किसान संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी को ठुकराया

कोर्ट ने कानून को अनिश्चितकाल के लिए सस्पेंड नहीं किया है. अदालत ने कहा कि कमेटी का गठन उसके अधिकार क्षेत्र में आता है लेकिन जब सबसे बड़े पक्ष किसानों को उस कमेटी से कोई उम्मीद न हो ज़रूरत न लगे तो फिर कोर्ट को कमेटी क्यों बनानी चाहिए?

जितने स्पष्ट किसान थे कि कोर्ट की कमेटी में नहीं जाना है उतना ही स्पष्ट अदालत थी कि कमेटी बनानी ही है. कमेटी बन गई है और सदस्यों के नाम आ गए हैं. सरकार भी चाहती थी कि कमेटी बन जाए. सरकार नहीं चाहती थी कि कानून के लागू होने पर रोक लगे. सुप्रीम कोर्ट ने कानून के लागू होने पर रोक लगा दी है. सोमवार को लगा था कि सरकार कटघरे में है, मंगलवार को लग रहा है किसान कटघरे में हैं. इससे पहले आप यह पूछें कि कोर्ट ने कमेटी क्यों बनाई है, कोर्ट ने इसका भी जवाब दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम कमेटी अपने लिए बना रहे हैं. कमेटी का सुझाव इस मामले की सुनवाई की शुरूआत से ही साथ साथ चल रहा था. क्या कमेटी ही इस समस्या के समाधान का अंतिम रास्ता है? आखिर सुप्रीम कोर्ट को अपने लिए कमेटी बनाने की क्या ज़रूरत पड़ गई? इस पर कोर्ट ने कहा कि कोई भी ताकत, हमें कृषि कानूनों के गुण और दोष के मूल्यांकन के लिए एक समिति गठित करने से नहीं रोक सकती है. यह न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा होगी. समिति यह बताएगी कि किन प्रावधानों को हटाया जाना चाहिए और फिर वो कानूनों से निपटेगी. हम कानून को सस्पेंड करना चाहते हैं मगर सशर्त. लेकिन अनिश्चितकाल के लिए नहीं. हम ज़मीनी हकीक़त जानना चाहते हैं. आप सरकार के पास जा सकते हैं तो कोर्ट के पास क्यों नहीं जा सकते हैं? हमें नाम दीजिए. हम ये नहीं सुनना चाहते हैं कि किसान कमेटी के समक्ष पेश नहीं होंगे.

कोर्ट ने कानून को अनिश्चितकाल के लिए सस्पेंड नहीं किया है. अदालत ने कहा कि कमेटी का गठन उसके अधिकार क्षेत्र में आता है लेकिन जब सबसे बड़े पक्ष किसानों को उस कमेटी से कोई उम्मीद न हो ज़रूरत न लगे तो फिर कोर्ट को कमेटी क्यों बनानी चाहिए? क्या कमेटी से बात न करने पर किसानों के खिलाफ कार्रवाई होगी या सरकार की तरह कमेटी से बात करने वाले किसान खोज लाए जाएंगे? किसानों ने सोमवार रात ही साफ कर दिया था कि कमेटी का हिस्सा नहीं होंगे. मंगलवार को भी उनका फैसला यही था. 

आंदोलन को समस्या मान कर समाधान के लिए कोर्ट ने कमेटी बनाई. अब अगर उस कमेटी में आंदोलन के किसान ही न जाएं तो क्या यह नई समस्या नहीं होगी? क्या कमेटी के गठन के बाद अब आंदोलन के भी हटाने के आदेश दिए जाएंगे? कोर्ट ने कई बार कहा है कि प्रदर्शन करना अधिकार है. लेकिन यह भी कहा है कि वह देख सकता है कि जहां प्रदर्शन किया जा रहा है क्या वहीं किया जाना ज़रूरी है. मंगलवार को बहस के दौरान याचिकाकर्ता के एक वकील हरीश साल्वे ने कोर्ट को ध्यान दिलाया कि किसान आंदोलन की पैरवी कर रहे वकील दुष्यंत दवे, एच एस फुल्का, प्रशांत भूषण और कोलिन गोंज़ाल्विस पेश नहीं हुए हैं. चारों वकीलों ने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी. हमने फैज़ान मुस्तफा से इस बारे में पूछा. क्या आज आदेश का दिन नहीं था, क्या वकीलों को हाज़िर नहीं होना चाहिए था?

