यह कैसा महिला सशक्तिकरण नीतीश जी ...

बिहार में रोज़गार के अभाव के चलते पलायन एक बड़ी समस्या है . रोज़गार की तलाश में पुरुष बड़े शहरों में निकल जाते हैं और घर पर महिलाएं ,बच्चे और बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं.

यह कैसा महिला सशक्तिकरण नीतीश जी ...

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ( फाइल फोटो )

बिहार में बाढ़ का प्रकोप बढ़ता जा रहा है और इसका सबसे ज़्यादा असर महिलाओं और बचाओं पर पद रहा है. जैसे जैसे पानी का जलस्तर बढ़ रहा है हालात बिगड़ते जा रहे हैं. बिहार में रोज़गार के अभाव के चलते पलायन एक बड़ी समस्या है . रोज़गार की तलाश में पुरुष बड़े शहरों में निकल जाते हैं और घर पर महिलाएं ,बच्चे और बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं. कल जब मैं अपने  मनियारी पंचायत के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का  बीडीओ , विधायक भोला यादव और जलवार पंचायत के मुखिया के साथ दौरा कर रही थी तो महिलाओं की बेबसी देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया . मैंने उन्हें आश्वासन देने का भरपूर प्रयास किया और प्रशासन पर दबाव दाल कर सहायता की हर संभव कोशिश की लेकिन फिर खुद को बहुत कमज़ोर और छोटा महसूस कर रही थी . हालांकि मैंने दोपहिये पर बैठ कर उस जगह का भी मुआयना किया जहां चौदह फाटक के पास नदी का कटाव हुआ था. हाईवे पर मौजूद लोगों ने शोर मचाया कि मुखिया जी आप वहां मत जाइये, खतरा है . लेकिन मेरी हिम्मत और ज़िद को उन्होंने सराहा कि महिला हो कर भी यह किसी से कम नही हैं . कहीं भी चली जाती हैं . खुद ही गाड़ी और ट्व व्हीलर भी चलाती हैं.  ब्लॉक से लेकर क्षेत्र के कई हिस्से में अकेले ही चक्कर मारती रहती हैं. 

लेकिन यही बातें मुझे उस समय कमज़ोर और छोटा बना देती हैं जब मैं इन कार्यों की वजह से सराही जाती हूं. वहीं कुछ गिने चुने पूर्व में सत्ता का मज़ा लूटने वाले एक सुनियोजित ढंग से मेरे हौसले को तोड़ने की लगातार कोशिश करते रहते हैं और इसमें बड़े-बड़े लोग उनके सहयोगी बन जाते हैं यहां तक कि प्रशासन भी इनके साथ मिल कर मेरे इरादों पर पानी फेरने की भरपूर कोशिश में लगा रहता है. मेरा दर्द चुनाव जीतने के एक साल बाद लगातार गहरा होता जा रहा है और मुझे डर है कि कहीं यह मेरे हौसले को तोड़ने की आखिरी कड़ी न बन जाए. इसलिए वक़्त रहते दवा की ज़रुरत है.

मैं हरियाणा के महेंद्रगढ़ में एक दलित परिवार में  जन्मी लेकिन दिल्ली में पली बढ़ी..छह भाई बहनों में तीन भाई और तीन बहनों में पिता का प्यार हमेशा अपने छोटे बेटे के लिए उमड़ता देख अंदर ही अंदर कुढ़ती रही कि आखिर पिता जी हमें भाइयों से काम प्यार क्यों करते हैं. इस ज़िद में लड़कों वाले सारे काम करने लगीं ..बल्कि महिलाओं के लिए आरक्षित रसोई से जान बूझ कर खुद को हमेशा दूर रखा . यह काम मेरी बड़ी और मुझ से छोटी बहनों के कंधे पर रहा और मैं अपने हिस्से का पुरुषों वाला काम जैसे साइकिल से ईंधन के लिए लकड़ी लाना, बाजार से भाग-भाग कर घर का सौदा लाना इत्यादि कामों में लगी रही.

स्कूल में भी पुरुषों वाले खेल में ज़्यादा रुचि ली और जब हमारे दलित मोहल्ले आंबेडकर नगर में सर्व शिक्षा अभियान शुरू हुआ तो वहां भी लड़कों के साथ नुक्कड़ नाटक में गली-गली घूमती रही . प्रौढ़ शिक्षा के इसी अभियान के दौरान मेरी मुलाक़ात एक मज़बूत इरादों वाली महिला कालिंदी देशपांडे से हुई जो इलाक़े में महिलाओं के अधिकार के लिए काम करती थीं . मुझे उनकी बातें बहुत अच्छी लगतीं और मैं धीरे धीरे उन से प्रेरित होती गयी . कालिंदी देशपांडे के साथ काम करते मुझे बचपन के इस भेदभाव का ज्ञान बढ़ता गया कि समाज में लिंग के आधार पर भेद भाव कितना गहरा है.

