सुधीर जैन का ब्लॉग: बाढ़ से ज्यादा सूखे का भय

बाढ़ की ख़बरों के बीच पानी की कमी की बात करना कुछ अजीब लग सकता है. पहली नज़र में यह बेमौके की बात लगेगी, लेकिन गौर करेंगे, तो ऐसा है नहीं.

सुधीर जैन का ब्लॉग: बाढ़ से ज्यादा सूखे का भय

बाढ़ की प्रतीकात्मक तस्वीर

बाढ़ की ख़बरों के बीच पानी की कमी की बात करना कुछ अजीब लग सकता है. पहली नज़र में यह बेमौके की बात लगेगी, लेकिन गौर करेंगे, तो ऐसा है नहीं. नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 28 जुलाई तक देश में बारिश का आलम यह है कि देश के 53 फीसदी भूभाग पर पानी बहुत कम गिरा है. देश के स्तर पर औसत से 10 फीसदी कम बारिश हो, तो सरकारी मौसम विभाग उसे डैफिशिएंट, यानी जलन्यून वर्षा मानता है. 28 जुलाई तक देश में हुई कुल वर्षा औसत से 13 फीसदी कम है, और अगर संभागीय और उपसंभागीय स्तर पर उतरकर झांकें, तो देश के कुल 36 उपसंभागों में 18 उपसंभाग 19 फीसदी से भी बड़ी जलन्यूनता से जूझ रहे हैं. सौराष्ट्र और कच्छ इलाके में 55 फीसदी कम बारिश हुई है. कई उपसंभागों में वर्षा की कमी 30 फीसदी से भी ज्यादा है. कुल मिलाकर देश में सूखे के अंदेशे पर नज़र रखने का यह सही वक्त है.

बाढ़ की ख़बरों के बीच पानी की कमी के आंकड़े
मानसून के चार महीनों में दो गुज़रने को है. जुलाई का वह महीना भी गुज़र गया है, जिसमें सबसे ज्यादा पानी बरसता है, लेकिन अब तक देश की धरती पर औसत से 13 फीसदी पानी कम गिरा है. गौरतलब है कि पिछले साल सामान्य से सिर्फ 10 फीसदी पानी कम गिरा था और आधा देश सूखे की चपेट में आ गया था. देश के कुल 36 मौसम उपसंभागों में अब तक 18 उपसंभाग जलन्यून वर्षा के शिकार हैं. औसत से ज्यादा बारिश सिर्फ तीन उपसंभागों में हुई है. देश के क्षेत्रफल के लिहाज़ से देखें, तो इस समय सिर्फ पांच फीसदी भूभाग ही औसत से ज्यादा बारिश की जद में है, जबकि देश के 53 फीसदी इलाके में कम बारिश हुई है. यानी वर्षा के मौजूदा हालात के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा भूभाग पर सूखे का साया मंडरा रहा है.

विरोधाभास की पराकाष्ठा
पानी की कमी का अंदेशा सिर पर है और इसी समय देश में कुछ जगह बाढ़ का पानी भलभलाता हुआ समुद्र में वापस चला जा रहा है. उसे रोककर रखने के बारे में कोई चर्चा सुनाई नहीं देती, और न ही यह सुनाई दे रहा है कि देश में पर्याप्त बांधों, जलाशयों का इंतजाम होता, तो वह पानी शहरी इलाकों में घुसने की बजाय बांधों में बंधा होता और पानी की सख्त ज़रूरत के समय काम आता. मौजूदा हालात से आगे के लिए सबक लेने का इससे अच्छा और कौन-सा मौका होगा...?

