नोटबंदी के नश्तर से निकल आया है समाज का मवाद...

नोटबंदी के नश्तर से निकल आया है समाज का मवाद...

500 और 1,000 रुपये के बंद किए जा चुके नोट (फाइल फोटो)

नोटबंदी जैसे बहुआयामी प्रभाव वाले साहसिक एवं क्रांतिकारी कदम की पिछले एक महीने से जिस मुख्य बिन्दु को आधार बनाकर धुनाई की जा रही है, उस पर आक्रोश और निराशा नहीं, हंसी आती है. धुनाई के लिए हाथ में लिया गया 'आम आदमी की परेशानी की चिंता' का वह डंडा, जो उन्हें लोकतंत्र में सबसे मजबूत, मोटा, सुविधाजनक और निरापद लगता है, जबकि यह मामला परेशानी का उतना नहीं है, जिसने उच्च वर्ग को इतना अधिक परेशान कर रखा है. क्या इससे पहले इस देश की तीन-चौथाई आबादी बड़े आर्थिक सुकून के साथ रह रही थी...? हां, वह बैंक की लाइनों में ज़रूर नहीं लगती थी, क्योंकि उन लोगों ने उनके बैंक खातों में कुछ छोड़ा ही नहीं था, जिनके लिए वे आज इतने ज़्यादा परेशान नज़र आ रहे हैं.

दरअसल, नोटबंदी की यह घटना समाज के चेहरे पर से हटा दिए जाने वाले उस पर्दे (घूंघट नहीं) की तरह है, जिसके पीछे छिपे अलग-अलग तरह के चेहरों की सच्चाइयां नज़र आ रही हैं, इसलिए यहां ज़रूरी बात यह है कि इस परेशानी से परेशान होने की सच्चाई को समझा जाए.

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पिछले एक महीने में समाज के अंदर के जो नज़ारे देखने में आ रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है, मानो राज कपूर की फिल्म 'जागते रहो' का यथार्थीकरण हो गया हो. हां, सुबह तो नहीं हुई है, लेकिन उस सुबह के आने की शुरुआत ज़रूर हो गई है, और नोटबंदी के सूरज ने अपनी दस्तक दे दी है.

अखबार पढ़िए, चैनलों पर ख़बर देखिए. लगता है, समाज का मवाद निकलकर बाहर आ रहा है. सोने का व्यापार करने वाले हमारे सम्मानित अरबपति-खरबपति व्यापारियों के घर 8 नवंबर की रात को लक्ष्मी देवी अतिप्रसन्न होकर छप्पर फाड़कर प्रवेश कर गईं, और देवी का चमत्कार यह कि ऐसा अधिकांश के यहां हुआ. अब सीसीटीवी कैमरों की इतनी हिम्मत और क्षमता कहां कि वे उनकी छवि को कैद कर सकें. इस चमत्कार पर सवाल नहीं किए जा रहे हैं.

हमारे बैंकों को देखिए. उन्होंने तो कमाल ही कर दिया. वे प्रणम्य हैं, आराध्य हैं. वे सच्चे लक्ष्मीपुत्र हैं. जनता लाइन में खड़ी है, और उन्होंने अंदर ही अंदर एक छोटी-सी ऐसी लाइन बना रखी है, जो जनता की आंखों से ओझल है. फिर हमारे बैंक एनपीए का रोना रोते हैं. इस नोटबंदी ने इन पर से भी पर्दा उठा दिया है. क्या यह 'राइट टु इन्फॉरमेशन' का 'बिनमांगा थोक और सच्चा' उदाहरण नहीं है...? लेकिन इस पर बात नहीं हो रही है. बात यदि होती भी है, तो केवल सूचना देने भर के लिए. मुश्किल यह है कि बात करे कौन.

जन-धन खातों की छोटी-छोटी कटोरियों में धन की बाढ़ आ गई. क्या लोग नहीं जानते कि बादल कहां से फटा, जो यह पानी फूट पड़ा. हमारे श्रद्धेय धार्मिक केंद्र बड़े लोगों के कष्टों को दूर करने में लगे हुए हैं - कमीशन पर. हवाला कारोबार में 'हरित क्रांति' हो गई है. काले धन को सफेद करने के उपायों के मामले में हमने वैश्विक स्तर के इनोवेशन का प्रमाण दे दिया है.

यानी कि धुर गांव से लेकर चांदनी चौक तक के चेहरे धीरे-धीरे अनावृत्त होते जा रहे हैं. और यह कम बड़ी बात नहीं है कि इस देश की भोली जनता पहली बार धन के इस अश्लील खेल को अपनी आंखों से देख रही है कि 'कारोबार का कुछ पता नहीं, लेकिन सरेंडर किए जा रहे हैं दो लाख करोड़ रुपये...' हां, दो लाख नहीं, दो करोड़ भी नहीं, यह है दो लाख करोड़ रुपये, जिनकी गिनती थोड़ी कठिन है.

आप एक बात पर गौर कीजिए, और आपको करना ही चाहिए. जनता परेशान ज़रूर है, गुस्से में नहीं है. क्या आपको उसका 'सामूहिक गुस्सा' कहीं दिखाई दिया...? मैं 'व्यक्तिगत गुस्से' की बात नहीं कर रहा हूं. मैं शहर में रहने वाले थोड़े से गुस्साए मध्यम वर्ग के लोगों की बात भी नहीं कर रहा हूं. मैं 'राष्ट्रीय आक्रोश' की बात कर रहा हूं. यदि यह होता तो कुछ दिन पहले के 'भारत बंद' को ऐतिहासिक सफलता मिली होती, क्योंकि जब पर्स में पैसा ही नहीं है, तो बाजार खुलकर भी बंद जैसे ही तो थे.

साफ है कि लोगों में उत्साह है. वे अर्थशास्त्री भले न हों, लेकिन वे अपना और इतना अर्थशास्त्र तो जानते ही हैं - ईमानदारी और बेईमानी का अर्थशास्त्र. वे प्रतीक्षा कर लेंगे. आज़ादी के बाद से उनसे यही तो करवाया गया है. लेकिन अब उन्हें पहली बार लग रहा है कि 'कुछ किया भी जा रहा है...' प्रधानमंत्री की नीयत और नीति पर उन्हें कोई शक नहीं, और नोटबंदी की यह घटना लोकतंत्र की सच्ची ताकत भी दिखाती है. यही लोकतंत्र भी है - लोगों का तंत्र. थोड़ा सब्र रखें. बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अपने कैलकुलेटर की गणना से इसे असफल घोषित कर रहे हैं. यह महज उनकी आर्थिक सोच है, सामाजिक और राजनैतिक नहीं. भले ही यह घटना उस रूप में सफल न हो पाए, लेकिन इतना पक्का है कि यह असफल तो नहीं ही होगी.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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