कालिंदी देशपांडे के साथ शुरू हुई इस यात्रा में मैं बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगी . आंबेडकर नगर ही नहीं दिल्ली के ज़्यादातर इलाक़ों में उस समय लाटरी का बड़ा बुरा प्रकोप था . पुरुष अपनी कमाई शराब के साथ साथ जुए में हार जाते और फिर घर आ कर पत्नी के सवाल पूछने पर उसकी धुनाई कर देते . हमने अपने इलाक़े में लाटरी के खिलाफ अभियान चलाया जिसमें कामयाबी भी मिली और दिल्ली सरकार ने लाटरी पर पाबंदी लगाई. इस आंदोलन को कनाडा के एक डाक्यूमेंट्री वाले ने कवर भी किया जब वो मुझ पर अपने बैकग्राउंड से अलग अन्य लड़कियों से इतर विश्व की पांच युवाओं  पर रेन मेकर्स नाम की श्रंखला शूट कर रही थीं . 

प्रौढ़ शिक्षा के दौरान ही  जेएनयू से एक सर आते थे. उनकी बातें भी मुझे कालिंदी देशपांडे की तरह प्रभावित करती थीं . मैंने कभी सोचा तो नहीं था..लेकिन दिल धीरे धीरे उनकी तरफ खींचने लगा और आखिरकार १९९२ में शुरू हुआ यह प्यार १९९६ में दिल्ली के तीस हज़ारी कोर्ट में शादी में तब्दील हो गया और मैं शकुंतला से शकुंतला काज़मी बन गई . मेरे सर और पति बिहार से थे और उन्होंने ही हमारी शादी को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत रजिस्टर करवाया . उस समय मुझे इसकी ज़्यादा जानकारी नहीं थी ..लेकिन मेरे घर वाले इस बात से खुश थे कि शकुंतला, शकुन्तला ही रहेगी .

हम हर साल ईद पर गांव ज़रूर जाते और कभी-कभी परिवार में शादी या किसी और बड़े अवसर पर भी जाना पड़ता . चूंकि हम ज़्यादा गांव में नहीं रह पाते इस लिए मुझे गांव की अधिक जानकारी नहीं थी . हमारे ससुर गांव के प्रतिष्ठित लोगों में थे. गांव में उनकी बड़ी इज़्ज़त थी . हमारा घर हवेली कहलाता था . अब्बू जब तक रहे हमें गांव के बारे में कुछ सोचने का मौक़ा भी नहीं मिला और न ही हमें ज़्यादा रूचि थी . अब्बू के गुजरने के बाद जो मुझे बहुत मानते थे, गांव मुझे काटने लगा और मैं अक्सर इस कोशिश में रहती कि वहाँ जाना न पड़े , हालांकि हमारी अच्छी खासी जायदाद थी.
 
पिछले साल मई में नदीम अचानक बिना किसी त्यौहार या किसी पारिवारिक उत्सव के गांव गए लेकिन मुझे कुछ  साफ- साफ़ नहीं बताते . गांव से वापसी पर उन्होंने घर में सबको बुलाया. हम तीन यानी पति ,पत्नी और बेटी ही होते हैं लेकिन हर बड़े अवसर पर हम ५ मिनट की चुप्पी के बाद चर्चा शुरू करते हैं. नदीम ने जब यह बम फोड़ा तो मैं और मेरी बेटी सन्न रह गए . लेकिन बेटी फ़ौरन ही पिता के साथ हो गयी और मैं वोटिंग में अकेली रह गयी हालांकि मुझे अपनी पसंद के काम का मौक़ा मिल रहा था लेकिन एक बड़ी क़ीमत चुकाने की क़ीमत पर.