क्या आलम है बांधों का...?
सेंट्रल वॉटर कमीशन, यानी केंद्रीय जल आयोग देश के मुख्य बांधों में जमा होने वाले पानी का हिसाब रखता है. वह बिना नागा हर हफ्ते बताता है कि बांधों में कितना पानी है. नवीनतम स्थिति 25 जुलाई की है. उसके मुताबिक देश के बांधों में सिर्फ 40 अरब घनमीटर पानी ही जमा हो पाया है, जबकि पिछले साल इस समय तक 65 अरब घनमीटर पानी जमा हुआ था. यानी पिछले साल की तुलना में इस बार बांध 38 फीसदी रीते या खाली हैं. गौरतलब है कि पिछले साल भी पानी कम गिरा था. हालांकि कोई यह उम्मीद बंधा सकता है कि इस साल के मानसून के बाकी बचे दो महीनों में भारी बारिश से ये बांध भर जाएंगे, लेकिन क्या यह एक बड़ी विसंगति नहीं है कि 26 जुलाई तक देश में वर्षा 17 फीसदी कम हुई थी, लेकिन बांधों में जल संभरण 38 फीसदी कम हुआ है. लगे हाथ इस बात पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए कि हमारे बांधों की कुल क्षमता है कितनी...?

सिर्फ 257 बीसीएम का इंतजाम है...
आयोग की निगरानी वाले बांधों की क्षमता सिर्फ 257 बीसीएम, यानी अरब घनमीटर है. जबकि देश में सालभर में बारिश से 4,000 अरब घनमीटर पानी बरसता है. सरकारी जल विज्ञानी बताते है कि हर साल वर्षा से हासिल इस पूरे पानी को हम इस्तेमाल नहीं कर सकते. सरकारी हिसाब से सिर्फ 683 अरब घनमीटर सतही जल ही इस्तेमाल के लिए उपलब्ध है. इसका मतलब है कि कम से कम इतना पानी तो बांधों या जलाशयों में रोककर रखने के लिए उपलब्ध है ही. लेकिन आज तक हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 257 अरब घनमीटर ही है. यानी देश में इस्तेमाल के लिए उपलब्ध पानी का सिर्फ 40 फीसदी हिस्सा ही बांधों-जलाशयों में भरकर रखने का इंतजाम है. इससे मोटे तौर पर यह हिसाब लग सकता है कि बारिश का आधे से ज्यादा पानी बारिश के दौरान बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में चला जा रहा है. बाढ़ से जानें जा रही हैं. बाढ़ राहत के लिए भारी खर्च भी करना पड़ रहा है. बाढ़ से कृषि को भारी नुकसान हो रहा है. यानी देश की अर्थव्यवस्था को सीधा नुकसान हो रहा है.

मामला यहीं पर खत्म नहीं होता. बारिश के पानी को जमा करके रखने का इंतजाम न होने के कारण, कुछ महीने बाद ही सूखे से देश बेहाल होगा. उपज कम होगी. किसान मारे जाएंगे. गरीबों पर महंगाई की मार पड़ेगी. बाजार में मंदी आएगी. यानी सूखे से भी अर्थव्यवस्था पर मार पड़ेगी.

आंकड़े खुद नहीं बोलते...
दरअसल आंकड़े खुद नहीं बोलते. उन्हें बुलवाना पड़ता है. वर्षा और बांधों में जल भंडारण के आंकड़े तो उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी व्याख्या करने की दिक्कत है. सरकारी आंकड़ों को पेश करने का तरीका भी पर्देदारी वाला है. मसलन, मौसम विभाग उपसंभागीय स्तर पर जलन्यूनता तब मानता है, जब बारिश में 19 फीसदी से ज्यादा की कमी हो. इसी तरह किसी उपसंभाग में 19 फीसदी से ज्यादा पानी बरसे, तो उसे एक्सेस रेनफॉल की श्रेणी में डाला जाता है. इस तरह संभागीय और उपसंभागीय स्तर पर सामान्य वर्षा की खिड़की 38 फीसदी की बैठती है. यानी 19 फीसदी पानी कम गिरे या 19 फीसदी ज्यादा, सरकार के लिए वह सामान्य बारिश ही है. दरअसल, सूखे या बाढ़ की घोषणा के बाद सरकार की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं, इसीलिए आमतौर पर सही ही कहा जाता है कि सरकारी अफसरों ने विकट स्थितियों को सामान्य बताने का पुख्ता इंतजाम कर रखा है.

