...तो क्या अब यही हिन्दुत्व है...?

...तो क्या अब यही हिन्दुत्व है...?

प्रतीकात्मक चित्र

अभी तक भारतीय राष्ट्र में जो प्रमुख हिन्दू याद किए जाते हैं, उनमें राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद, विवेकानंद तो हैं ही, तिलक, गांधी, लोहिया भी हैं. ये वे लोग है, जिन्होंने आधुनिक हिन्दुत्व को नए तरीकों से देखा-मोड़ा और परिभाषित किया. इससे भिन्न भी एक अन्य सम्प्रदाय हिन्दुओं का बना, जिसकी परिणति एक ऐसे जुझारू और प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों में हुई, कहने को जो राष्ट्ररक्षा के लिए कटिबद्ध और संकल्पबद्ध हुए, पर रामायण सीरियल के बाद जो बजरंग दल आया, उसका मकसद शायद उस सबका विनाश, ध्वंस और प्रतिशोध था, जिससे उसके लोग सहमत नहीं थे.

इसमें वे उन हिन्दू-विचारकों और बौद्धिकों के विरुद्ध भी लामबंद होते रहे, जिन्होंने कोई नई बात कह दी. उनकी बात पर तार्किक ढंग से विचार-विमर्श करने के बजाय वे अक्ल को ताक पर रख संबंधित के विरुद्ध लट्ठ लेकर दौड़ पड़े. मैं नहीं कह सकता कि दिल्ली की गद्दी पर माननीय मोदी जी के आसीन होने पर ही क्यों पूना (पुणे), बंगलौर (बेंगलुरू) और अन्य शहरों में कई जाने-माने हिन्दू बौद्धिक और लेखक मार दिए गए, जो अंधविश्वासों, कर्मकाण्डवादी पुरोहितों और कुरीतियों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से अपनी बातें कह रहे थे. यही तो असहिष्णुता थी. गांधी जी जिस वैष्णवमार्गी हिन्दुत्व को मानते थे, उसमें तो यह बात प्रमुख है कि सच्चा हिन्दुत्व सिर्फ अपनी नहीं, अपने से जो अन्य हैं, उनकी भी पीड़ा को महसूस करता है और संवेदित या द्रवित होता है.

यह तो किसी भी हिन्दू धर्म शास्त्र में नहीं कहा या लिखा गया कि अपने से असहमत लोगों की हत्या कर दो. तब जो भी हिन्दुत्व की रक्षा के नाम पर हिन्दुओं को मार रहे थे, वे कितने हिन्दू थे और कितने राक्षसों को नई जमातें, यह आज नहीं तो कल सोचा ही जाएगा. और जब और जैसे ही ये हत्याएं हुईं, सरकारों की भूमिकाएं और प्रतिक्रियाएं क्या रहीं...? अगर वैष्णव संत कवि तुलसी ने लिखा कि - 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी / सो नृप अवस नरक अधिकारी...' तो यह किन राजाओं या मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों के लिए लिखा. कम से कम उन्हीं की बात हिंसक हिन्दुओं की समझ में आ जानी चाहिए थी. या फिर वे बरसों से अपना हिंसक मन लिए बैठे थे और अब झुण्ड बनाकर जिस-तिस निरीह पर हमला कर रहे हैं. उसकी जान ले रहे हैं. तो क्या अब हिन्दुत्व की नई परिभाषा बनानी होगी, और वह होगी प्रतिशोध ओर हिंसा. क्षमा और दया जैसे ऊंचे मूल्यों को परिभाषा से बाहर करना होगा. ये सनातन हिन्दुत्व के लक्षण नहीं हैं, अब ऐसा घोषित करना पड़ेगा...?

यह हिन्दूवाद अब व्यापक और विशाल हिन्दुत्व के लिए खतरे की घंटी इसलिए है कि चीन, अमेरिका, पाकिस्तान सब उस मौके के इंतजार में घात लगाए बैठे हैं कि कब भारत की बाईस करोड़ की आबादी अपनी सुरक्षा के प्रश्न को लेकर एक साथ उठ खड़ी हो और फिर से बचे-खुचे देश का इसी आधार पर विभाजन हो. तब क्या ये सब जो साम्प्रदायिक हिंसा फैला और कर रहे हैं, क्या राष्ट्र इन्हें विश्वासघाती और राष्ट्रघाती नहीं मानेगा. इन्हें आखिर कोई क्यों नहीं समझा पा रहा कि ये इस अति पुरातन देश और इसकी सामाजिक बनावट को समझें. या फिर ये लोग किसी ऐसे राजनीतिक कुविचार के तलछट हैं, जिसे कोई भी सुसभ्य समाज और सुलझी हुई राजनीति शायद ही कभी अपनाना चाहे.

