नीतीश कुमार को क्या अपने 15 सालों पर भरोसा नहीं है?

नीतीश राजनीति का चक्का इतना पीछे ले जाना चाहते हैं तो बिहार का मौजूदा विकास ही इसकी इकलौती वजह नहीं है. इसकी कुछ और वजहें भी बहुत स्पष्ट हैं.

नीतीश कुमार को क्या अपने 15 सालों पर भरोसा नहीं है?

नीतीश संभवतः पहले मुख्यमंत्री हैं जो अपने 15 साल पर नहीं, उसके पहले के 15 साल पर वोट मांगने निकले हैं

नीतीश कुमार अकेले मुख्यमंत्री नहीं हैं जिन्होंने 15 साल लगातार शासन किया. दिल्ली आने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन बार चुने जा चुके थे और लगभग 13 साल पूरे कर चुके थे. दिल्ली में शीला दीक्षित ने 15 साल पूरे किए, उसके बाद चुनाव हारीं. ओडिशा में नवीन पटनायक भी उनसे लंबे समय से सरकार चला रहे हैं.

लेकिन इनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि वोटर उनसे पहले के कार्यकाल से उनके पंद्रह सालों की तुलना करें. नीतीश संभवतः पहले मुख्यमंत्री हैं जो अपने पंद्रह साल पर नहीं, उसके पहले के पंद्रह साल पर वोट मांगने निकले हैं. पंद्रह साल का समय कम नहीं होता. इतने समय में एक पूरी पीढ़ी होश संभालती है. बिहार के जो युवा वोटर हैं- यानी 20-25 साल तक के- उनकी स्मृति में नीतीश से पहले की राजनीति नहीं है. इस पीढ़ी के सामने आज का बिहार है और बाक़ी दुनिया या देश के दूसरे हिस्से भी हैं. बहुत संभव है कि उन्हें अपना बिहार आज मायूस करता हो. उन्हें लगता हो कि महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और कर्नाटक जैसे राज्यों के मुक़ाबले उनका राज्य काफ़ी पिछड़ा है. खासकर इस कोरोना काल में, जब उन्होंने लाखों बिहारी नागरिकों को दूसरे प्रदेशों से पैदल बदहाल, लौटते और सड़क पर मरते देखा तो उन्हें महसूस हुआ कि बिहार में सड़कें तो बनीं, लेकिन वे लोगों को बस बाहर ले जाने के लिए बनीं, बिहार के भीतर किन्हीं कारखानों, कार्यस्थलों तक ले जाने के लिए नहीं.

लेकिन नीतीश राजनीति का चक्का इतना पीछे ले जाना चाहते हैं तो बिहार का मौजूदा विकास ही इसकी इकलौती वजह नहीं है. इसकी कुछ और वजहें भी बहुत स्पष्ट हैं. पहली यह कि अगर पंद्रह साल पुराना विमर्श चला तो लोग भूल जाएंगे कि अपने पंद्रह वर्षों के दौरान नीतीश ने क्या-क्या किया. मसलन इस बात की चर्चा पीछे छूट जाएगी कि नीतीश अपनी राजनीतिक सुविधा से किस तरह कलाबाज़ी खाते रहे हैं. ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर छाप भर दिए जाने से वे ऐसे नाराज़ हुए कि बाढ़ग्रस्त बिहार को गुजरात से मिली मदद वापस करने की घोषणा कर दी. जाहिर है, तब उन्हें सांप्रदायिकता से लड़ना था. और सिर्फ़ पांच साल पहले लालू यादव से हाथ मिलाकर चुनाव लड़ने में उन्हें गुरेज़ नहीं हुआ. साफ है कि 2015 में लालू यादव के साथ गठजोड़ की मदद नहीं होती तो बीजेपी उन्हें उसी वक़्त ठिकाने लगा चुकी होती. लेकिन पहले लालू यादव के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी कुर्सी बचाई और फिर बीजेपी से चिपक लिए.

