बात शौचालय की, क्‍योंकि सवाल 'स्‍वच्‍छता' का है...

बात शौचालय की, क्‍योंकि सवाल 'स्‍वच्‍छता' का है...

इन दिनों गांव-घर में उत्सव का माहौल है. कुछ मौसम का प्रभाव तो कुछ नई फ़सल के कारण. किसानी समाज के पास जब कुछ पैसा आता है तो सामूहिक स्तर पर कुछ न कुछ आयोजन किए जाते हैं. इसी सिलसिले में गांव के कुछ युवक आते हैं और बताते हैं कि उन लोगों ने मिलकर 40 हजार रुपये जमा किए हैं और अब वे इस रकम से बसंत पंचमी में गीत-संगीत का कार्यक्रम आयोजित करेंगे. उन लोगों ने कहा कि मुझे भी इस कार्यक्रम में सहयोग करना चाहिए. मैंने उन युवकों से सवाल पूछा कि क्या सभी के घर में शौचालय है? मेरे सवाल पर उन लोगों ने चुप्पी साध ली.

बस्ती में लगभग सौ घर हैं.. दस के क़रीब पक्के घर भी. चार दुकान भी हैं, लेकिन शौचालय एक भी घर में नहीं है. जब उन युवकों को बताया कि सांस्कृतिक-धार्मिक कार्यक्रम से पहले शौचालय बनाना जरूरी है तो उन लोगों ने सरकारी योजनाओं में धांधली की बात शुरू कर दी. शिकायतों का बंडल था उन लोगों के पास, लेकिन वे यह समझने के लिए राज़ी नहीं थे कि शौचालय-स्वच्छता के लिए सरकार पर आश्रित होने से अच्छा है कि ख़ुद ही क़दम बढ़ाए जाएं. उन युवकों में दो जनप्रतिनिधि भी थे, लेकिन उसके घर में भी शौचालय नहीं थे. बात यह है कि ग्रामीण इलाक़ों में हम सब सरकारी योजनाओं पर इस क़दर आश्रित होते जा रहे हैं कि जीने की मूलभूत ज़रुरतों मसलन शिक्षा-स्वास्थ्य-स्वच्छता को लेकर भी सरकार की तरफ़ नज़र लगाए रहते हैं. लगातार ग्रामीण इलाके घूमते हुए हम यही देख पा रहे हैं कि अभी भी ग्रामीण समाज शौचालय को लेकर गंभीर नहीं है. सरकारी आंकड़ों पर लंबी बहस हो सकती है, लेकिन ग्राउंड जीरो कुछ और कहता है. गांव-देहात में मोबाइल और महंगी बाइक आपको हर जगह मिल जाएंगी, लेकिन क्या शौचालय दिखते हैं? यह बड़ा सवाल है. प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत बनाने का स्वप्न डिजिटल ही दिख रहा है, लेकिन ग्राउंड की स्थिति कुछ और ही तस्वीर पेश कर रही है. गांव में शौचालय निर्माण को लेकर निजी स्तर पर भी काम करने की जरुरत है. ग्रामीणों को, पंचायत प्रतिनिधियों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में बताने की ज़रूरत है. निर्मल-स्वच्छ गांव बनाने के लिए सभी को साथ आना होगा, हमें कुछ अलग और नया करना होगा.

गांव में जिन युवकों के साथ शौचालय के मसले पर बातचीत कर रहा था उन सभी के पास स्मार्टफ़ोन था. बातचीत में पता चला कि उनके यहां टेलीविज़न भी है. वे स्वच्छ भारत से संबंधितविज्ञापन के बारे में भी जानते हैं. इन सबकी बातों को सुनते हुए मुझे बहुत पहले जारी संयुक्त राष्ट्र की एक रपट की याद आने लगी, जिसके अनुसार अपने देश में लोग शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं. अब बताइए, जरुरत किस चीज की है और हम किस चीज में लगे पड़े हैं. यह भी सच है कि सरकार शौचालय बनाने के लिए पैसा देती है, लेकिन इंदिरा आवास की तरह शौचालय भी अधर में लटका रह जाता है. ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि वह पैसा आखिर कहां जा रहा है? ग्रामीण इलाक़ों में संपन्न किसान अपने पुराने शौचालय की तस्वीर पर बैंक खाते में 12 हज़ार रुपये ट्रान्सफ़र करवा रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार, देश में 54 करोड़ 50 लाख लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं. वहीं केवल 36 करोड़ 60 लाख लोग शौचालयों का उपयोग करते हैं. वैसे तो यह आंकड़ा पांच साल पुराना है, लेकिन मेरा मानना है कि मोबाइल धारकों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुई होगी, लेकिन शौचालय की संख्या उतनी ही होगी.

युवाओं को इन मुद्दों पर सोचना होगा और ख़ुद ही पहल करनी होगी. डॉ बिन्देश्वर पाठक की पहल पर बात होनी चाहिए. उनकी संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने शौचालय के क्षेत्र में बड़ा काम किया है. बिहार से उन्होंने अपना काम आरंभ किया और आज वे दुनिया भर में जाने जाते हैं. देश और विदेश में उनके काम की सराहना की जाती है. इन दिनों हर जगह स्टार्टअप की बात हो रही है. हर कोई नया करना चाहता है. ऐसे में शौचालय निर्माण को लेकर क्या-क्या नया हो रहा है, इस मुद्दे पर बहस की शुरुआत करनी चाहिए. अभी भी जब गांव में लोगों को शौचालय बनाने के लिए कहता हूं तो अक्सर यह सुनने को मिलता है कि हमारे पास शौचालय बनाने के लिए जगह कहां है. जबकि हमें यह मालूम होना चाहिए कि गड्ढे वाले शौचालय का निर्माण मात्र एक मीटर व्यास में भी किया जा सकता है. थोड़ी सी जगह में इस तरह के शौचालय का निर्माण कराया जा सकता है. चूंकि यह जलबंध शौचालय है, जिस वजह से इससे बदबू भी नहीं आती है. दरअसल, हमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होना होगा. हम अपने स्तर पर भी यह काम कर सकते हैं. ऋण लेकर हम खेती कर सकते हैं, मोटर साइकिल, ऑटो-रिक्शा या ट्रेक्टर ख़रीद सकते हैं तो फिर शौचालय को हम प्राथमिकता क्यों नहीं दे रहे हैं.

बसंत पंचमी के नाम पर पैसा जमा कर रहे अपने ग्रामीण युवकों को शौचालय बनाने के लिए हमने इस बार राज़ी तो कर लिया है, लेकिन बात तब तक नहीं बनेगी जब तक उनके घर में शौचालय दिख न जाएं.

गिरीन्द्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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