आज आदेश का दिन था लेकिन उसके पहले सवाल जवाब के कई दौर चले. अब यह बात फैसले के बाहर होने लगी है कि जब आंदोलन के किसान कमेटी से बात नहीं करेंगे तो क्या कमेटी आपस में बात करेगी? हमने फैज़ान मुस्तफा से कुछ सवाल पूछा कि कमेटी ही क्यों? क्या कोर्ट कमेटी के सुझाव पर कानून को रद्द कर सकता है? कोर्ट ने कहा कि अपने उद्देश्य के लिए कमेटी बना रहे हैं? इसका क्या मतलब हुआ? अगर कोर्ट कहता है कि कानून संविधान सम्मत है तो क्या किसान संतुष्ट हो जाएंगे? बहुत से खराब कानून संवैधानिक तरीके से भी पास हुए हैं. क्या किसानों को ज़बरन कमेटी के सामने आना होगा? 

अब आते हैं कमेटी के सदस्यों के नाम पर. जिस तरह से किसानों ने मना किया कि उन्हें कमेटी मंज़ूर नहीं है उसी तरह से पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढा ने समिति की अध्यक्षता का प्रस्ताव ठुकरा दिया. किसान नेताओं के वकील ए पी सिंह ने कहा कि समिति में जस्टिस मार्कंडेय काट्जू और जोसेफ़ कुरियन होने चाहिए तब कोर्ट ने कहा कि समिति में कौन होगा कौन नहीं होगा यह अदालत तय करेगी. कोर्ट ने अपनी तरफ से नाम तय कर दिए तब भी सवाल पूछा जा रहा है कि ज़्यादातर सदस्यों की राय तो सरकार से मिलती जुलती है.

समिति के सदस्यों में से एक प्रो अशोक गुलाटी शुरू से ही इस कानून के समर्थन में हैं. कृषि कानूनों के समर्थन में अनेक लेख लिख चुके हैं. आपको कानून के समर्थन में इनके अनेक इंटरव्यू मिलेंगे. डॉ प्रमोद जोशी कृषि वैज्ञानिक हैं. इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, दक्षिण एशिया के निदेशक हैं. इसके पहले हैदराबाद स्थित National Academy of Agricultural Research Management के निदेशक रह चुके हैं. प्रमोद जोशी ने फाइनेंशियल एक्सप्रेस में लिखा है कि कृषि कानूनों में ज़रा भी हमारी कृषि को वैश्विक अवसरों का लाभ उठाने से रोकेगा. इसी अखबार के एक अन्य लेख में लिखते हैं कि इन तीन कानूनों को हटाने का मतलब है खेती के पूरे सेक्टर की बर्बादी, और किसानों की भी. प्रमोद जोशी ने यह भी लिखा है कि जब पैदावार कम थी तब के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का सिस्टम आया था. अब जब पैदावार सरप्ल्स है तब न्यूनतम समर्थन मूल्य से आगे सोचने की ज़रूरत है. प्रमोद जोशी ने सरकार की तारीफ की है कि इन सुधारों के फायदे को लेकर उसका प्रचार आक्रामक है. एक ट्वीट में लिखा है कि ये कमाल और दिलचस्प प्रदर्शन है कि किसान चाहते हैं कि व्यापारी के लिए कंपटीशन न हो. भूपिंदर सिंह मान राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं. कांग्रेस से जुड़े हैं. 14 दिसम्बर 2020 के हिंदू में एक ख़बर छपी है कि अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति ने कृषि मंत्री से मिलकर कुछ संशोधनों के साथ कृषि कानूनों का समर्थन किया है. ज्ञापन में यह भी लिखा था कि उत्तर भारत के कुछ राज्यों से दिल्ली में आए कुछ तत्व इन क़ानूनों के प्रति ग़लतफ़हमियां पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. भूपिंदर सिंह मान इसी समिति के अध्यक्ष हैं. अनिल घनवत भी कानून के समर्थक हैं. महाराष्ट्र शेतकारी संगठन के अध्यक्ष हैं. खुले बाज़ार की नीति के समर्थक हैं. इनका मानना है कि कृषि कानूनों से किसानों का भला होगा. मानते हैं कि 40 साल में पहली बार किसानों को खुले बाज़ार का अवसर मिल रहा है. अगर दो राज्यों से हो रहे विरोध के दबाव में इसे वापस लिया गया तो इस अवसर का अंत हो जाएगा.

