खुलनी ही चाहिए समाज की खिड़कियां...

केवल साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाला देश सऊदी अरब सुन्नी मुसलमान प्रधान देश है. साथ ही यह इस्लामिक जगत का भी एक महत्वपूर्ण मुल्क है. ऐसे में सऊदी की इस घटना का प्रभाव विशेषकर दक्षिण एशिया के सुन्नी मुसलमानों पर पड़ना लाज़िमी है.

खुलनी ही चाहिए समाज की खिड़कियां...

फाइल फोटो

लोकसभा चुनाव से करीब 10 महीने पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह धमाकेदार घोषणा कर देश की सियासत को गर्मा दिया है कि वह हर जिले में दारुल कजा (शरिया अदालत) खोलेगी. ज़ाहिर है, इस प्रस्ताव का संबंध संवैधानिक अथवा लोकतांत्रिक स्वरूप से सीधे-सीधे न होकर हिन्दुस्तान बनाम इस्लाम से है, इसीलिए भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इस प्रस्ताव के खिलाफ तत्काल अपनी तीखी प्रतिक्रिया दे दी कि यह इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इंडिया नहीं है. आश्चर्य तो तब हुआ, जब समाजवादी पार्टी भी इसी पंक्ति में खड़ी दिखाई दी. यह सिक्के का दूसरा पहलू है.

सिक्के के पहले पहलू के दर्शन 25 जून के अख़बारों में छपे कुछ चित्रों में देखने को मिले. इस चित्र से जुड़ी सुखद घटना भारत से लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर दूर उस सऊदी अरब में घटी थी, जो इस्लाम की जन्मभूमि रही है, और जहां इस्लाम की दो सबसे पवित्र मस्जिद अल हरम और मदीना स्थित हैं. गौर करने की बात यहां यह भी है कि इस ऐतिहासिक और क्रांतिकारी घटना का स्रोत बना वहां का राजमहल, जब राजकुमार मुहम्मद बिन सलमान ने अपने देश की महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त देने संबंधी आदेश जारी किया. सुबह के अखबारों की ये तस्वीरें धूप से झुलसते चेहरों पर पानी की फुहारें बनकर उसे तरबतर कर गईं.

केवल साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाला देश सऊदी अरब सुन्नी मुसलमान प्रधान देश है. साथ ही यह इस्लामिक जगत का भी एक महत्वपूर्ण मुल्क है. ऐसे में सऊदी की इस घटना का प्रभाव विशेषकर दक्षिण एशिया के सुन्नी मुसलमानों पर पड़ना लाज़िमी है.

भारत के भी लगभग 19 करोड़ मुस्लिमों में सुन्नी बहुसंख्या में हैं. शियाओं की संख्या काफी कम है. साथ ही भारत के लगभग 50 लाख लोग सऊदी अरब में काम कर रहे हैं, जिन्हें 'भारत का संदेशवाहक' कहा जा सकता है, फिर चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों. तो क्या ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि सऊदी की खिड़की से निकलने वाली उदारवादी विचारों की यह बयार 3,500 किलोमीटर का सफर तय कर हिन्दुस्तान की फ़िज़ां को खुशनुमा बनाएगी...?

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की बंद खिड़कियों में चरमराहट होने लगी है. 'तीन तलाक' पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है. मुस्लिम लॉ बोर्ड द्वारा शरीयत अदालतें बनाने के प्रस्ताव के समानांतर ही इस देश की सर्वोच्च अदालत ने 'हलाला' तथा 'बहुविवाह' प्रथाओं पर विचार करने के लिए एक संवैधानिक पीठ के गठन की घोषणा की है. ये दोनों घोषणाएं दिख तो समानांतर रही हैं, लेकिन इनकी दिशाएं एक नहीं हैं, सो, हो सकता है, इनके निष्कर्ष आगे जाकर टकराव में तब्दील हो जाएं. यहां सोचने की बात यह है कि यदि ऐसा होता है, तो फिर क्या होगा...?

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि भारत का इस्लामिक समाज अपेक्षाकृत खुला हुआ समाज है. दिन-प्रतिदिन उसमें, विशेषकर उसके महिला वर्ग में, उदारवादी लोकतांत्रिक विचार सांस लेने लगे हैं. इसके बेहतरीन प्रमाण के तौर पर TV चैनल पर आने वाले 'इश्क सुभान अल्ला' धारावाहिक को पेश किया जाना गलत नहीं होगा. मुझे लगता है कि इस धारावाहिक का अंतिम निष्कर्ष, जिसके सुखद होने की संभावना अधिक है, इन दोनों के टकराव का अंतिम परिणाम होगा.

इस प्रकार समाज चाहे कोई भी हो, इसकी खिड़कियां खुलेंगी और खुलनी ही चाहिए.


डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.