दरअसल इसमें कुछ भी ग़लत नहीं कि नीतीश लगातार मुख्यमंत्री बने रहना चाहें. किसी भी राजनेता में यह इच्छा स्वाभाविक होती है. लेकिन इसके लिए वैचारिक छल-कपट का सहारा लेना ठीक नहीं. नीतीश लगातार यह करते दिख रहे हैं. अब पंद्रह सालों का जो जंगल राज उन्हें याद आ रहा है, उसे वे उन दिनों सुविधापूर्वक भूल गए.

लेकिन यह लेख नीतीश के वैचारिक स्खलन की पड़ताल के लिए नहीं लिखा जा रहा, बिहार के हालात को समझने के लिए लिखा जा रहा है. दरअसल पंद्रह साल बनाम पंद्रह साल का जो मुद्दा बनाया जा रहा है, उसके पीछे दो मिथक काम कर रहे हैं. पहला मिथक यह है कि लालू यादव का कार्यकाल बिहार का जंगल राज था और दूसरा मिथक यह है कि नीतीश के आते बिहार बिल्कुल सुधर गया. इन पंक्तियों का लेखक लालू यादव के बिहार का नागरिक रह चुका है और इसलिए अपने अनुभव से जानता है कि लालू यादव के दौर में जिन प्रवृत्तियों को अलग से पहचाना गया, वे दरअसल पहले से मौजूद थीं, बस फ़र्क इतना पड़ा कि उनकी कमान बदल गई, उनका नेतृत्वकारी वर्ग बदल गया. बिहार के विश्वविद्यालय लालू यादव के आने से पहले ही अराजकता और जातिगत सड़ांध के शिकार थे. बिहार के छात्रों का पलायन अस्सी के दशक के आख़िरी वर्षों में शुरू हो गया था, जब लालू यादव मुख्यमंत्री नहीं बने थे. इसी तरह बिहार में जातिगत संरचनाओं के भीतर वर्चस्ववादी जातियों की दबंगई बेख़ौफ़ जारी थी. बल्कि लालू यादव के आने के बाद पहली बार यह वर्चस्व टूटा और इस वजह से कुछ जातिगत नरसंहारों की स्थिति भी बनी, लेकिन यह पुराना सिलसिला भी लालू यादव के कार्यकाल के बाद के दौर में ख़त्म हो चुका था. यही बात भ्रष्टाचार के बारे में कही जा सकती है. लालू यादव तो फिर भी चारा घोटाले की सज़ा काट रहे हैं, उसके पहले और बाद के घोटालों और घोटालेबाज़ों का ज़िक्र तो बिल्कुल ग़ायब है. लालू यादव के दौर के जिस अपहरण उद्योग की बात कही जाती है, उसका सिलसिला भी पुराना रहा है.

निस्संदेह लालू यादव की अपनी विफलताएं थीं. उनका सबसे बड़ा अपराध दरअसल यह था कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद भारतीय राजनीति और समाज की यथास्थिति बदलने का जो ऐतिहासिक अवसर उनके पास आया, उसे उन्होंने एक नए यथास्थितिवाद के निर्माण में लगा और गंवा दिया. राजनीति को बिल्कुल निजी करिश्मे तक सीमित मानते हुए उन्होंने उसे अपनी पारिवारिक हदों तक महदूद कर अपनी ही ताकत घटाई और इस क्रम में अपने कई विश्वसनीय सहयोगी खो बैठे. इससे ज़्यादा बुरा यह हुआ कि बिहार में परिवर्तन की जो संभावना थी, वह भी क्षीण होती चली गई. निस्संदेह उन्होंने कई शुरुआतें की थीं- जिस चरवाहा विद्यालय का लगातार वहां के पढ़े-लिखे तबके मज़ाक बनाते रहे, वह शिक्षा को गरीब आदमी के दरवाज़े पहुंचाने का एक बेहतरीन सैद्धांतिक उपक्रम था, बेशक, जिसका व्यावहारिक पक्ष आधा-अधूरा और इसलिए विडंबनामूलक रह गया. लेकिन लालू यादव के पंद्रह साल एक झटके में ख़ारिज नहीं किए जा सकते. निस्संदेह उनके शुरुआती वर्ष बिहार की कई सामाजिक जड़ताओं को तोड़ने की कोशिश के साल भी थे. ध्यान रखने की बात यह है कि अगर लालू यादव मुख्यमंत्री नहीं बन पाए होते, अगर उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति की बुनियाद इतनी मज़बूत न की होती तो आने वाले दिनों में न नीतीश का रास्ता बनता और न जीतनराम मांझी का. बिहार की राजनीति में अगर इस बार इतने सारे गठबंधन दिख रहे हैं तो बस इसलिए नहीं कि इसके पीछे बीजेपी का खेल है, बल्कि इसलिए भी कि बिहार में निचली और पिछड़ी जातियों की राजनीतिक आकांक्षाएं भी बड़ी और मुखर हो रही हैं.