दुःखद तो आज यह है कि सत्ता देश की अस्मिता और उसकी अखण्डता से भी बड़ी होती जा रही है. उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा कि जो व्यापक जन-समर्थन उसे मिल सका है, वह सामाजिक तनाव और साम्प्रदायिक हिंसा के लिए नहीं, उस राष्ट्रीय विकास के लिए मिला हुआ है, जो यह देश भुखमरी, गरीबी, लालफीताशाही से त्रस्त यहां की जन-बिरादरी अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए चाहती है. क्या सत्ता में बैठे लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा...? क्या यही 'सबका साथ और सबका विकास है...?' क्या कोरा राजनीतिक बयान भर काफी है...?

मैं जानता हूं और अन्य लोग भी समझते हैं और उनके अनुभवों में भी है कि क्यों बरसों से स्थापित एक सत्ता ने मुस्लिम कठमुल्लों के दबाव में सुप्रीम कोर्ट से जंग जीती शाहबानो (इन्दौर) को लोकसभा में अपने बहुमत के बल पर पराजित कर तुष्टीकरण का वह पाप किया था, जिसके विरुद्ध बहराइच के कांग्रेसी सांसद आरिफ मोहम्मद खान ने असहमत होकर अपना मंत्रिपद त्याग दिया था. सत्ताएं अपने सत्ता-स्वार्थों के लिए कहां तक जा सकती हैं, इसके अनेक अलोकतांत्रिक उदाहरण और प्रमाण इस देश के जनमत की स्मृति में हैं. तो क्या अब यह मान लें कि अब घड़ी की सुई उल्टी घूम रही हैं और तुष्टीकरण की नीति अल्पसंख्यकों से हटकर बहुसंख्यकों की दिशा में घूम चली है. अगर एक के पक्ष में तुष्टीकरण नाजायज़ है तो क्या दूसरे पक्ष में जायज़ है...?

इस देश के राजनेताओं को यह क्यों नहीं समझ में आना चाहिए और याद रखना चाहिए कि क्योंकर राम, हरिश्चंद्र, विक्रमादित्य या अकबर जैसे सम्राट अब भी लोकस्मृति का हिस्सा बने हुए हैं. इस तरह के कुछेक कण लालबहादुर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी में भी थे. ये सब 'राजधर्म' का मतलब जानते थे. अकारण ही नहीं ये सब इतिहास के अध्यायों से बाहर लोकस्मृति के इतिहास और पुराण का हिस्सा बनेंगे. छह-सात हज़ार साल का यह देश यादों का कूड़ादान नहीं है. इसे चाणक्य भी याद रहता है, मोहम्मद बिन तुगलक भी. अशोक और चन्द्रगुप्त भी. अलग-अलग कारणों से यह अपनी यादों को सुरक्षित रख अपनी श्रद्धा और घृणा प्रकट करता चलता है. यहां मुनाफाखोरों, कठमुल्लों, हिंसा में यकीन करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा गया. अगर ऐसा ही होता तो फिर हिंसाप्रधान ब्राह्मणवाद ही पर्याप्त था, बुद्ध की करुणा और महावीर की अहिंसा को इस देश और समाज ने 'अहिंसा परमो धर्म' कहकर क्यों अपना लिया.

पर अब भी जो लोग अहिंसक नहीं, हिंसक और रक्तपात-विश्वासी हैं, ऐसे हिंसक बलबले वाले हिन्दुओं को रचनात्मक दिशा की ओर मोड़ते हुए रोज़-रोज़ घायल और लहूलुहान होते कश्मीर के उन मोर्चों पर जाने या भेजने की योजना बनाई जाए, जिससे राष्ट्र भी लाभान्वित हो, गाय भी और हिन्दूवाद भी.

डॉ विजय बहादुर सिंह हिन्दी के सुपरिचित लेखक और आलोचक हैं...

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