क्‍या अखिलेश को उनकी 'जगह' बता दी गई है...

क्‍या अखिलेश को उनकी 'जगह' बता दी गई है...

यूपी के मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव (फाइल फोटो)

आखिरकार अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी में अपनी जगह बता ही दी गयी है. उनके चाहने या न चाहने से कुछ नहीं होता, पार्टी वैसे ही चलेगी जैसे उनके पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव चाहते हैं. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाले रहें यही उनके लिए काफी है, उनकी पसंद-नापसंद या समर्थकों के लिए भी पार्टी में कोई जगह है नहीं.

यह सारे बयान किसी ने दिए नहीं हैं, बल्कि यह सार है उस घटनाक्रम का जो पिछले महीने (सितम्बर) प्रदेश के मुख्य सचिव और दो मंत्रियों की बर्खास्तगी के साथ सामने आया और जिसके दौरान उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी यादव परिवार में अंतर-विरोध सड़क पर आ गया था. समर्थन और विरोध के इस प्रदर्शन के बाद पार्टी में बदलाव का सिलसिला शुरू हुआ जिसके अंतर्गत अखिलेश समर्थकों को पार्टी से निकला गया और पार्टी कार्यकारिणी में भी उनके समर्थकों को कोई जगह नहीं दी गयी.

मुलायम सिंह यादव ने दोनों के बीच सुलह करायी, अखिलेश की बजाय शिवपाल पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने और उन्होंने कई विधानसभा क्षेत्रों से पूर्व में घोषित प्रत्याशी बदले और कई नए प्रत्याशियों की घोषणा की. यहां भी वही हुआ जैसा मुलायम और शिवपाल चाहते थे. अपराधिक मामलों में आरोपित लोगों को सपा का टिकट दिया गया और सबसे ताजे घटनाक्रम में कौमी एकता दल के सपा में विलय की औपचारिक घोषणा कर दी गयी. बताया गया कि विलय तो पहले ही हो चुका है.

इस मामले पर अखिलेश अपनी नाराजगी पहले भी दर्शा चुके हैं लेकिन अब तो विलय हो ही गया और यह निर्णय पार्टी के राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्ष की सम्मति से लिया गया, ऐसे में मुख्यमंत्री की क्या कोई भूमिका है भी?

शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के रिश्तों में आई कड़वाहट की वजह कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय ही था. जब शिवपाल यादव ने जून में कौमी एकता दल का विलय समाजवादी पार्टी में करवाया तो अखिलेश यादव ने अपनी नाराजगी मुलायम सिंह यादव के करीबी बलराम यादव को कैबिनेट से बर्खास्त कर जताई. कहा गया कि बलराम यादव ने कौमी एकता दल के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इतना ही नहीं अखिलेश यादव ने साफ कह दिया था कि वह पार्टी में किसी दागी चेहरे को बर्दाश्त नहीं करेंगे. अखिलेश की इस नाराजगी के बाद मुलायम सिंह यादव ने 28 जून को लखनऊ में पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक बुलाई और कौमी एकता दल के विलय को निरस्त कर दिया. इसके बाद ही बलराम यादव की दोबारा कैबिनेट में वापसी हो सकी.

कौमी एकता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कथित माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के बड़े भाई पूर्व सांसद अफजाल अंसारी हैं, और पार्टी में मुख़्तार और उनके तीसरे भाई सिगबतुल्ला अंसारी प्रमुख हैं. पार्टी का सीमित प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में है. वर्ष 1996 में मुख्तार अंसारी मऊ से बसपा के टिकट पर विधायक चुने गए थे और उन्होंने 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में भी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीत हासि‍ल की. वर्ष 2012 के चुनाव के पूर्व मुख्तार ने कौमी एकता दल का गठन किया.

इसके पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही एक और प्रख्यात बाहुबली नेता अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमन मणि त्रिपाठी को भी सपा का टिकट दिया गया है. अमन मणि पर अपनी पत्नी सारा की हत्या का आरोप है जिसकी जांच चल रही है और अमर मणि स्वयं अपनी कथित प्रेमिका की हत्या के आरोप में दोषी पाए जाने के बाद से जेल में हैं.

ऐसा लग रहा है कि समाजवादी पार्टी में वर्ष 2012 से 2016 तक कोई अचानक सा बदलाव आया था और पार्टी अब फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट आई है. वही लोग, वही बातें और वही माहौल एक बार फिर दिखने लगा है जिसके लिए समाजवादी पार्टी जानी जाती थी. अखिलेश यादव तो शायद एक चेहरा था जिसे 2012 में भारी बहुमत से जीतने के बाद किसी बड़ी मज़बूरी में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया था. तब से लेकर अब तक तमाम मौकों पर उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी अखिलेश के शासन करने के तरीके की आलोचना कर चुके हैं, ऐसा भी कहा जाता है कि सरकार के कथित विकास सम्बन्धी तमाम निर्णयों से वे सहमत नहीं थे.

तो फिर समाजवादी पार्टी के तथाकथित विकास के दावों और उपलब्धियों के दम पर चुनाव लड़ने और जीतने का क्या होगा? क्या जिन लोगों ने पिछले चार वर्षों में समाजवादी पार्टी के एक नए रूप और चेहरे की वजह से उसका समर्थन किया था वे फिर एक बार समाजवादी पार्टी के पुराने चेहरे को ही दोबारा चुनने के लिए बाध्य होंगे? क्या समाजवादी पार्टी इस शाश्वत नियम का एक और उदाहारण है कि चीजें जितना बदलती हुई दिखती हैं उतना ही वे नहीं बदलतीं? क्या राजनीति करने के पुराने तरीके का प्रभाव इतना जबरदस्त है कि उससे उबर पाना नयी पीढ़ी के किसी उभरते नेता (जैसे अखिलेश) के लिए संभव नहीं है? क्या कांग्रेस के राहुल गांधी भी इसी नियम का शिकार हैं जिस वजह से वे इतनी मेहनत के बाद भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कोई छाप छोड़ पाने में असफल रहे, और अंततः उन्हें भी मोदी पर व्यक्तिगत टिप्पणी करनी ही पड़ी?

अगर ऐसा है, और यदि इसका कोई भी सम्बन्ध वंशगत राजनीति से है, तो यह अत्यंत निराशाजनक है. राजनीतिक परिवारों की नयी पीढ़ी के नुमाइंदों से यह उम्मीद की जाती है कि व कुछ नया करेंगे, और अगर किसी भी तरह के दबाव या सीमा के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, कई अन्य राज्यों में भी आने वाले दिनों की राजनीति में छिपे सन्देश देखने होंगे.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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