दरकती दुनिया को बचाने की कवायद

सोचने की बात यह है कि इस तरह के जनमत संग्रह की आहट फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम और रोमानिया में भी सुनाई पड़ने लगी है. हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन अपनी दादागिरी से बाज़ नहीं आ रहा है.

दरकती दुनिया को बचाने की कवायद

दावोस में पीएम नरेंद्र मोदी.

पिछले एक पखवाड़े के अंदर वर्तमान विश्व के स्वरूप को व्यक्त करने वाले इन तीन महत्वपूर्ण शब्दों पर गौर कीजिये. दिल्ली में आयोजित रायसीना संवाद में दुनियाभर के करीब 100 देशों से आये प्रतिनिधियों ने जिस मुख्य विषय पर परस्पर संवाद किया था, वह था ''विश्व में आ रहे 'विघटनकारी बदलावों' का प्रबंधन कैसे किया जाये.'' स्विटजरलैण्ड के बर्फीले रिज़ार्ट दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर दुनियाभर के देशों ने ‘‘दरकती हुई दुनिया के लिए एक साझा भविष्य कैसे बनायें“ विषय पर बात की.

‘फ्रेक्चर्ड’ शब्द का इस तरह का प्रयोग समाज के संबंध में पहली बार पिछली शताब्दी के मध्य में एक प्रशासनिक चिंतक फ्रेडरिक रिग्स ने किया था. विश्व के संदर्भ में यह शब्द अभी पहली बार आया है. यह अवस्था किसी भी वस्तु अथवा व्यवस्था के टूटने से पहले की अवस्था होती है.

दावोस सम्मेलन में ही हमारे प्रधानमंत्री ने विश्व के सामने वर्तमान में उपस्थित जिन तीन सबसे बड़ी खतरनाक चुनौतियों को रखा, उनमें जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद के बाद तीसरा संरक्षणवाद था. यानी कि दुनिया 1990 के दौर से पहले के दौर की ओर लौट रही है. वस्तुतः यह वैश्विकरण इस संरक्षणवाद के ही विरोध में तो आया था.

दुनिया के संदर्भ में यदि हम ग्लोबलाइजेशन की शुरुआत, जो शुरू में बहुत धीमी थी, 1980 से मान लें, तो अभी तो इसने अपने जीवन के चार दशक भी पूरे नहीं किये हैं कि कैंसर की कोशिकाओं के होने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं. और ऊपर के तीन वक्तव्य इस डायग्नोस को प्रमाणित भी करते हैं. चौंकाने वाली बात तो यह लगी कि इन दोनों वैश्विक सम्मेलन में बोलने वाले दुनिया के लगभग पौने तीन सौ वक्ताओं में से एक ने भी ‘डिस्रपटिव’ और ‘फ्रेक्चर्ड’ शब्दों के प्रयोग पर सवाल नहीं उठाया. इसका अर्थ यह हुआ कि अब यह एक स्वीकार्य सत्य हो गया है.

ब्रिटैन की ‘ब्रेक्जिट घटना’ से शुरू हुई विघटन की यह प्रक्रिया ट्रम्प की ‘अमेरीका अमेरिकियों के लिए’ की नीति से होते हुए स्पेन के केटोलोनिया के रूप में एक अत्यंत चिन्ताजनक स्थिति तक पहुंच गई. यह मामला इसलिए अधिक संवेदनशील है, क्योंकि कुल पौने पांच करोड़ आबादी वाले राष्ट्र से यदि पौन करोड़ की छोटी-सी आबादी वाला एक प्रांत उससे अलग होने के प्रति अपना जनमत प्रदर्शित करता है, तो यह विश्व का नहीं, बल्कि राष्ट्र का ही विखंडन हो रहा है. जब राष्ट्र ही एक नहीं रह पा रहे हैं, जब वे ही संभाले नहीं संभल रहे हैं, तो फिर भला दुनिया को कैसे संभाला जायेगा?

यह राज्यों के विखंडन का अंत नहीं, बल्कि एक शुरुआत है. इसी दिशा में इंग्लैण्ड का स्काटलैण्ड तथा इटली के मिलान और वेनिस; जो क्रमशः इसके लोम्बार्डी एवं वेनेटो क्षेत्र में हैं, चल रहे हैं. वेनेटो क्षेत्र में ही विश्व प्रसिद्ध पर्यटक शहर वेनिस है. वहां भी केटोलोनिया की तरह जनमत संग्रह कराये जाने की मांग हो रही है.

सोचने की बात यह है कि इस तरह के जनमत संग्रह की आहट फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम और रोमानिया में भी सुनाई पड़ने लगी है. हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन अपनी दादागिरी से बाज़ नहीं आ रहा है. पिछले साल सीरिया के शरणार्थियों के प्रति यूरोप के अधिकांश देशों का जो रवैया रहा, वह ग्लोबलाइजेशन के फ्रेम में फिट नहीं बैठता. फिलहाल रोहिंग्या शरणार्थियों का मामला है.

अमेरीका और उत्तर कोरिया के तनाव ने पूरी दुनिया को तनाव में डाल रखा है. आतंकवाद के मामले पर दुनिया सीधे-सीधे दो गुटों में बंटी हुई है. आंतरिक रूप से इतनी दरकती दुनिया को आखिर कब तक एक करके रखा जा सकेगा? लगता नहीं कि यह वैश्वीकरण अपने जीवन का अगला एक अन्य दशक भी पूरा कर पायेगी.

डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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