मानसिक स्वास्थ्य विधेयक से उभरती चिंता की लकीरें

मानसिक स्वास्थ्य विधेयक से उभरती चिंता की लकीरें

पिछला पखवाड़ा यह कहता हुआ मालूम पड़ रहा है कि हमारे देश की व्यवस्था स्वास्थ्य के प्रति कुछ अधिक ही सजग हो गई है, जो स्वागतयोग्य है. भारत सरकार ने अभी-अभी जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति जारी की है, उसमें अलग से मानसिक स्वास्थ्य की बात कही गई है. उसी को ध्यान में रखते हुए मानसिक स्वास्थ्य विधेयक, 2016 भी पारित किया गया. यानी ध्यान केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर नहीं, मानसिक स्वास्थ्य पर भी है. इससे भी बड़ी बात, बीएस-3 तकनीक वाले वाहनों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह कहना था कि कंपनियों के फायदे के लिए लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. यह स्वास्थ्य और पर्यावरण के संबंधों के प्रति राष्ट्र की संवेदनशीलता को दिखाता है.

सबसे महत्वपूर्ण है मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित विधेयक का पारित होना, जिसकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अंतर्गत चर्चा भी की गई थी. इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि जो संसद अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयकों को निर्धारित समय से भी कम समय में पारित कर देती है, उसी संसद की लोकसभा ने इसके लिए निर्धारित दो घंटे के बदले सात घंटे लिए. ज़ाहिर है, देश मानसिक स्वास्थ्य के प्रति काफी चिंतित जान पड़ रहा है.

भारत के संदर्भ में इसके बारे में सोचने पर एक अलग तरह की चिंताजनक स्थिति बनती है. पूरी दुनिया इस देश को एक आध्यात्मिक भूमि के रूप में श्रद्धा के साथ पूजती है. बावजूद इसके कि वे यहां की सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं की दुःखभरी गाथाओं से अपरिचित नहीं हैं. वाराणसी जैसे शहर और वहां के गंगा के घाट चाहे कैसी भी बदहाली की हालत में क्यों न हों, लेकिन आध्यात्मिक अनुभूति की गहराई उन सबकी अनदेखी करके उसे एक नया ही रूप दे देती है. यह बात केवल वाराणसी के लिए नहीं, पूरे देश के लिए है.

भारत के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि यहां के लोगों का आर्थिक स्तर कितना भी कम क्यों न हो, जीवन के प्रति उनका आनंदवादी दृष्टिकोण उन्हें जीवन के अभावों से ऊपर उठा देता है. जीवन का यह आनंदवादी दृष्टिकोण भारतीय दर्शनशास्त्र के उस केंद्र से पैदा हुआ है, जिसमें ईश्वर को आनंदस्वरूप और जीवन को रसमय माना गया है.

यह काफी हद तक सच भी है और इसकी सच्चाई को गांव के लोगों के बीच जाकर महसूस किया जा सकता है. आधुनिकता के जबरदस्त दबाव और उपभोक्तावाद के आक्रमण से जूझते हुए देश के लोक जीवन ने अभी भी उल्लास और उमंग को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाकर रखा हुआ है. उनका जीवन आज की चिंता करता है, कल की नहीं. और हम सब जानते हैं कि हमारे देश की कुल आबादी का गांवों में बसने वाला 70 प्रतिशत भाग अभी भी कमोबेश ऐसी ही ज़िन्दगी बसर कर रहा है.

तो सवाल उठता है कि फिर ऐसे देश में मानसिक बीमारियां क्यों होती हैं...? इससे भी चिंताजनक बात यह है कि इस मामले में भी हमारा देश दूसरों से काफी आगे है. मानसिक बीमारियों की अंतिम परिणति आत्महत्या करने के जिस कदम पर होती है, उसमें भारत का स्थान विश्व में 12वां है. हर साल एक लाख लोगों पर 21 लोग इस भयावह हादसे को अपने सीने से लगा लेते हैं. सच पूछिए तो इस बारे में जब हम भूटान के आंकड़ों को देखते हैं, तो दिमाग ही घूम जाता है. 15 लाख की आबादी वाला बौद्धधर्मी छोटा-सा देश भूटान, जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक विकास सूचकांक की तर्ज पर दुनिया को हैप्पी इन्डेक्स दिया, उसकी स्थिति आत्महत्या के मामले में भारत से थोड़ी-सी ही दूरी पर है. वहां आकड़ा 21 के स्थान पर 22 का है. तो इससे सवाल यहां यह खड़ा होता है कि क्या जिन तत्वों को हैप्पीनेस का आधार बनाया गया है, वे तत्व या तो हैप्पीनेस देते नहीं हैं, या देते भी हैं, तो शायद हम उसे ले नहीं पा रहे हैं, अन्यथा आत्महत्या की नौबत आती ही क्यों. यह बात उल्लेखनीय है कि विधेयक में माना गया है कि आत्महत्या की कोशिश करने वाले पर आईपीसी. की धारा 309 के अन्तर्गत कोई भी मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. इसे एक बीमारी के रूप में लिया जाएगा.

मानसिक स्वास्थ्य की अन्य बीमारियों के बारे में भी भारत जैसे भाववादी और पारिवारिक जीवन जीने वाले समाज का दृश्य कोई बहुत अच्छा नहीं है. यह माना जा रहा है कि देश के लगभग छह से सात प्रतिशत लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं. अवसाद से ग्रस्त लोगों की संख्या तो बहुत ही ज्यादा है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि सन् 2005 से 2015 के बीच अवसाद में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. भारत का भी अनुपात लगभग यही रहा है, बल्कि इससे कुछ ज्यादा ही. सन् 1990 से पहले के दौर में युवाओं द्वारा कभी-कभार की जाने वाली आत्महत्याओं की खबरें लोगों को अन्दर तक हिला देती थीं. वहीं आज इस तरह की खबरें स्थानीय अखबारों के स्थायी स्तम्भ बन चुकी हैं. इससे साफ लगता है कि उदारीकरण के बाद दुनिया आर्थिक विकास के जिस मॉडल को लेकर चल रही है, उसने नई पीढ़ी के अन्दर एक जबरदस्त मानसिक तनाव (मानसिक संघर्ष नहीं) पैदा किया है. बात साफ है कि जब तक इस विषय पर सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विचार नहीं किया जाएगा, इस बीमारी को संक्रमण होने से रोक पाना सम्भव नहीं होगा.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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