नदी नहीं, मैया है नर्मदा...

मुख्य सवाल यह उठता है कि नर्मदा हमारी लोकचेतना में एक अचेतन तत्व के रूप में मौजूद है या चेतन व्यक्तित्व के रूप में...? यदि उसे हमारी लोक परंपरा पहले से 'नर्मदा मैया' मानकर चल रही है, तो फिर उसके लिए अलग से कानून बनाए जाने का औचित्य क्या है...?

नदी नहीं, मैया है नर्मदा...

राज्य भले ही लोक-कल्याण के लिए अस्तित्व में आया हो, लेकिन एक आधुनिक हो रहे समाज में राज्य और लोक के बीच द्वन्द्व और टकराव की स्थिति लगातार बनी रहती है. कारण यह है कि लोक जहां अपनी मान्यताओं और परम्पराओं से जुड़ा रहना चाहता है, वहीं राज्य समाज को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में उसके विरुद्ध कानून पारित करता रहता है. हाल ही में तमिलनाडु के पारंपरिक खेल जल्लीकट्टू में समाज और न्यायालय की खींचतान तथा फिलहाल तीन तलाक पर चल रही सुनवाई के मामले में इस द्वन्द्व और टकराव को बहुत अच्छी तरह देखा और समझा जा सकता है.

लेकिन हर मामले में ऐसा नहीं होता. वह स्थिति तो कमाल की स्थिति होती है, जहां राज्य के नियमन को लोक का आधार मिल जाए. इससे परिवर्तन की प्रक्रिया न केवल तेज़ हो जाती है, बल्कि सुनिश्चित भी हो जाती है. लेकिन क्या भारतीय राज एवं सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में इसके शुभ परिणाम हमें इसी रूप में देखने को मिल रहे हैं...?

इस संदर्भ में मैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उस वक्तव्य का उल्लेख करना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने राज्य विधानसभा द्वारा नर्मदा नदी को 'वैधानिक व्यक्ति' संबंधी कानून पारित कराए जाने की बात कही है. निःसंदेह उनके दिमाग में यह बात कुछ ही दिन पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक फैसले द्वारा गंगा-यमुना नदियों को 'जीवंत इकाई' घोषित किए जाने से आई होगी. इससे चार दिन पहले ही न्यूज़ीलैंड ने अपनी वांगनुई नदी के लिए 'लिविंग एन्टिटी' संबंधी कानून बनाया था.

खैर, यहां मुख्य सवाल यह उठता है कि नर्मदा हमारी लोकचेतना में एक अचेतन तत्व के रूप में मौजूद है या चेतन व्यक्तित्व के रूप में...? यदि उसे हमारी लोक परंपरा पहले से 'नर्मदा मैया' मानकर चल रही है, तो फिर उसके लिए अलग से कानून बनाए जाने का औचित्य क्या है...? इससे तो यही लगता है कि या तो हमारी राजव्यवस्था को लोकचेतना पर विश्वास नहीं, या हमारी लोकचेतना में मौजूद नर्मदा का यह मानवीय स्वरूप झूठा है...?

इन सभी प्रश्नों से परे एक और बात भी है. हालांकि 'नर्मदा सेवा यात्रा' हर साल आयोजित होती है, लेकिन इस बार मध्य प्रदेश सरकार ने अपने प्रयासों से इसे एक राष्ट्रीय स्वरूप देने की कोशिश की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जैसे नेता एवं जैकी श्रॉफ तथा गोविंदा जैसे लोकप्रिय फिल्मी नामों का इससे जोड़ा जाना, इसी तथ्य की ओर संकेत करता है. इससे साफ लगता है कि राज्य के लोगों के दिल और दिमाग में नर्मदा नदी के लिए हज़ारों साल से प्रेम और श्रद्धा की जो भावना मौजूद है, उसे अधिकतम रूप में जाग्रत कर उस भावनात्मक ऊर्जा का इस्तेमाल नर्मदा के संरक्षण में किया जाए. और निश्चित रूप से इस प्रयास के जितना सफल होने की संभावना है, उतनी सफलता की संभावना कानूनी प्रयासों से नहीं, क्योंकि कानून तो एक नहीं, कई-कई पहले से मौजूद हैं. इन्हें इसी विधानसभा ने पारित किया है, लेकिन नर्मदा है कि दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होती जा रही है.

जहां तक नर्मदा के जीवंत इकाई होने का प्रश्न है, इस बारे में 'स्कंद पुराण एवं वायु पुराण' में विस्तार के साथ वर्णन मिलता है. इन पुराणों के रेवाखण्ड में नर्मदा के जन्म एवं महत्व की विस्तार के साथ चर्चा की गई है. नर्मदा का एक नाम रेवा भी है. प्राचीन ग्रंथों में इस नदी का एक अन्य नाम 'शंकरी' भी मिलता है. इसका अर्थ है - शंकर की पुत्री. ज़ाहिर है, नर्मदा को एक पवित्र नारी के रूप में मानवीकृत किया गया है.

इससे जुड़ी कुछ अन्य ऐसी कथाएं भी हैं, जो ग्रंथों से निकलकर लोगों की ज़ुबान पर आ चुकी हैं और लोगों से बातचीत के दौरान उन्हें उनके भाषाई और किस्सागोई के अंदाज़ में सुनकर उसका आनंद उठाया जा सकता है. एक वर्णन यह भी है कि नर्मदा और सोन नदी ब्रह्मा की आंखों से गिरी हुई आंसू की बूंदें हैं. इस वर्णन में नर्मदा नदी की पवित्रता का भाव निहित है, इसलिए लोक-जीवन इसमें पवित्र डुबकियां लगाकर इस पर भरपूर आचरण भी करता है कि नर्मदा में स्नान करने से पापों का अंत हो जाएगा. अब यह बात अलग है कि हम उसकी पवित्रता के साथ क्या सलूक कर रहे हैं.

एक रोचक कथा और भी है, जो लोक विश्वास पर आधारित है. नर्मदा क्षेत्र के लोगों का यह मानना है कि नर्मदा सोनभद्र नदी के प्रेम में पड़ गई थी. यह प्रेम प्रसंग अपनी परिणति को प्राप्त नहीं कर सका, जिस कारण नर्मदा नाराज़ होकर उल्टी दिशा में बहने लगीं.

ज़ाहिर है, जहां राजसत्ता के पास लोकचेतना की इतनी मजबूत, बड़ी और गहरी शक्ति हो, उसे क्यों अपने आपको किसी विधान का मोहताज बनना चाहिए. फिर भी यदि ऐसा किया जाता है, तो वह कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमज़ोरी को व्यक्त करता है, चाहे इस कमज़ोरी का कारण कुछ भी हो...

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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