यह ख़बर 11 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

चुनाव डायरी : उत्तर प्रदेश में बीजेपी की नज़रें ब्राह्मण वोटों पर...

नई दिल्ली:

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) प्रधानमंत्री पद के लिए अपने प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की पिछड़े वर्ग वाली पहचान को सामने रखकर एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग की कोशिश में है... पिछड़े-अगड़ों के गठजोड़ से पार्टी ने '90 के दशक में राज्य में बेहतरीन प्रदर्शन किया था, लेकिन धीरे-धीरे पिछड़ी जातियां उससे दूर होती गईं, और फिर अगड़े भी धीरे-धीरे कमजोर होती बीजेपी का साथ छोड़ने लगे... शुरुआत ब्राह्मणों ने की थी... वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने ब्राह्मणों को अपने साथ ले लिया, और वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी (सपा) का साथ दिया...

उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, और राज्य में करीब 10 फीसदी आबादी उन्हीं की है... राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 18 फीसदी मुसलमानों की तुलना में 10 फीसदी ब्राह्मण अधिक रणनीतिक ढंग से मतदान करते हैं... पिछले दो विधानसभा चुनाव इसके सबूत हैं... जब बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने अधिक ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाकर इस वर्ग को लुभाने की कोशिश की, उन्हें साथ मिला...

अब एक बार फिर लोकसभा चुनाव 2014 में इन्हीं दो पार्टियों की कोशिश इस वर्ग को अपने साथ लेने की है... बहुजन समाज पार्टी ने अभी तक 22 ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतार दिया है... मायावती अपनी ओर से एक बार फिर ब्राह्मणों के साथ रिश्ते सुधारने में जुट गई हैं... वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में इच्छानुसार कामयाबी न मिलने के बाद से उन्होंने भाईचारा कमेटियों को भंग कर दिया था, जबकि समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मण सम्मेलन करने शुरू किए थे और 'प्रमोशन में आरक्षण' के बीएसपी के कदम का विरोध किया था...

वैसे, पारम्परिक रूप से राज्य के ब्राह्मण कांग्रेस का समर्थन करते आए हैं, मगर जैसे-जैसे कांग्रेस की ताकत कमजोर हुई, ये वोट पहले बीजेपी और बाद में सपा और बीएसपी के साथ चले गए... कमलापति त्रिपाठी के साथ कांग्रेस की पहचान ब्राह्मणों से जुड़ी थी, और वहीं, अटल बिहारी वाजपेयी के बाद बीजेपी राज्य में मजूबत ब्राह्मण चेहरा नहीं तलाश पाई...

वाजपेयी और कल्याण सिंह के रूप में राज्य में बीजेपी के पास अगड़े-पिछड़े समाज के दो ताकतवर चेहरे थे और इन्हीं के दम पर पार्टी ने '90 के दशक में शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन कल्याण सिंह की बगावत से बीजेपी को राज्य में जो नुकसान हुआ, वह उसकी भरपाई अभी तक नहीं कर पाई है... अब कल्याण सिंह एक बार फिर बीजेपी में हैं... राज्य में हुई नरेंद्र मोदी की सभी रैलियों में उन्हें मंच पर खास जगह मिलती है, लेकिन अब उनमें वह करिश्मा नहीं बचा है...

दूसरी ओर, अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राज्य के ब्राह्मण नेतृत्व में गिने जाने वाले मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र और केशरीनाथ त्रिपाठी जैसे नेता अब उम्रदराज माने जाने लगे हैं और राज्य की राजनीति में उनकी पकड़ धीरे-धीरे कमजोर हो गई है... यह बात अलग है कि अब बीजेपी में ब्राह्मण नेतृत्व की नई पौध तैयार हो गई है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के बाद से पैदा हुआ शून्य बरकरार है...

उधर, ब्राह्मणों को साथ लेने की बीजेपी की कोशिशों को मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र और केशरीनाथ त्रिपाठी जैसे नेताओं की नाराजगी से झटका लगा है... ये तीनों ही नेता क्रमशः बनारस, कानपुर और इलाहाबाद से चुनाव लड़ना चाह रहे हैं, जबकि बीजेपी बनारस से नरेंद्र मोदी, जोशी को कानपुर से और कलराज मिश्र को श्रावस्ती से टिकट देना चाह रही है... केशरीनाथ त्रिपाठी दो विधानसभा चुनाव हार चुके हैं, और ऐसे में पार्टी उन्हें टिकट देने के मूड में नहीं हैं...

बीजेपी कई सीटों से नए ब्राह्मण चेहरों को भी उतारना चाह रही है... नरेंद्र मोदी के करीबी इन चेहरों के जरिये पार्टी राज्य में ब्राह्मण नेतृत्व की नई पौध को मजबूत करना चाहती है... कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को फिर मजबूत करने के लिए इस बार जितना अनुकूल माहौल है, उतना वर्ष 1998 के बाद से कभी नहीं रहा है...

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तमाम जनमत सर्वेक्षणों में भी कहा जा रहा है कि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है... कुछ सर्वेक्षणों में तो यह भी कहा गया है कि अगड़ी जातियां बीजेपी के पक्ष में गोलबंद हो रही हैं, लेकिन वास्तविकता में ऐसा तभी हो पाएगा, जब पार्टी उम्मीदवारों के चयन में सावधानी रखे... यूपी-बिहार के बारे में कहा जाता है कि चुनाव से पहले चाहे जिस पार्टी की हवा हो, लेकिन नतीजों के बारे में अंदाज़ा तभी लगाना ठीक होता है, जब सभी पार्टियों के उम्मीदवारों के नामों का ऐलान हो जाए...