अनेक प्रसंग आपको मीडिया रिपोर्ट में मिल जाएंगे इन सदस्यों के बारे में जो सरकार की नीति का समर्थन करते हैं. इन सदस्यों की राय देख कर यही लगता है कि सरकार को राय देने की ज़रूरत नहीं है. तो क्या कानून के समर्थक समिति के रूप में कानून के विरोधियों के बात करने जाएंगे? 17 दिसंबर की सुनवाई में पी साईनाथ का सुझाव आया था वो नाम क्यों बाहर रह गया इसका उत्तर नहीं है. किसानों के लिए लगातार लिखने बोलने वाले देवेंद्र शर्मा से हमने बात की कि समिति के सदस्यों के बारे में क्या सोचते हैं. 

ग़ालिब का एक शेर है. का़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूं, मैं जानता हूं जो वो लिखेंगे जवाब में. ये ट्वीट किया है देविंदर शर्मा ने कमेटी के सदस्यों का नाम देख कर. किसानों को क्यों लगता है कि कमेटी के ज़रिए आंदोलन को हटाने का रास्ता बनाया जा रहा है? इसके सदस्यों का नाम देख कर उम्मीद बेकार है.

क्या अदालत के सहारे आंदोलन खत्म कर दिया जाएगा? अदालत ने अभी तक आंदोलन के अधिकार की बात की है. जगह को लेकर बेशक सवाल उठाए हैं. सरकार के वकील 26 जनवरी के बहाने सुरक्षा के सवाल उठा रहे हैं और अब खालिस्तान से जोड़ने लगे हैं. वैसे सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी कहा था कि वह पुलिस की तरफ से हिंसा को लेकर भी चिन्तित है.

सोमवार को इस बात को लेकर सुनवाई होगी कि 26 जनवरी के लिए ट्रैक्टर की रैली की अनुमति दी जाए या नहीं? अटार्नी जनरल ने आंदोलन में खालिस्तान से सहानुभूति रखने वाले संगठन के घुस आने की बात की है. पहले दिन से यह अभियान चलाया गया कि आंदोलन में खालिस्तानी और आतंकवदी है. किसानों ने इसका जवाब दिया और करनाल की घटना को छोड़ दें तो कहीं हिंसा नहीं हुई है. लेकिन आज कोर्ट में सरकार ने भी इस बात को ऑन रिकॉर्ड कर दिया. इस बहस के दौरान समर्थन देने वाले किसानों की ओर से पेश वक़ील PS नरसिम्हा ने कहा कि आंदोलन में सिख फ़ॉर जस्टिस का प्रदर्शन में शामिल होना चिंता की बात है और ऐसे प्रदर्शन ख़तरनाक हो सकते हैं. इस पर मुख्य न्यायाधिश ने अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल से पूछा कि आरोप है कि विरोध प्रदर्शनों में मदद करने वाला एक प्रतिबंधित संगठन है. क्या आप पुष्टि कर सकते हैं? तब के के वेणुगोपाल ने जवाब दिया कि हमने कहा है कि खालिस्तानियों ने विरोध प्रदर्शनों में घुसपैठ की है. इस पर मुख्य न्यायाधीश ने अटार्नी जनरल से कहा कि प्रतिबिंधित संगठन को लेकर आप हलफनामा दायर करें. हमें पूरी जानकारी चाहिए.

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किसान आंदोलन अब उस चौराहे पर है जहां लाल बत्ती ही जलती दिखाई दे रही है. बाकी बत्तियां काम नहीं कर रही हैं. जय जवान जय किसान.