उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले से गंगा-यमुना को देश के अन्य नागरिकों की तरह सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे.../
वांगनुई न्यूजीलैंड की तीसरी सबसे लंबी नदी का नाम है. गंगा-यमुना भारत की सबसे चर्चित दो नदियां हैं. अलग-अलग देशों में होने के बावजूद इनमें एक बहुत बड़ी समानता यह है कि ये नदियां-नदियां न होकर अब एक जीवित व्यक्ति बन गई हैं. आइए, इस रहस्य को थोड़ा समझते हैं.
उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए अपने एक ऐतिहासिक फैसले में गंगा-यमुना को 'लीविंग एन्टिटी' यानी जीवित इकाई घोषित किया है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन दोनों नदियों को देश के अन्य नागरिकों की तरह सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे. इनको नुकसान पहुंचाना किसी आदमी को नुकसान पहुंचाने जैसा होगा. चूंकि नदियां कुछ शिकायत नहीं कर सकतीं इसलिए न्यायालय ने तीन लोगों की एक समिति बनाई. उसे इन नदियों का प्रतिनिधि बनाया गया है. गौर करने की बात है कि कोर्ट ने ऐसा करते समय 'गंगा मैया’ शब्द का प्रयोग भी किया. मां यानी एक जीवित नारी.
इसे एक संयोग कहा जा सकता है कि इस फैसले के केवल पांच दिन पहले ही न्यूजीलैंड की संसद ने अपने यहां की 290 किलोमीटर लम्बी वांगनुई नदी को जीवित इकाई घोषित किया था. इसके लिए वहां की संसद ने बाकायदा एक विधेयक पारित किया और अपनी नदी को अधिकार, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व देते हुए उसे एक वैधानिक व्यक्ति बनाया. इस बारे में रोचक बात यह भी है कि ऐसा अचानक नहीं हुआ. न ही इसे पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न संकट के निदान के लिए उठाया गया कदम माना जा सकता है. डेढ़ साल पहले के पेरिस जलवायु सम्मेलन से भी इसका कोई लेना-देना नहीं है. यह एक ऐसा कानूनी मामला है, जिसे न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी लगातार सन् 1870 से लड़तें आ रहे हैं. डेढ़ सौ साल तक एक लंबी लड़ाई के बाद वहां की माओरी जाति अपनी इस पवित्र नदी को यह दर्जा दिलाने की जीत हासिल कर पाई है.
यहां इस बात को जानना भी सही होगा कि वांगनुई नदी दुनिया की पहली जीवित व्यक्ति तो जरूर बन गई है, लेकिन वह प्रकृति की पहली जीवित इकाई नहीं बनी है. इससे लगभग तीन साल पहले इसी देश न्यूजीलैंड ने सन् 2014 में एक विधेयक पारित करके ओरेवेरा नेशनल पार्क को 'लीगल एन्टिटी' का दर्जा दिया था. जहां तक भारत का सवाल है, भारत के न्यायालय ने भले ही पहली बार ऐसा किया हो, लेकिन जनचेतना न जाने कितनी सदियों से अपने प्रकृति के उपादानों से इसी तरह से अपना रिश्ता कायम किए हुए है. उसके धार्मिक ग्रन्थ, मिथक एवं पौराणिक कथाओं तथा नीतिगत कहानियों में प्रकृति एक मनुष्य के रूप में ही नहीं, बल्कि एक संबंधी के रूप में मौजूद रही है. ऋग्वेद का तो पूरा एक अध्याय ही 'पृथ्वीसुप्त' के नाम से प्रकृति की उपासना को समर्पित है. इसमें प्रकृति को मां मानते हुए अंतरिक्ष तक में अपने रिश्ते-नातों की बात की गई है.
यह भारतीय मेधा का केवल चिंतन ही नहीं है, बल्कि उसके जीवन-जीने का एक तरीका भी है. वह गंगा मैया को दीयरी चढ़ाता है. दीपदान करता है. उसके जल का मृतक के मुंह में डालकर उसे स्वर्ग तक पहुंचाने का उपक्रम करता है. हिमालय उसके लिए बर्फ का पर्वत नहीं, बल्कि एक ऐसा पिता है, जो बर्फीली हवाओं से उसकी रक्षा करता है. बरगद उसका दादा है तो नीम भौजाई. तुलसी के पौधे को राधा का प्रतिबिंब मानकर वह अपने आंगन में पूजता है. कृष्ण ने गीता में अपने जितने भी रूप बताए हैं, उनमें से अधिकांशतः प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं. भारतीय संस्कृति शुरू से ही न केवल प्रकृति पर आश्रित रही है, बल्कि प्रकृति को पोषित करने वाली भी रही है. उनके जीवन-मृत्यु, हर्ष-विषाद, उत्सव-पर्वत था जीवन की सारी परम्पराओं में प्रकृति के तत्व उसी तरह मौजूद मिलते हैं, मानो कि उसके परिवार का कोई सदस्य मौजूद हो.
इसलिए उत्तराखंड के उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय चेतना के लिए कोई चौंकाने वाला निर्णय नहीं है. हां, न्यूजीलैंड के लिए हो सकता है. अब उम्मीद की जा रही है कि चूंकि अब गंगा-यमुना को इस रूप में वैधानिक स्वीकृति मिली है, इसलिए अब इसकी विकृति पर विराम जरूर लगेगा. इतना ही नहीं, बल्कि यह निर्णय न केवल भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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