भाजपा की एक बैठक का फाइल चित्र
नई दिल्ली:
हर चुनाव से पहले देश के सबसे राज्य उत्तर प्रदेश (यूपी) में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रदर्शन को लेकर बढ़-चढ़कर दावे किए जाते हैं... राज्य के नेताओं का पता नहीं, मगर केंद्र के नेता इस खुशफहमी में रहते हैं कि पार्टी '90 के दशक के सुनहरे दौर में वापस जा रही है... चाहे विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव, हर बार मतदान से पहले दावा किया जाता है कि भाजपा के पास उसका कोर वोट बैंक यानी अगड़े वापस आ रहे हैं और गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों के समर्थन से भाजपा खोई ताकत दोबारा हासिल कर लेगी, लेकिन नतीजे आने के साथ ही भ्रम टूट जाता है...
वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जादुई रणनीतिकार माने जाने वाले प्रमोद महाजन को यूपी की कमान सौंपी, मगर वह नाकाम साबित हुए... लोकसभा चुनाव 2009 में अरुण जेटली भी कोई करिश्मा नहीं दिखा सके... पिछले विधानसभा चुनाव में संगठन पर पकड़ रखने वाले संजय जोशी को नितिन गडकरी ने कमान दी, मगर भाजपा की सीटें घट गईं...
इस बार नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया है, और इस समय पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश से हैं... पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को लेकर राज्य में कार्यकर्ताओं में जबर्दस्त उत्साह है, और आम लोगों में उन्हें लेकर दिलचस्पी है... यूपी में मोदी की सभी रैलियों में भारी संख्या में भीड़ जुटी है, मगर उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही पार्टी हवा से उतरकर जमीन पर आती नजर आ रही है...
यूपी और बिहार के बारे में हमेशा कहा जाता है कि चुनाव से पहले चाहे जिस पार्टी या नेता की हवा हो, मगर जमीनी स्तर पर आकलन तभी हो सकता है, जब सभी पार्टियों के उम्मीदवारों के नामों का ऐलान हो जाए... उत्तर प्रदेश के लिए भाजपा ने 15 मार्च को 53 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की और उसके बाद से ही 50 से ज्यादा सीटें जीत लेने के उसके दावों की पोल खुलने लगी है... उम्मीदवारों के खिलाफ कार्यकर्ताओं का गुस्सा सड़कों पर दिखने लगा है... भाजपा नेताओं को एक बार फिर उसी भितरघात की आशंकाएं सताने लगी हैं, जिसकी शिकार पार्टी पिछले दो दशक से होती आई है...
भाजपा कार्यकर्ताओं को समझ नहीं आ रहा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह गाजियाबाद से लखनऊ क्यों गए... और गाजियाबाद से फिर बाहरी उम्मीदवार जनरल वीके सिंह को क्यों उतारा जा रहा है... जनरल वीके सिंह को सैनिकों के परिवार वालों की बहुलता वाली रोहतक या झुंझुनूं जैसी सीट से टिकट क्यों नहीं दिया गया... भाजपा कार्यकर्ता हैरान हैं कि पार्टी पिछले पांच साल तक संसद के भीतर और टेलीविजन स्टूडियो में मोदी और भाजपा के खिलाफ आग उगलने वाले जगदंबिका पाल को डुमरियागंज से टिकट देने पर क्यों आमादा है...
दो बार विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद केशरीनाथ त्रिपाठी का नाम इलाहाबाद से क्यों लिया जा रहा है... पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले कलराज मिश्र को देवरिया से टिकट देने के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर हैं... बिजनौर से एडवोकेट राजेंद्र सिंह को टिकट देने के खिलाफ कार्यकर्ताओं में गुस्सा है... जनरल वीके सिंह के खिलाफ तो गाजियाबाद में नारेबाजी हो ही रही है...
अमित शाह पार्टी की बैठकों में नेताओं-कार्यकर्ताओं से कहते रहे हैं कि उम्मीदवार चाहे कोई हो, लेकिन पार्टी का कहना है कि हर सीट पर मोदी ही उम्मीदवार हैं... ज़ाहिर है, भाजपा की रणनीति सिर्फ मोदी के नाम पर वोट मांगने की है, लेकिन खुद नरेंद्र मोदी कहते हैं कि हवा चाहे कितनी ही तेज़ चल रही हो, अगर ट्यूब पकड़कर खड़े हो जाएं तो अपने-आप हवा नहीं भर जाती... यानि मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाना ही पड़ेगा... सवाल यह है कि क्या यूपी का मतदाता मोदी को वोट देने के नाम पर खुद चलकर मतदान केंद्र तक जाएगा... या फिर उम्मीदवारों के चयन से नाराज भाजपा कार्यकर्ता उन्हें मतदान केंद्रों तक लाएंगे...
भाजपा के लिए अब भी यूपी में उम्मीद की एक ही किरण बची है... वह यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ता हर बूथ को संभालेंगे और भाजपा और मोदी के पक्ष में वोटरों को बूथ तक लाएंगे... लेकिन इतना तय है कि उम्मीदवारों के चयन में देरी और गलतियों ने भाजपा को राज्य में बहुत करारा झटका जरूर दिया है...