समाजवादी पार्टी में चाचा-भतीजा संघर्ष और महाभारत की याद...

समाजवादी पार्टी में चाचा-भतीजा संघर्ष और महाभारत की याद...

बेटे अखिलेश यादव के साथ सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)

उत्तर प्रदेश में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, वह सब कुछ सामने है, बताने की ज़रूरत नहीं है. अब कुछ भी छुपा नहीं है. यूपी के सत्ताधारी दल का आंतरिक कलह फ़िलहाल मुल्क के डाइनिंग टेबल के लिए अचार बन गया है, जिसमें हर कोई अपने लिए स्वाद तलाश रहा है.

इस पूरे मसले को कोई मुख्यमंत्री अखिलेश की नज़र से देख रहा है तो कोई पार्टी सुप्रीमो नेताजी की आंखों से, लेकिन एक घोर पारिवारिक इंसान के तौर पर भी इस पूरे घटनाक्रम को देखना चाहिए.

हम सभी बचपन से महाभारत की कहानी में भाई-भाई की लड़ाई की बातें सुनते आए हैं. कौरव-पांडव की लड़ाई, धृतराष्ट्र का पुत्र प्रेम....  यह सब बताता है कि किस तरह पुत्र प्रेम में अंधे होकर धृतराष्ट्र ने सत्ता के लिए भाई के संतानों के ख़िलाफ़ दुर्योधन के तांडव को सहर्ष स्वीकार कर लिया.

महाभारत कथा को ध्यान  में रखकर उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी दल  के उठापटक को देखने की ज़रूरत है. मुलायम की कहानी को यदि आप ग़ौर से एक अ-राजनीतिक नज़र से देखेंगे तो पाएंगे कि किस तरह परिवार के लिए एक आदमी बेटे से झगड़ रहा है.

दरअसल हम जिस पीढ़ी के हैं, वे एकल परिवार में भरोसा रखते हैं. हम फ़्लैट  में सिमटे लोग हैं. लेकिन अभी भी संयुक्त परिवार की कमान जिसके पास है, उससे पूछिए मुलायम सिंह यादव पर इस वक़्त क्या गुज़र रही होगी.

मुलायम एक पिता से पहले एक भाई का धर्म निभाना चाहते हैं. उन्होंने जो कुनबा खड़ा किया उसमें भाई पहले आए न कि संतान. संयुक्त परिवार के मूल में यही बात है और इसी मूल से डरकर हम लोग एकल होते चले गए. इस बात को स्वीकार करना चाहिए. अखिलेश यादव अपनी जगह पर ठीक भी हो सकते हैं. वे हो सकता है राहुल गांधी न बनना चाहते हों.

वैसे यह कटु सत्य है कि राजनीति में पचास वर्षों से अधिक समय से सक्रिय मुलायम इस वक़्त अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. उन्हें पार्टी को बचाना है लेकिन इससे ज्‍यादा महत्व वे अपने परिवार की एकजुटता को बनाए रखने को दे रहे हैं.

परिवार एक रहे, शायद यही वजह है कि वे खुलकर अखिलेश को कहते हैं - 'तुम हवा में घूमते हो अखिलेश! क्या तुम अकेले चुनाव जीत सकते हो? शिवपाल के कामों को कभी भूल नहीं सकता. "

राजनीति, पार्टी और सत्ता के गणित से दूर रहने वाले इस शख़्स को यूपी के इस पूरे प्रकरण ने मुलायम सिंह यादव के बहाने राजनीति में अकेले चलने और 'मैं ही हूं' के फ़ार्मूले को समझने के लिए बाध्य कर दिया है. दरअसल यह वर्चस्व की लड़ाई है और यह जंग अब हर जगह दिख जाती है. सब अपने लिए लड़ते हैं, आगे बढ़ने के लिए, लेकिन संयुक्त परिवार का जो व्याकरण है उसके फ़ार्मूले में इस 'वर्चस्व ' का कोई महत्व नहीं है. वहां 'कर्ता' ही सब कुछ निर्धारित करता है.  

समाजवाद की परिभाषा से इतर इस पूरे घटनाक्रम पर नज़र डालते हुए मैं केवल इसे एक परिवार को बचाए रखने की लड़ाई के तौर पर देख रहा हूं. मैं ग़लत भी हो सकता हूं लेकिन संयुक्त परिवार में रहने के अनुभव के तौर पर यह कह सकता हूं कि भाई-बहन को विश्वास में रखते हुए ही संयुक्त परिवार की अस्मिता और धन-सम्पत्ति की रक्षा हो सकती है. यदि ऐसा नहीं होगा तो सड़क पर आने में देर भी  नहीं लगेगी. रहीम का दोहा है न -
"सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय.."

संयुक्त परिवार में दोस्तों का भी अहम स्थान होता है और दोस्ती भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है. दादा के मित्र की संतानें पोते-पोतियों के भाई-बहन बन जाते हैं. संयुक्त परिवार में हर किसी को साथ लेकर चलना होता है और यह तभी मुमकिन है जब परिवार के मुखिया की बातों पर लोग भरोसा करेंगे. जैसे ही भरोसा टूटा, परिवार बंट जाता है. राजनीति जो पाठ पढ़ाए लेकिन परिवार की पाठशाला को हमें नहीं भूलना चाहिए...और चलते - चलते अनवर जलालपुरी की इन पंक्तियों को पढ़ा जाए-
"धृतराष्ट्र आंखों से महरूम थे
मगर यह न समझो कि मासूम थे "


गिरींद्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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