बाढ़ एक फौरी दर्द
बेशक बाढ़ एक तात्कालिक वेदना है, लिहाज़ा इसका फौरी उपचार बहुत जरूरी है. लेकिन पेशेवरों से उम्मीद लगाई जानी चाहिए कि वे ज्यादा बारिश के बगैर ही बाढ़ आ जाने के कारणों को तलाशें. बहुमूल्य पानी के बेकार बह जाने के बाद पैदा होने जा रही सूखे की बड़ी वेदना पर भी नज़र बनाए रखें. इसे बाद के लिए छोड़ेगे, तो चार महीने बाद जल कुप्रबंधन का एक भयावह नज़ारा सूखे के रूप में भी दिखेगा. पिछले एक दशक में कई बार हिसाब लगाया जा चुका है कि सूखे से किसी देश की अर्थव्यवस्था की कैसी दुर्गति हो जाती है.

कहां से सोचना शुरू हो...?
जल प्रबंधन का काम लंबा-चौड़ा है. बहुत खर्चीला भी है, इसीलिए देश की 32 करोड़ हेक्टेअर जमीन पर बारिश के पानी का पूरा और पुख्ता हिसाब-किताब समझना आसान नहीं है, और न यह हिसाब लगाना आसान है कि इस समय बाढ़ और सूखे से निजात दिलाने के लिए देश में कितने नए जलाशयों की जरूरत है...? इस काम पर खर्चे का हिसाब तो और भी ज्यादा जटिल काम है. ये सारे हिसाब लगाना किसी एक विभाग या एक ही प्रकार के पेशेवरों के बूते की बात नहीं है. कम से कम उन अभियंताओं के बस की बात तो है ही नहीं, जिनके जिम्मे इस समय जल प्रबंधन का काम है. मसला अगर जल जैसे संसाधन के प्रबंधन का है, तो इसके लिए विभिन्न प्रौद्योगिकियों के पेशेवरों का एकीकृत दल चाहिए. बेशक देश के IIT, IIM, अभियांत्रिकी महाविद्यालयों और विश्वबैंक के सौजन्य से जल एवं भूमि प्रबंधन संस्थानों के पेशेवर इस मसले पर सोच-विचार पर पहले से लगे हैं. केंद्रीय जल आयोग के हजारों अफसर भी इस काम पर तैनात हैं, लेकिन जल प्रबंधन का मौजूदा काम विश्वसनीय आंकड़ों और अकादमिक ज्ञान की कमी के कारण मुश्किल में पड़ा दिख रहा है. मसलन भारतीय मौसम विभाग के रियल टाइम आंकड़ों की व्याख्या करने और उनसे काम की बात निकालने में अड़चन आ रही है. फौरी तौर पर सोचा जाए, तो इन आंकड़ों की व्याख्या का काम प्रबंधन प्रौद्योगिकी के पेशेवरों, अर्थशास्त्र और सांख्यिकी के विद्वानों को सौंपा जाना चाहिए. देश में आबादी कितनी है, उसके लिए कितना अनाज चाहिए, अनाज उगाने के लिए कितना पानी चाहिए, जरूरत पर खेत तक पानी पहुंचाने के लिए आपूर्ति प्रणाली कैसी हो, दूसरे देशों ने कैसी प्रणालियां विकसित कर ली हैं, हमारे पास जल भंडारण क्षमता कितनी है, वह कितनी और बढ़ सकती है, उसके लिए कितने धन की जरूरत पड़ेगी, इस धन का प्रबंधन कहां से किया जा सकता है...? इन सारे सवालों को हल करने की जिम्मेदारी सिर्फ जल विज्ञानियों के कंधों पर डालना उन पर ज्यादती ही है. दूसरी प्रौद्योगिकियों के पेशेवरों को भी जल प्रबंधन की पेचीदगियां समझने के काम पर लगाए जाने के बारे में सोचने का यह सही समय है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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