उन्हें पूरा करने की अड़चनें पता न होना

कुलमिलाकर विचार के लिए मामला यह बना है कि कोई सरकार सत्ता में आने के पहले जो वायदा कर रही होती है उस समय क्या उसे यह पता नहीं होना चाहिए कि किसी लक्ष्य को साधने के लिए किन किन बातों को पहले से समझना जरूरी होता है.

वायदे करते समय उन्हें पूरा करने की अड़चनें पता न होना

हरियाणा के मुख्‍यमंत्री मनोहर लाल खट्टर

हरियाणा के मुख्यमंत्री ने बातों बातों में एक ऐसी बात कही है कि इस पर विस्तार से विचार हो सकता है. उनका कहना है कि कोई सरकार सत्ता में आने के पहले जो बात कहती है उसके मुताबिक समय पर काम हो पाना कई बार मुश्किल हो जाता है. इसका कारण उन्होंने यह समझाया है कि कुछ सरकारी बंदिशें होती हैं जिनके कारण चुनाव में किए वायदे निभाने में देरी हो जाती है. वैसे उन्होंने वायदे निभाने में दूसरे और भी कारण गिनाए हैं. कुलमिलाकर विचार के लिए मामला यह बना है कि कोई सरकार सत्ता में आने के पहले जो वायदा कर रही होती है उस समय क्या उसे यह पता नहीं होना चाहिए कि किसी लक्ष्य को साधने के लिए किन किन बातों को पहले से समझना जरूरी होता है. यह लक्ष्य प्रबंधन का मामला है. इस पर प्रबंधन प्रौद्योगिकी के आधुनिक विशेषज्ञों ने लंबे सोच विचार के बाद लक्ष्य प्रबंधन के लिए एक मॉड्यूल बना रखा है. चुनावी वायदों के दौरान ही इस बारे में इसी स्तंभ में एक विशेष आलेख लिखा गया था. आज उसके आगे और भी कई बातें समझने का मौका आया है.

वायदे करते समय सरकार से बाहर होने का तर्क
उन्होंने कहा है कि जब वायदे किए जाते हैं उस समय हम सरकार से बाहर होते हैं. उस समय सरकारी बंदिशों का पता नहीं होता. क्या उनकी इस बात पर एक बहस शुरू नहीं हो सकती? खासतौर पर अपने चुनावी लोकतंत्र को जितना अनुभव हो चुका है उसमें कोई भी बड़ा राजनीतिक दल यह नहीं कह सकता कि चुनाव प्रचार के दौरान उसे सरकार की सीमाएं या बंदिशें पता नहीं होतीं.

क्या वायदों और ऐलानों पर उसी समय बहस नहीं हो सकती?
सिर्फ अपने यहां तो क्या कहीं भी यह व्यवस्था नहीं बन पाई है कि चुनावी वायदों या घोषणापत्रों या दृष्टिपत्रों की विश्वसनीयता पर चर्चा हो पाती हो. चुनाव प्रचार के समय ऐसी धमाचैकड़ी मचती है कि एक से बढ़कर एक बड़े वायदे बेचने की होड़ लग जाती है. जबकि उसी समय पूछा जा सकता है कि ये वायदे पूरे कैसे होंगे? कितनी देर में होंगे? खर्चे का प्रबंध कहां से होगा? जिस तरीके से लक्ष्य साधने का दम भरा जाता है क्या वह तरीका पहले कभी भी कहीं भी अजमा कर देखा गया है?

क्या सिर्फ जज़्बे से पूरे हो सकते हैं वायदे?
देश में बार-बार दोहराकर ऐसा प्रचार किया गया है कि सत्ताधारी में राजनीतिक इच्छाशक्ति या जज़्बा होना चाहिए. लेकिन उस समय यह नहीं पूछा जाता कि इच्छाओं की पूर्ति के लिए धन, समय और ऊर्जा कितनी लगेगी और ये संसाधन कहां से आएंगे. लेकिन हरियाणा के मुख्यमंत्री ने ये बातें इस अंदाज में कही हैं जैसे यह पहली बार पता चल रहा है. उन्होंने सूचना दी है कि हरियाणा में तरह तरह के साढ़े तीन हजार ऐलानों पर काम चल रहा है. इसके हर पहलू की समीक्षा होती है. कहीं पैसे की ज़रूरत है, कहीं ज़मीन की जरूरत है. इसके अलावा दूसरे तरह के व्यवधान भी आ जाते हैं. इसी में देर हो जाती है. और फिर उन्होंने तर्क दिया है कि हमारे जज़्बे में कोई कमी नहीं है. दिखने में ऐसा दिखता भी है. सरकार में आने के बाद खुद चुस्त दुरुस्त दिखाने के लिए रोज दसियों ऐलान होते चलने से यही लगता है कि इच्छाशक्ति में कोई कमी नहीं. अड़चनें दूसरी हैं.

वायदों और एलानों को लक्ष्य मानें या और कुछ
प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ जानते है कि विज़न, मिशन और लक्ष्य में फर्क क्या है. प्रशिक्षण के पाठ में पढ़ाया जाता है कि लक्ष्य वे तत्काल प्रभाव वाले कदम होते हैं जो किसी बड़े मिशन का हिस्सा होते हैं. और विज़न या दृष्टि को एक दो वाक्यों में कहा जाता है, वह होता ही ऐसा है कि उसका आखिरी छोर दिखाई न देता हो. मसलन स्वर्ग बना देने की बात. बस उसके मुताबिक उस तरफ चलने रहने से ही संतोष माना जाता है. लेकिन लक्ष्य एक एक करके हासिल होते हैं. लक्ष्य की नापतोल हो सकती है. उसकी दूरी भी नापी जा सकती है. लेकिन अगर लक्ष्य ही ऐसा हो जो नापतोल लायक न हो तो उसे विज़न या मिशन मानकर हम फिलहाल खुश हाते रह सकते हैं. इस लक्षण को सिर्फ एक प्रदेश में नहीं बल्कि देश और पूरी दुनिया की मौजूदा राजनीति में देखने का सुझाव है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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