खौफनाक सच को उजागर करते तुषार कपूर

खौफनाक सच को उजागर करते तुषार कपूर

उनकी पहली ही फिल्म ‘मुझे कुछ कहना है’ हिट रही थी और साथ में उस फिल्म ने उन्हें नवोदित अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिलाया था। यह सोलह साल पहले की बात है। हालांकि इसके बाद वह चुप नहीं बैठे, कई फिल्में आईं ‘गोलमाल’‘क्या कूल हैं हम’‘शूटआउट एट लोखंडवाला’‘द डर्टी फिक्चर’ लेकिन कुछ ऐसा लगा मानो कि उनके नाम पर तुषारापात ही हो गया हो। इस दौर में वह तुषार कपूर के नाम से कम, जितेन्द्र के बेटे और सास-बहू सीरियल बनाने वाली एकता कपूर के भाई के रूप में अधिक जाने गये। शायद इसीलिए तुषार को लगा हो कि कुछ ऐसा किया जाये कि उन्हें उनके ही नाम से जाना जा सके और उन्होंने ऐसा करके भी दिखा दिया। उन्होंने अभी एक ऐसा काम किया है, जिसके बारे में आप जानते ही है -‘सेरोगेट फादर’ बनने का काम जिसे यथार्थ जीवन का ‘डेब्यू’कहा जा सकता है।

क्या उन्हें लाइफ टाइम अवार्ड मिलना चाहिए...
यहां यह साफ कर देना ठीक होगा कि सात साल पहले आमिर खान ने और तीन साल पहले शाहरुख ने भी ऐसा ही किया था। लेकिन वह दोनों विवाहित हैं और दोनों की अपनी पत्नियों से संतानें भी हैं। तुषार का मामला इस बारे में अनोखा इसलिए है क्योंकि वह कुंआरे हैं और उम्र भी अभी इतनी ज्यादा नहीं है कि उन्हें विवाह के अयोग्य ठहराया जा सके। 40 तक पहुंचने में अभी उन्हें साढे़ चार माह का वक्त लगेगा, सलमान 50 के होने को हैं और अभी भी उनका नाम ‘संभावित दुल्हों’ की लिस्ट में टॉप पर चल रहा है। तुषार ने सिंगल पेरेन्ट बनने का फैसला ही नहीं किया, बल्कि बनने के बाद प्रेस क्रान्फ्रेंस भी की। उनके पिता और बहन ने उनके पिता (अनजान मां) बनने पर सार्वजनिक रूप से हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की। स्वाभाविक तौर पर इन बातों ने उनकी जिन्दगी के इस निहायत ही निजी फैसले को सामाजिक-सांस्कृतिक दायरे में ला दिया है।

यह सामाजिक-सांस्कृतिक दायरा क्या है?
यह सामाजिक-सांस्कृतिक दायरा यह है कि पिता बनने के लिए, जैविक एवं वैध पिता बनने के लिए जरूरी नहीं है कि शादी ही की जाये। दरअसल, तुषार कपूर के इस साहसिक और नये कदम ने उन लोगों के विश्वास को हिलाकर रख दिया है  जो परिवार नामक संस्था को बेहद पवित्र, समाज की मूलभूत इकाई, भावनात्मकता का आधार और ईश्वर द्वारा स्वर्ग में किये गये निर्धारण पर गहरा विश्वास और आस्था रखते हैं। हां, तुषार ने प्रकृति के उस विधान की रक्षा करने में कोई आनाकानी नहीं की है कि ‘इस धरती पर जीवन को सुरक्षित रखा ही जाना चाहिए।’ प्रकृति की रुचि केवल अपने अस्तित्व की रक्षा में है। विवाह नामक संस्था से उसका कोई लेना-देना नहीं।

अपने ही अंश से वारिस
हमारे सामाजशास्त्रियों को चाहिए कि वह तुषार के इस कदम को वर्तमान दाम्पत्य- जीवन पर पड़ने वाले असह्य दबाव के विरुद्ध व्यक्त एक जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में देखने की कोशिश करें। यदि हम फिल्मी दुनिया की ही बात लें, तो पिछले दो सालों में ऋतिक, अरबाज और फरहान के जिन्दगियों को ले सकते हैं। यह चल नहीं पाये और संभाले भी नहीं संभले। हो सकता है कि तुषार जैसे कुंआरों के दिल-ओ-दिमाग में इस तरह की घटनाओं का खौफ बैठ जाता हो। इससे पहले परम्परागत दाम्पत्य के खिलाफ उठी एक बुलंद आवाज 'लिव-इन-रिलेशनशिप’ थी। एक दशक ने दिखा दिया कि यह भी दोनों (स्त्री-पुरुष) को संतुष्ट नहीं कर पा रही है, क्योंकि खिसकते-खिसकते वह भी ‘दम्पत्ति’ के करीब पहुंच रही है।

तो अंतिम उपाय यही बचता है कि ‘लिव’ ही न किया जाये, ताकि रिलेशन जैसी कोई ‘आशंका’ बचे ही नहीं। लेकिन वारिस प्राप्त कर लिया जाये, वह भी अपने ही अंश से। भारतकालीन नियोग परम्परा में ‘मां’अपनी होती थी, ‘इन-विट्रो फर्टिलाइज़ेशन’ परम्परा में पिता अपना होता है। बात तो वही है, केवल पाला बदल गया है।अब हमें इस कटु और कड़वे सच से आंख मिलाने की हिम्मत दिखानी ही होगी कि चाहे लड़के हों या लड़कियां, शादी के नाम से घबराने लगे हैं। तुषार कपूर का यह साहस इसी घबड़ाहट को परास्त करने का एक दांव है।

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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