निश्चय ही बिहार को इस राजनीतिक जातिवाद से पार पाना होगा. उसे विकास के झूठे एजेंडे पर चलने की जगह सामाजिक न्याय की वास्तविक चुनौतियों का वहन करना होगा. दुर्भाग्य से ख़ुद को सुशासन बाबू बताने वाले नीतीश कुमार भी यह काम नहीं कर रहे हैं. 2015 में जिस बिहार पैकेज को नरेंद्र मोदी किसी धागे से बंधी मिठाई की तरह लटका कर पेश कर रहे थे, उसी से बंधी और अटकी पड़ी योजनाओं को नीतीश भी आगे बढ़ा रहे हैं. ऐसा नहीं कि इस दौर में बिहार का विकास नहीं हुआ है. लेकिन इन पंद्रह सालों में दूसरे राज्य कहां से कहां पहुंच गए? वे लड़कियों और महिलाओं के आत्मनिर्भर और शिक्षित होने का हवाला देते हैं. लेकिन भूल जाते हैं कि बिहार में स्त्री शिक्षण की परंपरा पहले से मज़बूत रही है. ज़्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है, अगर 1974 के छात्र आंदोलन की स्मृति ही उनके भीतर बची हो तो वे याद कर सकते हैं कि किस तरह उसके बाद बनी छात्र संघर्ष युवा वाहिनी से निकल कर एक से एक तेजस्वी महिलाएं सामने आई थीं. वे चाहें तो फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों की नायिकाओं को भी याद कर सकते हैं.

लेकिन राजनीति इतना याद रखने की फ़ुरसत नहीं देती. वह तात्कालिक जोड़-घटाव के सहारे चलती है. नीतीश का ताज़ा हिसाब यही बताता है कि बीजेपी की बैसाखी के बिना वे इस बार नहीं चल पाएंगे. लेकिन बीजेपी का इतिहास बताता है कि वह बैसाखी ही नहीं, लकड़ी भी लगाती है. तो नीतीश को वह हाथ से सहारा भी दे रही है और चुपके से पांव से लंघी भी मार रही है. ये लंघी चिराग पासवान की है. अभी चिराग के खेमे से चुनाव लड़ने वाले नेता निष्कासित किए जा रहे हैं, लेकिन कल को सत्ता के समीकरण कुछ पलटे तो यही उम्मीदवार बीजेपी की मदद में खड़े हो जाएंगे तो क्या बीजेपी इनसे मदद नहीं लेगी? इतनी नैतिकता तो न नीतीश ने दिखाई है न बीजेपी ने- और न दोनों को एक-दूसरे से यह अपेक्षा होगी.

सवाल है, बिहार का क्या होगा? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है. लेकिन यह सच है कि बिहार की नई पीढ़ी के भीतर अगर नया नेतृत्व पाने की बेचैनी है तो वह पुराने चेहरों को नमस्कार करना चाहेगी. अगर नहीं है तो बिहार को राजनीति को अभी कुछ और भटकना होगा. नीतीश का हमारे पंद्रह साल बनाम पिछले पंद्रह साल दरअसल बिहार को भटकाने का एक और नया खेल भर है.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)

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