‘102 नॉट आउट’ : आनंदवाद से सुखवाद की ओर छलांग…

फिल्म '102 नॉट आउट' का इतनी तेज़ी से हो रहा प्रभाव मार्क्सवादियों की कलाविषयक इस धारणा को बखूबी पुष्ट कर रहा है कि कलाएं समाज का आईना ही नहीं, समाज को बदलने और गढ़ने वाली छेनी-हथौड़ी भी होती हैं.

‘102 नॉट आउट’ : आनंदवाद से सुखवाद की ओर छलांग…

फिल्म '102 नॉट आउट' में अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर

नई दिल्ली:

'102 नॉट आउट' - यह वाक्य अब क्रिकेट की डिक्शनरी से निकलकर फिल्म के माध्यम से जीवन की डिक्शनरी में प्रवेश कर गया है. यह एक अच्छी शुरुआत है, जिसका भारतीय समाज स्वागत ही नहीं कर रहा है, इसे आत्मसात करने के लिए आगे भी आ रहा है. वैसे भी इस शताब्दी के मध्य तक भारत के जिस जनांकीय (डेमोग्रॉफिक) स्वरूप की तस्वीर पेश की जा रही है, उसे देखते हुए लोगों की यह अकुलाहट अभिनंदनीय है. इस फिल्म का इतनी तेज़ी से हो रहा प्रभाव मार्क्सवादियों की कलाविषयक इस धारणा को बखूबी पुष्ट कर रहा है कि कलाएं समाज का आईना ही नहीं, समाज को बदलने और गढ़ने वाली छेनी-हथौड़ी भी होती हैं.

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लेकिन मेरा उद्देश्य इस फिल्म के माध्यम से भारतीय चेतना में आ रहे उन बदलावों की ओर संकेत करना है, जो पिछले कुछ सालों से बड़ी तेज़ी और प्रबलता के साथ असर दिखाते मालूम पड़ रहे हैं, और मूल्यों का यह बदलाव पौराणिक भारतीय जीवन-दर्शन के विरोध में है. हां, वैसे हम इसे मूल-दर्शन का पुनरागमन भी कह सकते हैं.

वर्ष 2011 में धूम मचाने वाली एक फिल्म आई थी - 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' - यह फिल्म अपने नाम के ज़रिये अपने कथ्य को बहुत अच्छी तरह व्यक्त करने में सक्षम है. यह फिल्म अवाम से यही कह रही है कि जो कुछ भी है, वर्तमान ही है. चूंकि इसे अतीत बनना ही है; एक ऐसा अतीत, जो लौटकर कभी नहीं आता, इसलिए इसका भरपूर 'उपभोग' कर लो. ध्यान दें कि बात उपभोग की है, उपयोग की नहीं. यह चार्वाक दर्शन का आधुनिक संस्करण है.

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इस बीच वैश्वीकरण के 20 वर्षों ने भारतीय समाज के मध्यमवर्ग की क्रयशक्ति को बढ़ाकर उसके हाथों में उपभोग की वस्तुओं की एक लम्बी लिस्ट थमा दी थी, इसलिए इस फिल्म को केवल युवाओं ने नही, उनके अभिभावकों ने भी हाथों-हाथ लिया, और फिल्म के टाइटल ने एक मुहावरे की शक्ल अख्तियार कर ली. बाद में इसी थीम पर 'ये जवानी है दीवानी' तथा 'तमाशा' जैसी कई फिल्में आईं. '102 नॉट आउट' ऐसी ही नवीनतम मिसाल है, जो जवानी की सीमाओं को लांघकर 'जीवन' की बात करती है, जीवन ही की बात करती है. इसका 102-वर्षीय नायक (अमिताभ बच्चन) बड़े खूबसूरत और प्रभावशाली अंदाज़ में कुछ यूं कहता है, "मरने से मुझे नफरत है, और मैं यह बात पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं अभी तक एक बार भी नहीं मरा हूं..."

यहां हमें दो बातों पर गौर करना होगा. पहला है आनंदवाद, जो गौतम बुद्ध से पूर्व के भारतीय दर्शन का केंद्र रहा है. उस काल में ब्रह्म को आनंदस्वरूप एवं रसमय कहा गया. बाद में दुःखवाद चिंतन प्रबल होने लगा. आठवीं-नौवीं शताब्दी में जब शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अंतर्गत 'माया महाठगिनी' का विचार सामने आया, तो इसके बाद भारतीय जीवन से आनंदवाद एक प्रकार से गायब ही हो गया. फिल्म जैसे इन लोकप्रिय कला माध्यमों से उसी की पुनरावृत्ति होती मालूम पड़ रही है.



इसका दूसरा पक्ष आनंद बनाम उपभोग का है. सवाल यह है कि यह आनंद प्राप्त कैसे हो...? आर्थिक विकास की आवश्यकता कहती है - उपभोग से, अधिक से अधिक वस्तुओं का उपभोग करके. जबकि भारतीय दर्शन उपभोग के स्थान पर त्याग की बात करता है, राग की जगह विराग को महत्व देता है. फिलहाल वह सुखवाद की ओर छलांग लगाने को तत्पर जान पड़ रहा है.

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इस दृष्टि से वर्तमान काल को भारतीय समाज का संक्रमण काल कहा जा सकता है. समाज में आनंद और उपभोग के बीच एक द्वन्द्वात्मक संघर्ष जारी है. यदि अभी भी भारतीय समाज 'हैप्पी इंडेक्स' के मामले में 156 देशों में 133वें स्थान पर है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि अभी हमारे यहां सुख और आनंद की नई परिभाषा निश्चित नहीं हो पाई है. फिलहाल इस तरह की फिल्मों का उपयोग परिभाषा गढ़ने के लिए कंटेन्ट (तथ्य) के रूप में किया जा सकता है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं... 

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