डॉ विजय अग्रवाल : संसद को लेकर 'बूढ़े' जैसा आक्रोश है पूरे मुल्क में...

डॉ विजय अग्रवाल : संसद को लेकर 'बूढ़े' जैसा आक्रोश है पूरे मुल्क में...

राजनीतिक गर्मी के बावजूद संसद का शीतकालीन अधिवेशन तुषारापात का कुछ ज़्यादा ही शिकार रहा। लोकसभा ने 104 प्रतिशत काम किया, जबकि राज्यसभा ने मात्र 46 प्रतिशत। इस बार का संसद का यह गतिरोध निर्भया मामले के नाबालिग दोषी को छोड़ने को लेकर लोगों की चिंता और आक्रोश का कारण बन गया। लोकसभा ने किशोर न्याय संशोधन विधेयक मई में ही पारित कर दिया था, लेकिन उच्च एवं प्रबुद्ध सभा इस बात पर विचार करने के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाई। दुष्कर्मी छूट गया और लोग गुस्से से तिलमिला उठे, क्योंकि मामला काफी भावनात्मक था। ऐसे में यह सोचना लाज़मी ही है कि ऐसा क्या किया जाए, ताकि भविष्य में ऐसा न हो, केवल ऐसे मामलों में ही नहीं बल्कि, किसी भी मामले में।

भारत के संविधान और राजनीतिक प्रणाली के केंद्र में है - संसदीय लोकतंत्र, यानी सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होगी। संसद का मतलब है - राष्ट्रपति, राज्यसभा एवं लोकसभा, लेकिन जब सरकार के इसके प्रति उत्तरदायी होने की स्थिति आती है, तब इसका अर्थ बदलकर हो जाता है - लोकसभा। यह ठीक भी है, क्योंकि यही वह सदन है, जिसमें जनता सीधे अपने प्रतिनिधि भेजती है। यही सच्चा जन-सदन है, इसलिए अविश्वास प्रस्ताव भी यहीं रखा जाता है और यही सदन इस पर फैसला भी करता है। यहां राज्यसभा कहीं है ही नहीं।

यदि सरकार का गठन और उसका अस्तित्व पूरी तरह मात्र लोकसभा पर निर्भर है, तो राज्यसभा को यह अधिकार क्यों होना चाहिए कि वह उसके द्वारा पारित विधेयक को रोक दे...? ब्रिटेन में भी पहले ऐसा ही था, लेकिन जब संकट अधिक बढ़ गया, जो हमारे यहां भी दिखाई दे रहा है, तो सन् 1949 में लेबर पार्टी ने एक पार्लियामेन्ट एक्ट पारित कर उच्च सदन के (हाउस आफ लॉर्ड्स) के अधिकारों को सीमित कर दिया। अब उच्च सदन की असहमति के बावजूद यदि निम्न सदन एक वर्ष के अन्दर उसे दोबारा पारित कर देता है, तो उसे पारित मान लिया जाता है। याद रहे, हमारा संसदीय मॉडल भी ब्रिटेन का ही है।

लोकसभा के सदस्य जनता से कुछ वादे करके सदन में आते हैं, सो, यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने वादों को पूरा करें। राज्यसभा का कोई सीधा दायित्व जनता के प्रति नहीं होता, लेकिन वादों को पूरा करने के लिए पारित प्रस्तावों को स्वीकार-अस्वीकार करने का अधिकार उसे है; जैसा फिलहाल वस्तु एवं सेवा कर विधेयक (जीएसटी बिल) के मामले में देखने को मिल रहा है। तो यहां समस्या यह है कि वादा करने वाला सदन स्वयं को जनता के विश्वास पर खरा साबित कैसे करे...? उसका धर्मसंकट लोकसभा के विश्वास तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इससे भी कई गुना अधिक जनता के विश्वास तक व्यापक है। उसका डर जनता का विश्वास खोने का डर है। उसे जनता ने चुना है। उस दिन क्या होगा, जब जनता उनसे कहेगी कि 'आप अपने लिए जनता चुन लें...'' यह नौबत न आए, इसके लिए आवश्यक है कि इस बारे में लोकसभा को पहले से अधिक शक्तिशाली बनाया जाए।

ब्रिटेन में तो यहां तक व्यवस्था है कि वहां के उच्च सदन का सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। स्पष्ट है कि वहां निम्न सदन को ऊपर रखा गया है। कनाडा, फ्रांस, जापान तथा जर्मनी जैसे द्वि-सदनीय व्यवस्था वाले देशों ने भी सीधे-सीधे जनता द्वारा निर्वाचित सदनों को ही अधिकार-संपन्न बनाया है। अब भारत को भी चाहिए कि वह इस दिशा में विचार-विमर्श करे, क्योंकि संसद यदि विधायी कार्य ही नहीं कर सकेगी, तो फिर करेगी क्या।

इस बारे में गांव के एक अनपढ़ बूढ़े की समझदारी और आक्रोश को दाद देनी होगी। उसका कहना था कि 'हमारे लिए तो है कि काम नहीं तो दाम नहीं, लेकिन उनके लिए ऐसा नहीं है... वे लोग अपने लिए ऐसा कानून ही क्यों नहीं बना लेते कि वहां काम न होने देना ही काम है...'' फिलहाल पूरा देश इस बूढ़े की तरह ही महसूस कर रहा है।

डॉ विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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