नदीम ने बताया कि हमारी पंचायत दलित महिला की ओर आकर्षित हो गयी है और गांव के लोग चाहते हैं कि तुम मुखिया का चुनाव लड़ो . उन्होंने नदीम को फ़ोन किया था लेकिन नदीम ने कहा कि पहले गांव वालों से मिल कर बात करेंगे फिर अंतिम फैसला शकुन (शकुंतला का शार्ट फॉर्म ) का ही होगा . मुस्लिम बाहुल्य गांव में कोई दलित को हिस्सा देने को तैय्यार नहीं था और उनका एक मत था कि पत्नी न सही पति तो मुस्लिम है . बेटी १२वीं की परीक्षा की तैयारी में जुटी थी . मैं मन से तैयार नहीं थी लेकिन बेटी और बाप के सामने मेरी एक न चली और मुझे हां करनी पड़ी . सोचा कालिंदी देशपांडे, गीता मुख़र्जी, बृंदा करात और उन जैसे कई नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ महिलाओं को संसद और  विधान सभा में महिला आरक्षण के आंदोलन में शिरकत की शायद यह एक मंज़िल है और शायद मैं इस मौके को महिला सशक्तिकरण के लिए इस्तेमाल कर पाऊं , भरे मन से ही सही मैंने हाँ कर दी . आज कोसती हूँ कि ऐसा क्यों किया . मैं शहर में मध्यम वर्ग की सहूलतों के साथ एक आरामदेह जीवन त्याग कर क्यों गांव में सर फोड़ने चली आई.

चुनाव के दौरान मैंने अकेले ही गांव के युवाओं के साथ मई जून की गर्मी में गांव-गांव का दौरा किया . मेरी पंचायत में सोभन, गुनौली, मनियारी , तेलिया पोखर सहित कई गांव हैं . मैं हर जगह कई-कई बार गयी ..महिला वोटरों को प्रभावित करने की पूरी कोशिश की . इस क्रम में महिलाओं का भरपूर साथ भी मिला .लेकिन मेरी जीत का हिस्सा रहे मेरे मुस्लिम बाहुल्य गांव सोभन के मतदाता जो अधिकतर मुस्लिम वोट थे . प्रचार के दौरान विरोधी यही आरोप लगाते रहे कि यह दिल्ली की आरामपसंद महिला हैं जीत गयीं तो दिल्ली चली जाएंगी ..आप लोगों का काम कैसे होगा . मैं उन्हें भरोसा दिलाती रही कि हाँ मैं अपने पति ओर बेटी से मिलने दिल्ली जाती रहूंगी लेकिन अपना ज़्यादातर समय पंचायत को ही दूंगी.

और जीतने के बाद अभी तक मैंने इसे निभाया भी है . लेकिन मेरा यही संकल्प मेरे लिए श्राप बन गया है . गांव में जो लोग मुझे जिताने में जुटे थे ज़्यादातर लोगों का यही माना था कि जीत कर वो दिल्ली चली जाएंगी और उनके नाम पर राज हम करेंगे . लेकिन २४-२५ साल महिला कार्यकर्ता के तौर पर काम करने वाले मन को यह मंज़ूर ही नहीं था . नाम हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा . मैं जीतने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के पंचायत कर निकाय चुनावों में ५०% महिला आरक्षण के फैसले की बहुत बड़ी फैन थी . मुझे लगा बिहार बदल रहा है और महिला सशक्तिकरण का यह अग्रणीय राज्य है. मुझे पहला झटका तब लगा जब मैंने वार्ड मेंबर्स को यह कहा कि मेरी बैठक में चुनी हुई महिला सदस्य ही आएंगी और उनके पतियों पर दबाव बनाती रही कि चुने हुए प्रतिनिधि को सामने लाओ.

उन्हें साथ ले कर मुझे भी बल मिलेगा और वो भी मुझ से कुछ सीख पाएंगी . यही मेरी पहली भूल मेरे लिए मुसीबतों का पहाड़ ले कर आ गयी . चुने हुए वार्ड सदस्यों के पतियों को मेरा यह सुझाव पसंद नहीं आया और उन्होंने ने जीत के बाद ही मेरा विरोध शुरू कर दिया . मुझे लगा धीरे-धीरे मैं इन्हें लाइन पर ले आऊंगी और शायद इनका नजरिया भी बदले. मैंने उपमुखिया के लिए भी एक महिला को ही जोड़-तोड़ करके जीता लिया . लेकिन इस भूल का खामियाज़ा बहुत ही महंगा पड़ रहा है . उपमुखिया का पति और बेटा मेरे खिलाफ हो गए और दूसरे वार्ड मेंबर्स के साथ अलग गुट बना कर मेरा विरोध शुरू कर दिया . प्रखंड में शपथ लेने के बाद जब मुखियाओं की पहली बैठक हुई तो मुझे दूसरा बड़ा शॉक लगा. 

