केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के मौजूदा प्रमुख पहलाज़ निहलानी (फाइल फोटो)
थैंक्यू मिस्टर निहलानी, थैंक्यू...
पहले खुलासा कर दूं... यह थैंक्यू 'अर्द्धसत्य' के निर्देशक गोविन्द निहलानी के लिए नहीं है। यह थैंक्यू है केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड नहीं) के वर्तमान सर्वेसर्वा पहलाज निहलानी के लिए... साथ ही यह भी बता दूं कि दो बार थैंक्यू इसलिए, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी अनजाने में ही सही, देश पर दो बड़े अहसान किए हैं... खैर, इन दो अहसानों का खुलासा कुछ आगे...
किसी शायर ने कभी कहा था, 'बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा...' यह वाकया न केवल पहलाज के ही साथ हो गया, बल्कि 'उड़ता पंजाब' के साथ भी हो गया... यदि मैं और मेरे जैसे अन्य बहुत-से लोग यह फिल्म देखने गए, तो उसमें निहलानी जी के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती... अन्यथा यदि फिल्म के पहले दिन की कमाई में से एक शून्य गायब होकर केवल एक करोड़ रह जाता, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं थी...
निःसंदेह, फिल्म नशे की लत पर आधारित तो है, लेकिन वह इस समस्या को बहुआयामी तरीके से गहराई में जाकर उठाने में नाकाम रही है। इसका कारण फिल्मकार के पास समाजशास्त्रीय दृष्टि का अभाव होना जान पड़ता है। न तो यह बात साफ होती है कि पंजाब के युवा इसकी चपेट में क्यों आते जा रहे हैं (सिवाय उस 'द गबरू' गायक के कारण), और न उससे उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों की जानकारी मिलती है... इसके अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क की झलक भी नहीं मिलती। यहां तक कि इस ज़हर के राष्ट्रीय फैलाव की चर्चा भी नहीं है...
वस्तुतः इसका कारण है, इस ज्वलंत एवं संवेदनशील विषय का विशुद्ध फिल्मीकरण किया जाना... मध्यांतर के बाद तो फिल्म एक तरह से प्रेम और जासूसी के पुराने मकड़जाल में ही उलझकर रह गई है। यही कारण है कि जहां यहां तक पहुंचते-पहुंचते दर्शकों को स्तब्ध हो जाना चाहिए था, वहां वे आपस में बतियाने लगते हैं, और बीच-बीच में व्यंग्यात्मक कमेंट भी पास करते हैं, विशेषकर शाहिद कपूर तथा आलिया भट्ट पर...
तो निहलानी जी को पहला थैंक्यू इस राष्ट्रीय एहसान के लिए कि उन्होंने एक सामान्य-सी फिल्म को दर्शकों के लिए 'मस्ट' फिल्म बना दिया... इससे 'ड्रग्स' की समस्या पर जमकर बहस होने लगी, और पक्का है कि यह मामला पंजाब विधानसभा चुनाव में ज़ोर पकड़ेगा... लोग इसके बारे में सचेत हुए हैं, अन्यथा यह फिल्म आती और यूं ही चली जाती...
फिल्म प्रमाणन बोर्ड के कामों को लेकर इससे पहले भी विरोध के स्वर उठते रहे हैं... लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि विरोध के स्वर की आवाज़ इतनी ऊंची है, और एकतरफा भी... निहलानी की तरफ से बोलता कोई भी नजर नहीं आया... यहां तक कि मंत्री भी नहीं। अरुण जेटली तक को कहना पड़ा कि वह बोर्ड के काम से खुश नहीं... निहलानी जी की अपनी पूर्व बिरादरी तो उनके खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हो ही गई थी... सच पूछिए तो फिल्म की सामान्य समझ रखने वाले एक आम दर्शक को भी निहलानी जी के निहायत पिलपिले तर्क बिल्कुल पल्ले नहीं पड़ रहे थे... अंततः न्यायालय ने साफ-साफ कह दिया कि आपका काम कांट-छांट करना नहीं, सर्टिफिकेट देना है... आप अपना काम कीजिए तथा दशर्कों को उनका काम करने दीजिए...
तो दूसरा थैंक्यू उनके इस एहसान के लिए कि उनकी 'तथाकथित अतिवादी बौद्धिकता' वाली हरकतों ने बोर्ड की स्थिति को स्पष्ट कर दिया...
लेकिन एक बहुत बड़ी मुश्किल अभी बाकी है... अंग्रेजी में कहावत है, 'ओल्ट हैबिट्स डाई हार्ड...' पुरानी आदतें आसानी से जाती कहां हैं...? सुनने में आ रहा है कि अब निहलानी जी ने अनुराग कश्यप की अगली फिल्म 'हरामखोर' में यह कहकर पेंच डाल दिया है कि उसकी कहानी हमारे समाज के सम्मानित शिक्षकों की गरिमा के खिलाफ है... फिल्म में एक शिक्षक की उसकी शिष्या से प्रेम की कथा वर्णित है...
अब तो केवल अरुण जेटली जी का ही आसरा है... देखते हैं, बोर्ड के कामों के प्रति अपनी नाखुशी को, जो आज पूरे देश की नाखुशी बन गई है, खुशी में बदलने के लिए वह करते क्या हैं...?
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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