नियम के आधार से 23 मुखियाओं में आधी महिलाएं जीत कर आयी थीं लेकिन उस बैठक में मैं ही अकेली महिला मुखिया मौजूद थी. मैंने जब इस बात पर वहां मौजूद मुखिया पतियों को नरम लेकिन मज़बूत आवाज़ में सम्बोधित किया तो सभी भड़क गए और चिल्लाने लगे .  मुखिया जी ऐसा नहीं चलेगा...अपनी दिल्ली वाली नेतागिरी वहीं रहने दीजिये ..यहां ऐसा ही चलता है और ऐसा ही चलेगा. मैं सन्न रह गयी . यह कौन सा आरक्षण है यह कौन सा महिला सशक्तिकरण है . मेरे साथ तो मेरा पति भी नहीं है. वो दिल्ली में अपनी नौकरी कर रहा है . मैं आगे काम कैसे कर पाऊंगी . मुझे लगा यह लोग ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं लगते , इन्हें धीरे धीरे समझाऊंगी.

मैं खुद अच्छा काम करके एक मिसाल क़ायम करूंगी और हो सकता है इससे प्रेरित हो कर कुछ चुनी हुई महिला मुखिया आगे आएं और अपने अधिकारों को पहचानें. मुझे पढ़े लिखे प्रशासनिक अधिकारियों पर भरोसा था कि मुझे उनका साथ मिलेगा और मनियारी पंचायत दरभंगा के बहादुरपुर प्रखंड का नाम रोशन करेगा . शुरुआत अच्छी भी हुई. मनियारी पंचायत का वार्ड नुम्बर दो बहादुरपुर प्रखंड का पहला वार्ड था जो छह महीने के भीतर ODF हो गया था .  मुझे लगा कि इस हिसाब से अपने सभी १२ वार्डों को मैं अपने कार्यकाल में पूरा  ODF करवा लूंगी.

लेकिन शुरुआती तेज़ी गांव और पंचायत के पुराने खिलाडियों को पसंद नहीं आयी और उन्होंने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया . प्रशासन भी मुझे पूरी तरह पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त दिखा . मेरे ही गांव के दूसरी पंचायत के पुरुष मुखिया की अधिकारियों की सांठगांठ खूब रहती है लेकिन मुझे कोई तवज्जो नहीं दी जाती. परेशान हो कर मेरे चीखने और चिल्लाने को बदतमीज़ी और उद्दंड कह कर बदनाम किया जाने लगा . आज मुझे वो दिन याद आ रहे हैं जब महिला सांसदों और कार्यकर्ताओं के उस संघर्ष का स्मरण आ रहा है जब हमने खुद को संसद भवन के गेट से ज़ंजीरों से बांध लिया था और मेरी वो तस्वीर महिला सशक्तिकरण के बड़े बड़े नेताओं के साथ अख़बार और पत्रिकाओं में छापे थे . मुझे जगह जगह से रिश्तेदारों और जानने वालों के फ़ोन आ रहे थे कि एक दिन तुम युवा लोगों के नेतृत्व में महिला आरक्षण के साथ महिला सशक्तिकरण ज़रूर होगा .

लेकिन बिहार के इस महिला आरक्षण ने उन सभी सपनों को चकनाचूर कर दिया है . मैं सोच रही हूँ कि अपना सफर बीच में ही छोड़ कर मैं अपने पति और बेटी के पास क्यों न आ जाऊं . कब तक इन पत्थर जैसे सूने पुरुषवादी समाज से लड़ती रहूं. महिला आरक्षण से महिला का कोई भला नहीं होगा . महिलाएं अंदर रसोई, बच्चों और मवेशियों की देखभाल में व्यस्त रहेंगी. उनके पति और बेटे राज करते रहेंगे क्योंकि मेरी एक मामूली सी बात पर भी मुखिया पति ( बिहार में इनको एमपी भी कहा जाने लगा है) राज़ी नहीं हुए.  मैंने यह कहा कि प्रखंड की हर महीने एक मुखिया के घर पर होने वाले भोज में ही सही अपनी पत्नियों को ले कर तो आओ . लेकिन किसी के कान पर जूँ न रेंगा क्योंकि उनके अनुसार बिहार की महिलाएं घर में बैठ कर एक दूसरे के जुंए ही मारेंगी वो सत्ता और सहयोग में हिस्सा नहीं लेंगी .

(शकुंतला काज़मी बिहार के मनिहारी पंचायत की मुखिया हैं)

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